Chehre Movie Review: अमिताभ बच्चन की ओवर एक्टिंग में अटकी ‘चेहरे’, अच्छी कहानी पर बनी कमजोर फिल्म
रूमी जाफरी का हिंदी सिनेमा में बतौर लेखक बड़ा नाम रहा है। पिछले तीन दशक में वह तमाम सुपरहिट फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। इनमें से तमाम हिट फिल्में दक्षिण की सुपरहिट फिल्मों की रीमेक रही हैं। संवाद लेखन उनकी खासियत है। पटकथा लेखन का उनका इतिहास उतना आकर्षक नहीं रहा है। बतौर निर्देशक फिल्म ‘चेहरे’ उनकी चौथी फिल्म है।

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रूमी जाफरी का हिंदी सिनेमा में बतौर लेखक बड़ा नाम रहा है। पिछले तीन दशक में वह तमाम सुपरहिट फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। इनमें से तमाम हिट फिल्में दक्षिण की सुपरहिट फिल्मों की रीमेक रही हैं। संवाद लेखन उनकी खासियत है। पटकथा लेखन का उनका इतिहास उतना आकर्षक नहीं रहा है। बतौर निर्देशक फिल्म ‘चेहरे’ उनकी चौथी फिल्म है। इसके पहले वह ‘गली गली चोर है’, ‘लाइफ पार्टनर’ और ‘गॉड तुस्सी ग्रेट हो’ नामक फिल्में निर्देशित कर चुके हैं। कोई छह साल पहले उन्होंने एक फिल्म ‘दो चेहरे’ भी लिखी थी, हालांकि फिल्म ‘चेहरे’ से इसका कोई ताल्लुक नहीं है। फिल्म ‘चेहरे’ की मूल कहानी रंजीत कपूर की है, रूमी जाफरी ने इसे अपनी फिल्म के हिसाब से तब्दील भी किया है। पिछले डेढ़ साल में मनोरंजन जगत पर पड़े कोरोना संक्रमण के असर के दौर में दर्शकों की रुचियों में काफी तब्दीली आई है। उन्हें औसत फिल्में भी अब पसंद नहीं आतीं। दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने की वजह अब सिर्फ ऐसी फिल्में ही बन सकती हैं जिनमें ऐसा कुछ हो जो वह अपने स्मार्ट टीवी पर महसूस नहीं कर सकते। फिल्म ‘चेहरे’ एक छद्म कोर्टरूम ड्रामा फिल्म है जिसमें पूरा जोर इसके संवादों पर है। बजाय फिल्म के ये कहानी रंगमंच का एक नाटक लगती है और यही इसकी सबसे कमजोर कड़ी है।

फिल्म ‘चेहरे’ की कहानी धीरे धीरे अपनी पकड़ दर्शकों पर बनाने की कोशिश करती है। एक बड़ी कंपनी का सीईओ दिल्ली पहुंचने के लिए शॉर्टकट लेता है। बर्फीले तूफान में उसकी गाड़ी खराब होती है और उसे शरण लेनी पड़ती है सुनसान जगह में बनी एक हवेली में। हवेली में एक रिटायर्ड जज है। एक जल्लाद है। दो वकील हैं। एक सजा काटकर लौटा युवक है। और, इनके लिए घरेलू काम करने वाली एक युवती भी है। सबकी कहानियां किसी न किसी चौराहे पर अतीत में मिल चुकी हैं और ये सब मिलकर हवेली में आने वाले अजनबियों के साथ कानून का खेल खेलते हैं। सीसीटीवी कैमरे में इसे रिकॉर्ड करते हैं और यहां से भागने वालों का आखिर तक पीछा भी करते हैं।

कहानी रोचक है फिल्म ‘चेहरे’ की। लेकिन, इस कहानी पर जितनी चुस्त पटकथा लिखी जानी चाहिए थी वह हो नहीं पाया। फिल्म की कहानी का आधार यहां अच्छा बुना गया है। ये उत्सुकता भी जगाता है कि आगे क्या होने वाला है। पर दर्शक अपना ध्यान जब कहानी पर पूरी तरह लगा चुके होते हैं तो फिल्म उनके साथ खेल खेलने लगती है। फ्लैशबैक में सीईओ के विवाहेत्तर संबंध दिखाए जाते हैं तो मामला इमरान हाशमी की पुरानी फिल्मों को दोहराता दिखने लगता है और फिल्म भी यहीं से बिखरनी शुरू हो जाती है। बतौर निर्देशक रूमी जाफरी बार बार अलग तरह का सिनेमा बनाने की कोशिश करते रहे हैं। इसके लिए उनको दाद भी मिलनी चाहिए लेकिन वह शायद बदलते दौर में दर्शकों की बदलती रुचियों से अनभिज्ञ हैं। वह अगर मौजूदा पीढ़ी के युवा दर्शकों से संवाद करना शुरू करें तो उन्हें अपने सिनेमा को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। उनका निर्देशन सिनेमा के पुराने स्कूल जैसा है। नवीनता फिल्म ‘चेहरे’ में सिरे से गायब है। अमिताभ बच्चन को इसी तरह के किरदार में दर्शक ‘बदला’ और ‘पिंक’ में भी देख चुके हैं।

अभिनय के मामले में फिल्म ‘चेहरे’ अपना वजन दिखाने की कोशिश करती है। अमिताभ बच्चन की आवाज का जादू इसमें पहले फ्रेम से लेकर आखिरी फ्रेम तक है। कूकी गुलाटी के निर्देशन में शूट की गई टाइटल सीक्वेंस में अमिताभ बच्चन अपने तिलिस्म में दर्शकों को बांधने की पूरी कोशिश भी करते हैं लेकिन अमिताभ बच्चन अपना नैसर्गिक अभिनय दिखाने से यहां चूक गए। वह परदे पर जरूरत से अधिक अभिनय करते दिखते हैं और दर्शक को उनका किरदार दिखता ही नहीं, वहां सिर्फ अमिताभ बच्चन ही नजर आते हैं। लतीफ जैदी का चोला पहने अमिताभ बच्चन के क्लाइमेक्स में बोले गए लंबे लंबे संवाद उनकी अभिनय क्षमता और उनकी आवाज का बखूबी इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन दर्शकों का इनसे कोई मनोरंजन नहीं हो पाता बल्कि ये फिल्म देखने के तनाव को और बढ़ाते हैं।

फिल्म ‘चेहरे’ के बाकी कलाकारों में अन्नू कपूर का अभिनय कमाल का है। वह बचाव पक्ष के वकील के तौर पर बहुत ही सहजता से अपने किरदार में उतर जाते हैं। उनके बोलने का अंदाज उनके किरदार को मजूबत बनाने में काफी मदद करता है। अभिनय यहां इमरान हाशमी ने भी अच्छा किया है। लेकिन जैसे ही कहानी फ्लैशबैक में जाती है उनकी पहले की फिल्मों की यादें दर्शकों के दिमाग में ताजा होने लगती हैं और फिल्म इन फ्लैशबैक के चलते ही सबसे ज्यादा लड़खड़ाती है। रिया चक्रवर्ती के फिल्म में होने न होने से कोई खास फर्क पड़ता नहीं है। अभिनय भी वह ठीक से कर नहीं पाई हैं। हां, क्रिस्टल डिसूजा जरूर अपनी मादक और मोहक अभिनय का असर छोड़ने में सफल रहीं। फिल्म में रघुवीर यादव और सिद्धांत कपूर के लिए करने को कुछ है ही नहीं, दोनों के किरदार अगर थोड़ा उनकी पृष्ठभूमि के साथ दिखाए गए होते तो इन दोनों से फिल्म को सहारा मिल सकता था।

तकनीकी रूप से भी फिल्म ‘चेहरे’ कमजोर फिल्म है। फिल्म में इस्तेमाल किए गए स्पेशल इफेक्ट्स औसत से भी गए बीते हैं। खासकर क्लाइमेक्स में बर्फ के धसकने वाला दृश्य बहुत ही खराब ढंग से फिल्माया गया है। हां, सिनेमैटोग्राफर बिनोद प्रधान ने कोर्टरूम वाले दृश्यों में प्रकाश के संयोजन में कमाल दिखाया है। सीमित क्षेत्रफल के सेट में उन्होंने कैमरे की प्लेसिंग भी अद्भुत की है लेकिन फिल्म संपादन में कमजोर है। बोधादित्य बनर्जी ने फिल्म को दो घंटे के करीब ही रखा है लेकिन चुस्त संपादन से ये फिल्म 90 मिनट की बेहतर फिल्म बन सकती थी। संगीत का कोई खास स्कोप फिल्म में है नहीं और गाने फिल्म देखकर निकलने के बाद याद भी नहीं रह पाते हैं। कुल मिलाकर फिल्म ‘चेहरे’ कथ्य के हिसाब से एक अच्छा प्रयोग है लेकिन कथन इसका कमजोर है।