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Automobile Industry: 80 प्रतिशत भारतीय गाड़ियों की लॉन्चिंग में क्यों होती है देरी? नए अध्ययन में खुलासा

ऑटो डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: अमर शर्मा Updated Sat, 13 Sep 2025 05:05 PM IST
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सार

भारत में अक्सर देखा जाता है कि ऑटोमोबाइल कंपनियां (OEM) समय पर नई गाड़ी लॉन्च नहीं कर पातीं। लेकिन असली वजहों पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। अब एक नए अध्ययन ने ये बताया है कि आखिर क्यों भारतीय कंपनियों की गाड़ियों की लॉन्चिंग में इतनी बार देरी होती है।

Why Most Vehicle Launches in India Miss Deadlines Study Explains
कार प्लांट - फोटो : एआई
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विस्तार
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भारत में अक्सर देखा जाता है कि ऑटोमोबाइल कंपनियां (OEM) समय पर नई गाड़ी लॉन्च नहीं कर पातीं। लेकिन असली वजहों पर कम ही लोग ध्यान देते हैं। भारत की ऑटो इंडस्ट्री दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई इंडस्ट्री में से एक है। इसी साल भारत ने जापान को पीछे छोड़कर दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल निर्माता देश बनने का खिताब हासिल किया।
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अब एक नए अध्ययन ने ये बताया है कि आखिर क्यों भारतीय कंपनियों की गाड़ियों की लॉन्चिंग में इतनी बार देरी होती है। वेक्टर कंसल्टिंग ग्रुप की रिपोर्ट के मुताबिक, करीब 80 प्रतिशत कंपनियों को नई गाड़ी लॉन्च करने में देरी का सामना करना पड़ता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है- डिजाइन और इंजीनियरिंग में आखिरी समय पर बदलाव।
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आखिरी समय के बदलाव से बिगड़ता प्लान
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री इन देर से किए गए बदलावों से जूझ रही है, जिससे सप्लायरों पर भी दबाव पड़ता है। अध्ययन के अनुसार, उम्मीद के मुताबिक प्रोटोटाइप और टेस्टिंग के बाद इंजीनियरिंग बदलावों में भारी गिरावट नहीं आती।

आदर्श रूप से, प्री-प्रोडक्शन में बदलाव 15 प्रतिशत से नीचे होने चाहिए, प्रोडक्शन शुरू होने और लॉन्च के समय ये 8 प्रतिशत से कम होने चाहिए और प्रोडक्ट के स्थिर होने के बाद 3 प्रतिशत से भी नीचे। लेकिन हकीकत में ऐसा शायद ही होता है। सिर्फ 6 प्रतिशत कंपनियां ही इस पैटर्न को मानती हैं, जबकि 81 प्रतिशत कंपनियां इससे काफी दूर हैं।

हर छोटा बदलाव दोबारा डिजाइन बनाने, नए टूल्स तैयार करने, बार-बार टेस्टिंग या सॉफ्टवेयर अपडेट जैसी प्रक्रियाओं को जन्म देता है। जिससे लॉन्च की तारीख टल जाती है और खर्च बढ़ जाता है।

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सप्लाई चेन पर बढ़ता दबाव
रिपोर्ट के मुताबिक, 57 प्रतिशत कंपोनेंट बनाने वाली कंपनियों ने माना कि बार-बार बदलावों की वजह से उनकी टीमों को बार-बार नए सिरे से काम करना पड़ता है। नतीजा ये हुआ कि:
  • 76% कंपनियों की प्रोजेक्ट टाइमलाइन लंबी हो गई।
  • 52% को समय पर डिलीवरी करने में दिक्कत हुई।
  • 43% को बजट से ज्यादा खर्च करना पड़ा।
  • 83% कंपनियों को नई टेक्नॉलजी पर काम रोकना पड़ा।

इन बदलावों से गाड़ियों की क्वालिटी भी प्रभावित हुई। 33 प्रतिशत कंपनियों ने बताया कि लॉन्च के बाद भी उन्हें गाड़ियों की क्वालिटी और भरोसेमंद बनाने में दिक्कत आई। वहीं 20 प्रतिशत कंपनियों ने कहा कि वारंटी कॉस्ट बढ़ गई। 58 प्रतिशत कंपनियों को सर्विस और डीलर नेटवर्क की तैयारियों में देरी का सामना करना पड़ा।

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देरी की तीन बड़ी वजहें
रिपोर्ट ने तीन बड़ी वजहें बताई हैं जिनकी वजह से इंजीनियरिंग बदलाव देर से होते हैं:
  • करीब 60% बदलाव इसलिए होते हैं क्योंकि शुरुआती चरण में मैन्युफैक्चरिंग इंजीनियरिंग इनपुट्स समय पर नहीं मिलते।
  • 47% बदलाव सप्लायर से फीडबैक देर से आने की वजह से होते हैं।
  • 13% बदलाव डिजाइन को समय पर फाइनल (फ्रीज) न कर पाने के कारण होते हैं।

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समाधान और फायदे
वेक्टर कंसल्टिंग की स्टडी ने कुछ हल भी सुझाए हैं, जिनसे इन दिक्कतों को दूर किया जा सकता है।
  • कंपनियों को माइलस्टोन-ड्रिवन मॉडल की जगह फ्लो-बेस्ड एग्जिक्यूशन मॉडल अपनाने की सलाह दी गई है।
  • शुरुआत से ही सप्लायर्स और दूसरे स्टेकहोल्डर्स को जोड़ने की बात कही गई है ताकि काम का बोझ कम हो।
  • इंजीनियरिंग बदलावों को क्रिटिकल (जरूरी) और नॉन-क्रिटिकल (गैर-जरूरी) में बांटने की सलाह दी गई है।
  • साथ ही, टियर-1 सप्लायर्स को सिर्फ ऑर्डर पूरा करने वाले नहीं, बल्कि को-डेवलपमेंट पार्टनर्स की भूमिका निभाने की जरूरत है।

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अगर इन सुझावों को लागू किया जाए तो ऑटो इंडस्ट्री को ये बड़े फायदे हो सकते हैं:
  • 20-30% तक इंजीनियरिंग बदलावों में कमी।
  • 30-50% तक लॉन्चिंग का समय कम हो सकता है।
  • 20-30% तक सप्लायर्स की रिस्पॉन्स टाइम बेहतर हो सकता है।
  • पूरे सिस्टम की 15-25% तक एफिशिएंसी बढ़ सकती है।

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