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जलवायु संकट: पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा में औषधीय पौधे विलुप्ति के कगार पर, वैज्ञानिकों ने चेताया
अमर उजाला नेटवर्क
Published by: लव गौर
Updated Thu, 18 Dec 2025 06:20 AM IST
सार
जलवायु संकट के बीच वैज्ञानिकों ने चेताया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा में औषधीय पौधे विलुप्ति के कगार पर हैं। 13 से 16 फीसदी तक औषधीय पौधों के प्राकृतिक आवास खत्म होने का खतरा है।
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विलुप्ति के कगार पर औषधीय पौधे
- फोटो : अमर उजाला प्रिंट
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विस्तार
जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के सबसे समृद्ध जैव विविधता वाले इलाके पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा क्षेत्र आज गंभीर दबाव में हैं। मौसमी अनिश्चितता ने यहां दुर्लभ औषधीय पौधों के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। हालिया अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि अगर मौजूदा रुझान जारी रहे, तो इन क्षेत्रों में 13 से 16 फीसदी औषधीय पौधें समाप्त हो सकते हैं।
पूर्वी हिमालय और भारत-बर्मा क्षेत्र सदियों से औषधीय पौधों की विविध प्रजातियों का घर रहे हैं। यहां मिलने वाले कई पौधे ऐसे हैं, जिनका उपयोग आयुर्वेद, लोक चिकित्सा और पारंपरिक उपचार प्रणालियों में होता रहा है। लेकिन अब यही प्राकृतिक धरोहर तेजी से सिमटती जा रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार, बढ़ता तापमान और अनियमित बारिश औषधीय पौधों के प्राकृतिक आवास को अस्थिर कर रही है। कुछ प्रजातियां ठंडे वातावरण की तलाश में ऊंचाई की ओर खिसक रही हैं, जबकि कई पौधे ऐसे हैं जो इस बदलाव के साथ खुद को ढाल नहीं पा रहे।
नतीजतन, उनके पूरी तरह समाप्त हो जाने का खतरा बढ़ गया है। पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा क्षेत्र में जिन औषधीय पौधों के विलुप्त होने का खतरा सबसे अधिक बताया गया है, उनमें मुख्यतः जड़, कंद और रहिजोम आधारित पौधे शामिल हैं। ये पौधे ठंडे और नमी-युक्त वातावरण पर अत्यधिक निर्भर होते हैं। उदाहरण के तौर पर अतीस (एकोनाइटम प्रजाति) जिसका उपयोग बुखार, सूजन और दर्द निवारण में किया जाता था, अब बढ़ते तापमान के कारण ऊंचाई वाले सीमित इलाकों तक सिमटता जा रहा है।
इसी तरह कुटकी (पिक्रोराइजा कुरोआ) जैसी प्रजाति, जो लीवर रोग, पाचन विकार और प्रतिरक्षा बढ़ाने वाली दवाओं में प्रयुक्त होती थी, अपने प्राकृतिक आवास खोने के कारण तेजी से दुर्लभ होती जा रही है। कई इलाकों में जटामांसी जैसी जड़ी-बूटियां भी कम होती जा रही हैं, जिनका इस्तेमाल मानसिक तनाव, अनिद्रा और तंत्रिका तंत्र से जुड़ी बीमारियों में किया जाता था। इसके अलावा, पत्तियों और छाल से औषधि देने वाले पौधे भी जलवायु दबाव में हैं।
स्थानीय सहभागिता और सहयोग से बचाव संभव
डिस्कवर प्लांट्स नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में इस बात पर जोर दिया गया है कि संरक्षण के प्रयास तभी सफल होंगे, जब स्थानीय समुदायों को सक्रिय रूप से इसमें शामिल किया जाए। यदि ग्रामीण और आदिवासी लोग पौधों की संख्या, फूलने-फलने के समय और मौसम के बदलाव पर निगरानी रखें, तो वैज्ञानिकों के साथ मिलकर प्रभावी संरक्षण रणनीतियां बनाई जा सकती हैं। इससे पौधों के साथ-साथ पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को भी बचाया जा सकेगा।
ये भी पढ़ें: Climate Change: जलवायु परिवर्तन का असर, बढ़ते तापमान से घट रही नींद; सेहत पर बड़ा खतरा
शोधकर्ता मानते हैं कि हिमालय और इंडो-बर्मा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की रक्षा केवल स्थानीय प्रयासों से संभव नहीं है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर सहयोग, वित्तीय सहायता और संरक्षण नीतियों की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय भागीदारी से संसाधन जुटाए जा सकते हैं, जिससे जैव विविधता, सांस्कृतिक धरोहर और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
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पूर्वी हिमालय और भारत-बर्मा क्षेत्र सदियों से औषधीय पौधों की विविध प्रजातियों का घर रहे हैं। यहां मिलने वाले कई पौधे ऐसे हैं, जिनका उपयोग आयुर्वेद, लोक चिकित्सा और पारंपरिक उपचार प्रणालियों में होता रहा है। लेकिन अब यही प्राकृतिक धरोहर तेजी से सिमटती जा रही है। शोधकर्ताओं के अनुसार, बढ़ता तापमान और अनियमित बारिश औषधीय पौधों के प्राकृतिक आवास को अस्थिर कर रही है। कुछ प्रजातियां ठंडे वातावरण की तलाश में ऊंचाई की ओर खिसक रही हैं, जबकि कई पौधे ऐसे हैं जो इस बदलाव के साथ खुद को ढाल नहीं पा रहे।
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नतीजतन, उनके पूरी तरह समाप्त हो जाने का खतरा बढ़ गया है। पूर्वी हिमालय और इंडो-बर्मा क्षेत्र में जिन औषधीय पौधों के विलुप्त होने का खतरा सबसे अधिक बताया गया है, उनमें मुख्यतः जड़, कंद और रहिजोम आधारित पौधे शामिल हैं। ये पौधे ठंडे और नमी-युक्त वातावरण पर अत्यधिक निर्भर होते हैं। उदाहरण के तौर पर अतीस (एकोनाइटम प्रजाति) जिसका उपयोग बुखार, सूजन और दर्द निवारण में किया जाता था, अब बढ़ते तापमान के कारण ऊंचाई वाले सीमित इलाकों तक सिमटता जा रहा है।
इसी तरह कुटकी (पिक्रोराइजा कुरोआ) जैसी प्रजाति, जो लीवर रोग, पाचन विकार और प्रतिरक्षा बढ़ाने वाली दवाओं में प्रयुक्त होती थी, अपने प्राकृतिक आवास खोने के कारण तेजी से दुर्लभ होती जा रही है। कई इलाकों में जटामांसी जैसी जड़ी-बूटियां भी कम होती जा रही हैं, जिनका इस्तेमाल मानसिक तनाव, अनिद्रा और तंत्रिका तंत्र से जुड़ी बीमारियों में किया जाता था। इसके अलावा, पत्तियों और छाल से औषधि देने वाले पौधे भी जलवायु दबाव में हैं।
स्थानीय सहभागिता और सहयोग से बचाव संभव
डिस्कवर प्लांट्स नामक पत्रिका में प्रकाशित शोध में इस बात पर जोर दिया गया है कि संरक्षण के प्रयास तभी सफल होंगे, जब स्थानीय समुदायों को सक्रिय रूप से इसमें शामिल किया जाए। यदि ग्रामीण और आदिवासी लोग पौधों की संख्या, फूलने-फलने के समय और मौसम के बदलाव पर निगरानी रखें, तो वैज्ञानिकों के साथ मिलकर प्रभावी संरक्षण रणनीतियां बनाई जा सकती हैं। इससे पौधों के साथ-साथ पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को भी बचाया जा सकेगा।
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शोधकर्ता मानते हैं कि हिमालय और इंडो-बर्मा जैसे संवेदनशील क्षेत्रों की रक्षा केवल स्थानीय प्रयासों से संभव नहीं है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर सहयोग, वित्तीय सहायता और संरक्षण नीतियों की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय भागीदारी से संसाधन जुटाए जा सकते हैं, जिससे जैव विविधता, सांस्कृतिक धरोहर और स्थानीय समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।