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Vande Mataram: आजादी के आंदोलन में क्या है बारीसाल का महत्व? जहां वंदे मातरम बन गया विद्रोह की आवाज

न्यूज डेस्क, अमर उजाला Published by: संध्या Updated Mon, 08 Dec 2025 03:58 PM IST
सार

वंदे मातरम के 150 साल पूरे होने पर देश की संसद में इसे लेकर चर्चा हुई। पीएम मोदी ने शुरुआत करते हुए वंदे मातरम का आजादी के दौरान क्या महत्व रहा इस पर चर्चा की। 

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Vande Mataram What was the importance of Barisal in the freedom movement, which the Prime Minister mentioned
नरेंद्र मोदी - फोटो : Amar Ujala, PTI
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विस्तार
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संसद में आज वंदे मातरम के 150 साल पूरे होने के मौके पर भारत के राष्ट्रीय गीत और इससे जुड़े इतिहास पर चर्चा हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में चर्चा की शुरुआत करते हुए बलिदानी सपूतों को याद किया। उन्होंने वंदे मातरम के इतिहास और आजादी के आंदोलन में इसके योगदान को रेखांकित करते हुए कहा कि अंग्रेजों के शासनकाल में गुलामी की बेड़ियों में जकड़े देश को झकझोरने के लिए बंकिमचंद्र चटोपाध्याय ने वंदे मातरम जैसे गीत की रचना की। इस दौरान पीएम ने राष्ट्रगीत की रचना से लेकर इससे जुड़ी कई ऐतिहासिक घटनाओं को याद किया। उन्होंने देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का जिक्र किया और आरोप लगाया कि कांग्रेस ने वंदे मातरम पर समझौता कर लिया और मुस्लिम लीग के सामने घुटने टेक दिए।

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गौरतलब है कि पीएम मोदी पहले भी वंदे मातरम से जुड़ी ऐतिहासिक घटनाओं को याद करते रहे हैं। वंदे मातरम की रचना की 150वीं वर्षगांठ पर भी प्रधानमंत्री ने  वंदे मातरम से गीत से जुड़ी उन घटनाओं के बारे में बताया था, जिन्होंने राष्ट्र को जोड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनमें एक जिक्र बारीसाल का भी था, जहां एक समय वंदे मातरम का झंडा लेकर हजारों लोग जुट गए थे। इनमें हिंदुओं के साथ-साथ मुस्लिम भी बड़ी संख्या में जुटे थे।
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आइए जानते है आजादी के आंदोलन में बारीसाल का क्या महत्व रहा है। वंदे मातरम की रचना को राष्ट्रवादी चिंतन में मील का पत्थर माना जाता है, जो मातृभूमि के प्रति भक्ति और आध्यात्मिक आदर्शवाद के मेल का प्रतीक है। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी लेखनी के ज़रिए, न केवल बंगाली साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि भारत के शुरुआती राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए बुनियादी वैचारिक सिद्धांत भी रखे। वंदे मातरम में उन्होंने देश को मातृभूमि को मां के रूप में देखने का नजरिया दिया।

वंदे मातरम बना क्रांति की आवाज
1905 में बंगाल में विभाजन विरोधी और स्वदेशी आंदोलन के दौरान, वंदे मातरम गीत और नारे की अपील भी बहुत शक्तिशाली हो गई थी। स्कूल-कॉलेजों से लेकर दफ्तरों तक यह नारा एक अभियान बन चुका था। इससे परेशान ब्रिटिश साम्राज्य ने नवंबर 1905 में बंगाल के रंगपुर के एक स्कूल के 200 छात्रों में से हर एक पर 5-5 रुपये का जुर्माना लगाया गया, क्योंकि वे वंदे मातरम गाने के दोषी थे। रंगपुर में, बंटवारे का विरोध करने वाले जाने-माने नेताओं को स्पेशल कांस्टेबल के तौर पर काम करने और वंदे मातरम गाने से रोकने का निर्देश दिया गया। इसी तरह नवंबर 1906 में, धुलिया (महाराष्ट्र) में हुई एक विशाल सभा में वंदे मातरम के नारे लगाए गए। 1908 में, बेलगाम (कर्नाटक) में, जिस दिन लोकमान्य तिलक को बर्मा के मांडले भेजा जा रहा था, वंदे मातरम गाने के खिलाफ एक मौखिक आदेश के बावजूद ऐसा करने के लिए पुलिस ने कई लड़कों को पीटा और कई लोगों को गिरफ्तार किया।
 

उन्नीसवीं सदी के आखिर और बीसवीं सदी की शुरुआत में वंदे मातरम बढ़ते भारतीय राष्ट्रवाद का नारा बन गया। 1896 में कांग्रेस के अधिवेशन में रवींद्रनाथ टैगोर ने वंदे मातरम गाया था। 1905 के उथल-पुथल वाले दिनों में,बंगाल में विभाजन विरोधी और स्वदेशी आंदोलन के दौरानवंदे मातरम गीतऔर नारे की अपील भी बहुत शक्तिशाली हो गई थी। उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वाराणसी अधिवेशन में, 'वंदे मातरमगीत को पूरे भारत के अवसरों के लिए अपनाया गया।

राजनीतिक नारे के तौर पर वंदे मातरम का सबसे पहले इस्तेमाल 7 अगस्त 1905 को हुआ था, जब सभी समुदाय के हज़ारों छात्रों ने कलकता (कोलकाता) में टाउन हॉल की तरफ जुलूस निकालते हुए वंदे मातरम और दूसरे नारों से आसमान गूंजा दिया था । वहाँ एक बड़ी ऐतिहासिक सभा में, विदेशी सामानों के बहिष्कार और स्वदेशी अपनाने के प्रसिद्ध प्रस्ताव को पास किया गया, जिसने बंगाल के बंटवारे के खिलाफ आंदोलन का संकेत दिया। इसके बाद बंगाल में जो घटनाएं हुईं, उन्होंने पूरे देश में जोश भर दिया।

वंदेमातरम में बारीसाल की भूमिका
इसी तरह की एक घटना  अप्रैल 1906 में हुई, जब नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत के बारीसाल में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के दौरान, ब्रिटिश हुक्मरानों  ने वंदे मातरम के सार्वजनिक नारे लगाने पर रोक लगा दी और सम्मेलनों पर ही रोक लगा दी। आदेश की अवहेलना करते हुए, प्रतिनिधियों ने नारा लगाना जारी रखा और उन्हें पुलिस के भारी दमन का सामना करना पड़ा।

इसी कड़ी में 20 मई 1906 को, बारीसाल (जो अब बांग्लादेश में है) में एक अभूतपूर्व वंदे मातरम जुलूस निकाला गया,जिसमें दस हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। हिंदू और मुसलमान दोनों ही शहर की मुख्य सड़कों पर वंदे मातरम के झंडे लेकर मार्च कर रहे थे। गाने और नारे दोनों के तौर पर वंदे मातरम के बढ़ते प्रभाव से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इसके प्रसार को रोकने के लिए कड़े कदम उठाए। नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत की सरकार ने स्कूलों और कॉलेजों में वंदे मातरम गाने या बोलने पर रोक लगाने वाले परिपत्र जारी किए। शैक्षणिक संस्थानों को मान्यता रद्द करने की चेतावनी दी गई, और राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लेने वाले छात्रों को सरकारी नौकरी से निकालने की धमकी दी गई। हालांकि, वंदे मातरम का उद्घोष लगातार बुलंद होता चला गया।

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