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बिहार के महाकांड: जब जमीन की जंग में बहा दलितों का खून, इंदिरा की प्रचंड वापसी की राह बनी बेलछी की हाथी यात्रा

स्पेशल डेस्क, अमर उजाला Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र Updated Fri, 31 Oct 2025 07:52 AM IST
सार

बेलछी हत्याकांड क्या था, जिसने देश की राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अहम भूमिका निभाई? आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की लगभग खत्म मानी जाने वाली राजनीति के लिए यह हत्याकांड कैसे राजनीतिक संजीवनी बन गया? ‘बिहार के महाकांड’ सीरीज की दूसरी कड़ी में आज इसी बेलछी हत्याकांड की कहानी...

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बेलछी नरसंहार। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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देश के लोकतंत्र पर लगा आपातकाल का धब्बा हट चुका था। नए सिरे से हुए चुनाव में विपक्षी दलों को मिलाकर बनी जनता पार्टी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई।  राज्यों की विधानसभा के लिए भी  नए सिरे से चुनाव हुए। कुछ राज्यों को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में भी जनता पार्टी को भारी सफलता मिली। जनता बेहद कौतूहल से नई सरकार की ओर देख रही थी। लेकिन, सत्ता में आने बाद इस दल के लिए कई चुनौतियां सामने आने लगीं। अलग-अलग विचारधारों को मिलाकर बने दल में यही अलग-अलग विचार टकराव की वजह बनने लगे।  वहीं, दूसरी ओर देश के अलग-अलग हिस्सों में जातीय हिंसा की घटनाएं बढ़ने लगीं। ऐसी ही एक घटना बिहार के बेलछी में हुई। बेलछी की इस घटना ने 1977 के चुनाव की खलनायिका रहीं इंदिरा गांधी को दुनियाभर की मीडिया की सुर्खियां बना दिया। कुछ विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि इस घटना ने इंदिरा की सत्ता वापसी में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। 


आखिर बेलछी हत्याकांड क्या था, जिसने देश की राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अहम भूमिका निभाई? आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की लगभग खत्म मानी जाने वाली राजनीति के लिए यह हत्याकांड कैसे राजनीतिक संजीवनी बन गया? ‘बिहार के महाकांड’ सीरीज की दूसरी कड़ी में आज इसी बेलछी हत्याकांड की कहानी...
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बेलछी हत्याकांड की पृष्ठभूमि क्या थी?
अरुण सिन्हा की 2011 में आई किताब 'नीतीश कुमार एंड द राइज ऑफ बिहार' के मुताबिक, 1970 के दशक में बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और समरस समाज पार्टी (एसएसपी) ने पहुंच बनाई तो यहां का सामाजिक ताना-बाना धीरे-धीरे बदलने लगा। इन पार्टियों के नेतृत्व में 1970 के मध्य तक मजदूरों के तबके ने उच्च जातियों से आने वाले जमींदारों और जमीन पर कब्जा करने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी। इसके चलते एक खूनी संघर्ष की शुरुआत हुई।

इसी खूनी संघर्ष की आंच में बेलछी सबसे बुरी तरह झुलसा। दरअसल, यहां कुर्मी जाति से आने वाले जमींदार महावीर महतो थे। बेलछी के गरीब और भूमिहीन किसानों का संगठन सिंधवा के नेतृत्व में स्वतः स्फूर्त हुआ। कभी स्कूल नहीं गए सिंधवा का किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं था, फिर भी उनके द्वारा की गई लामबंदी ने बेलछी का परिदृश्य बदल दिया। सिंधवा ने मजदूरों को एक करने के साथ महावीर महतो की मजदूरों की जमीन और फसल छीनने की कोशिशों के खिलाफ भी मुहिम छेड़ दी है। 

सिंधवा के नेतृत्व में मजदूरों का इस तरह एक होना महतो को पसंद नहीं आया। बताया जाता है कि सिंधवा का उभार कुर्मियों के सम्मिलित आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने लगा था। उनके नेतृत्व में कई कृषि मजदूरों ने साथ आकर राजनीतिक संगठन की शुरुआत कर दी। इससे कुर्मियों को लगने लगा कि कृषि मजदूरों, जिनमें पासवान जाति का बड़ा तबका था, वह उनके खिलाफ खड़ा हो रहा है। इसी ने जन्म दिया बेलछी कांड को।

गृह मंत्री के बयान पर जनता सरकार को मांगनी पड़ी माफी
बेलछी हत्याकांड का मुद्दा संसद पहुंचा तो इस पर जबरदस्त हंगामा हुआ। पत्रकार रह चुके मनोज मिट्टा ने अपनी किताब ‘कास्ट प्राइड- बैटल्स फॉर इक्वैलिटी इन हिंदू इंडिया’ में लिखा है कि एक मौके पर जब कोयंबटूर से लोकसभा सांसद पार्वती कृष्णन ने बेलछी का मुद्दा उठाया तो गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने इस हत्याकांड को जातीय हिंसा मानने की जगह दो गुटों का संघर्ष करार दे दिया। उन्होंने कहा कि इस घटना में जातीय या सांप्रदायिक एंगल नहीं है। मीडिया के एक हिस्से में जिस तरह से लिखा जा रहा, वैसा जातीय उत्पीड़न का मामला नहीं है। 

संसद में विरोध बढ़ने पर सरकार ने आठ सांसदों की एक फैक्ट फाइंडिंग कमेटी गठित की। इस टीम में रामविलास पासवान को भी रखा गया, जो उसी दुसाध जाति से आते थे, जिस जाति के लोगों की बेलछी में हत्या हुई थी। इस समिति ने जुलाई में बेलछी का दौरा किया और 14 जुलाई को रिपोर्ट प्रकाशित की गई। इसमें पूरा कांड जातीय हिंसा होने की बात कही गई। रिपोर्ट के मुताबिक, "जिन लोगों की हत्या हुई वह भूमिहीन मजदूर थे और बंटाई पर खेती करते थे। इन लोगों की हत्या पक्के घरों में रहने वाले कुर्मी जाति के दबंग किसानों के समूह ने की थी।" इस घटना के बाद जनता पार्टी सरकार को माफी मांगनी पड़ी थी।

हाथी पर बैठ बेलछी पहुंची इंदिरा  
आपातकाल के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह हार मिली। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी तक अपना चुनाव हार गए। इंदिरा राजनीतिक भविष्य अधर में दिखने लगा। बेलछी कांड ने इंदिरा को एक बार फिर जनता के बीच लौटने का मौका दिया। इंदिरा ने न सिर्फ इस मौके को भुनाया, बल्कि उनका तरीका आज भी राजनीतिक गलियारों में मास्टरस्ट्रोक कहा जाता है। जब जनता सरकार के खिलाफ बेलछी हत्याकांड को लेकर विरोध प्रदर्शन जोर-शोर से जारी थे, तब इंदिरा कच्चे, ऊबड़-खाबड़ रास्तों से बेलछी पहुंचीं थीं। 



बताया जाता है कि जब इंदिरा हाथी में बैठकर बेलछी पहुंची, उस वक्त रात हो चुकी थी। उनका रात में हाथी पर बैठकर बेलछी गांव पहुंचना देश और दुनिया भर की मीडिया की सुर्खियां बन गया।

बताया जाता है कि इंदिरा के इस कदम ने कांग्रेस को पिछड़ी जातियों के साथ खड़ा दिखाया था। पूर्व पत्रकार और मौजूदा समय में तृणमूल कांग्रेस से सांसद सागारिक घोष ने अपनी किताब 'इंदिरा- इंडियाज मोस्ट पावरफुल प्राइम मिनिस्टर में पत्रकार जनार्दन ठाकुर के हवाले से इस दौरे का ब्योरा लिखा है। किताब में बताया गया है कि जब कांग्रेस के एक नेता ने कमर तक पानी देखकर आगे बढ़ने से इनकार कर दिया तब भी इंदिरा गांधी ने चलना जारी रखा। आखिरकार 'मोती' नाम का हाथी लाने के बाद इंदिरा इस पर बैठकर बेलछी पहुंचीं। सगारिका घोष ने इंदिरा के इस सफर को राजनीति में उनकी वापसी का सफर करार दिया गया है।  

इंदिरा फिर से भारतीय राजनीति के केंद्र आईं
इंदिरा के विरोधी रहे मधु लिमिये ने 'जनता पार्टी एक्सपेरिमेंट: एन इनसाईडर अकाउंट ऑफ अपोजीशन पॉलिटिक्स' में लिखा कि बेलछी की यात्रा ने इंदिरा को फिर से भारतीय राजनीति के केंद्र में ला दिया। उनकी इस यात्रा ने कई उद्देश्यों को एक साथ पूरा कर दिया। इसके साथ ही जनता सरकार के उस दावे को भी कमजोर किया कि वह गरीबों और हरिजनों की हितैशी है। बल्कि इंदिरा की यात्रा ने उनकी छवि को गरीब और हरिजन हितैशी बना दिया।

तीन साल में खत्म हुआ जनता पार्टी का जादू 
एक तरफ देश में बढ़ती जातीय हिंसा से जनता सरकार की लोकप्रियता घट रही थी, दूसरी तरफ बेकाबू होती महंगाई ने भी जनता सरकार की मुश्किलों को बढ़ा रखा था। 1980 के चुनावों में महंगाई कितना बड़ा मुद्दा बन गई थी इसका अंदाजा इस चुनावी नारे से लगाया जा सकता है, जिसमें कहा जाता था, जनता पार्टी हो गई फेल, खा गई चीनी, पी गई तेल। 
 

1978 में इंदिरा गांधी को गिरफ्तार करने का जनता सरकार का फैसला भी उनके खिलाफ गया। इन सबके बीच पार्टी के नेताओं की आपसी खींचतान से सरकार में संघर्ष जारी था। मोरारजी सरकार बनने के महज दो साल बाद ही जनता पार्टी बिखर गई। पार्टी में दो धड़े हो गए। चौधरी चरण सिंह का समाजवादी धड़ा पार्टी से अलग हो गया। जिन इंदिरा गांधी का विरोध करके जनता पार्टी सत्ता में आई थीं उन्हीं के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। महज एक महीने बाद इंदिरा ने चरण सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और इसके साथ ही नए सिरे से चुनाव तय हो गए।
 
राष्ट्रपति ने एक महीने तक अन्य दलों को सरकार बनाने के लिए बहुमत जुटाने का समय दिया, लेकिन कोई भी समाधान नहीं होने की स्थिति में चुनाव आयोग को नए सिरे से मध्यावधि चुनाव कराने के लिए कहा गया। चुनाव आयोग को प्रक्रिया के लिए दो महीने का वक्त लगा। तब तक चौधरी चरण सिंह अपने पद पर रहे। 1980 में जनता पार्टी से अलग हुए चरण सिंह की पार्टी और जनता पार्टी आमने-सामने थे। जनता पार्टी की आपसी लड़ाई का फायदा इस चुनाव में कांग्रेस को हुआ। इंदिरा की पार्टी को 353 सीटें मिलीं। जो 1971 में कांग्रेस को मिली सफलता से भी ज्यादा थीं। वहीं, जनता पार्टी को 31 तो चरण सिंह की जनता पार्टी (सेक्युलर) को 41 सीटों से संतोष करना पड़ा। 

इंदिरा की पार्टी को दक्षिण में अच्छी सफलता मिली। वहीं, उत्तर में जनता पार्टी के दोनों धड़ों की लड़ाई का उन्हें उत्तर में फायदा हुआ। खासतौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में जहां तीन साल पहले पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था। बिहार में कांग्रेस 45 में से 30 सीटें जीतने में सफल रही तो उत्तर प्रदेश में उसे 85 में से 51 सीटों पर जीत मिली। बिहार में कांग्रेस को 36 फीसदी वोट मिले तो उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को 35.9 फीसदी वोट मिले।
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