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CJI: न्याय के मंदिर में जूतेबाजी, लोकतंत्र की नींव पर हमला

Jay singh Rawat जयसिंह रावत
Updated Tue, 07 Oct 2025 12:14 PM IST
सार

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने घटना के कुछ ही घंटों बाद कार्रवाई करते हुए राकेश किशोर को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया। बीसीआई के अनुसार, यह कृत्य ‘‘अदालत की गरिमा के अनुरूप नहीं’’ है और इसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

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Lawyer tries to throw shoe at CJI in Supreme Court
आरोपी वकील और सीजेआई जस्टिस बीआर गवई। - फोटो : एएनआई/पीटीआई
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विस्तार
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सुप्रीम कोर्ट, जो  सदैव न्याय के  मंदिर के रूप में न्यायिक आस्था का प्रतीक रहा उसके कोर्ट रूम में सोमवार  को एक ऐसी अशोभनीय और दुर्भाग्यपूर्ण घटना घाट गयी जो न केवल अदालत की गरिमा को ठेस पहुंचाती है, बल्कि पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर सवाल खड़े करती है।

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एक वकील द्वारा भारत के प्रधान न्यायाधीश ( सीजेआई) भूषण रामकृष्ण गवई पर जूता फेंकने की कोशिश न केवल अभूतपूर्व घटना है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता पर सीधा हमला है।
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यह मात्र एक व्यक्तिगत उन्माद का प्रकरण नहीं, बल्कि गहन सामाजिक और वैचारिक विषमताओं का प्रतिबिंब है, जो हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हमारा संवैधानिक तंत्र अब कट्टरपंथ और धर्मान्धता की चपेट में आ रहा है?

सोमवार सुबह  प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के समक्ष सुनवाई के दौरान यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी। राकेश किशोर नाम के एक 71 वर्षीय वकील ने  अपना जूता उतारकर सीजेआई गवई की ओर फेंक  दिया।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, यह क्रोध एक धार्मिक टिप्पणी से उपजा था, जिसमें जस्टिस गवई ने एक मामले की सुनवाई के दौरान हिंदू देवता विष्णु से संबंधित किसी टिप्पणी का उल्लेख किया था, जिसे वकील ने अपमानजनक माना।

हालांकि, विवाद पर जस्टिस गवई अपना स्पष्टीकरण पहले ही दे चुके थे। जूता सीजेआई तक नहीं पहुंचा, लेकिन अदालत की गरिमा और महिमा को तो ठेस लग ही गयी। इस घटना से कोर्ट रूम में हड़कंप मच गया। सुरक्षा कर्मियों ने तुरंत वकील को हिरासत में ले लिया।

बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने घटना के कुछ ही घंटों बाद कार्रवाई करते हुए राकेश किशोर को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया। बीसीआई के अनुसार, यह कृत्य ‘‘अदालत की गरिमा के अनुरूप नहीं’’ है और इसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

सोशल मीडिया पर यह वीडियो वायरल हो गया, जहां हजारों यूजर्स ने इसे ‘‘न्याय के मंदिर का अपमान’’ करार दिया।यह भारत के न्यायिक इतिहास में पहली ऐसी घटना है, जहां किसी वकील ने शीर्ष अदालत के प्रमुख पर प्रत्यक्ष हिंसा का प्रयास किया।

न्यायिक आस्था पर हमला

सुप्रीम कोर्ट को भारतीय संविधान का संरक्षक माना जाता है। यह एक ऐसा मंदिर है जहां तर्क, कानून और निष्पक्षता का राज चलता है। यहां जूता फेंकना मात्र शारीरिक आक्रमण नहीं, बल्कि न्याय की आत्मा पर प्रहार है।

वकील, जो कानून और न्याय काम पुजारी होते हैं, का यह व्यवहार न केवल सीजेआई गवई की व्यक्तिगत गरिमा को ठेस पहुंचाता है, बल्कि पूरे न्यायिक तंत्र की विश्वसनीयता को चुनौती देता है। क्या अब हर असंतुष्ट पक्ष अदालत को हिंसा का मैदान बना देगा?

प्रश्न गंभीर है, क्योंकि अदालत में हर निर्णय से एक पक्ष जीतता है और दूसरा हारता है। यदि हार का दर्द हिंसा में तब्दील हो गया, तो लोकतंत्र की नींव कैसे मजबूत रहेगी?

यह घटना भविष्य के लिए खतरे की घंटी है। अदालत में एक पक्ष जीतता है तो दूसरा हार जाता है। कल्पना कीजिए, यदि कोई वकील या वादकारी हार के बाद ऐसा ही कर बैठे, तो अदालतें कैसे कार्य करेंगी? सुरक्षा बढ़ानी पड़ेगी, जो पहले से ही संसाधनों की कमी से जूझ रही हैं।

अधिक चिंताजनक यह है कि यह घटना एक धार्मिक संदर्भ से जुड़ी हुई है। जस्टिस गवई की टिप्पणी, जो एक कानूनी बहस का हिस्सा थी, को व्यक्तिगत अपमान में बदल दिया गया। क्या देश में कट्टरता और धर्मांधता इतनी हावी हो गई है कि सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्था भी सुरक्षित नहीं?

रिपोर्ट्स बताती हैं कि हाल के वर्षों में धार्मिक संवेदनशीलता से जुड़े मामले बढ़े हैं, और अदालतें इनका निपटारा संवेदनशीलता से कर रही हैं। लेकिन यदि वैचारिक भिन्नता का जवाब हिंसा हो, तो यह लोकतंत्र के मूल्यों, बहुलवाद और सहिष्णुता का अपूरणीय क्षय होगा।

वकीलों के प्रोटोकॉल का उल्लंघन

अदालत की गरिमा और आस्था को बनाए रखने के लिए वकीलों और वाकारियों पर सख्त प्रोटोकॉल लागू होते हैं, जो न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता और गरिमा को सुनिश्चित करते हैं। उदाहरण के लिए, जज को ‘‘माई लॉर्ड’’ या ‘‘योर ऑनर’’ जैसे सम्मानजनक संबोधन से पुकारा जाता है।

वकीलों का परिधान काला कोट, सफेद शर्ट और बैंड के रूप में निर्धारित होता है, तथा उनके हावभाव और भाषा में पूर्ण शिष्टाचार और संयम अनिवार्य होता है। ये नियम बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अधिवक्ता अधिनियम, 1961 के तहत निर्धारित हैं, जो अदालत में अनुशासन और सम्मान को सुनिश्चित करते हैं।

ऐसे प्रोटोकॉल के बावजूद, यदि कोई वकील ‘‘जूतों की भाषा’’ बोलने लगे, अर्थात हिंसक कृत्य करे तो यह मात्र अदालत की अवमानना नहीं, बल्कि पूरे न्यायिक सिस्टम का अपमान और संविधान का अपमान है।

यह संवैधानिक मूल्यों, जैसे न्याय की समानता (अनुच्छेद 14) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19)  का सीधा उल्लंघन है, जो लोकतंत्र की नींव को कमजोर करता है।

इस तरह का व्यवहार न केवल अदालत की अवमानना है, बल्कि उस सिस्टम की अवमानना है जो लाखों नागरिकों की आस्था का केंद्र है, और अंततः संविधान की भावना का अपमान है, जो शांतिपूर्ण विवाद समाधान पर टिका है।

अशोभनीय और घोर निन्दनीय

निश्चित रूप से वकील किशोर की कार्रवाई निंदनीय है, लेकिन इसके पीछे का संदर्भ समझना जरूरी है। क्या जस्टिस गवई की टिप्पणी वाकई संवेदनशील थी? या यह कानूनी बहस का सामान्य हिस्सा था? जांच से यह स्पष्ट होगा।

साथ ही, यह घटना व्यापक सामाजिक तनाव को उजागर करती है, जहां सोशल मीडिया धार्मिक भावनाओं को तुरंत भड़काता है, और वैचारिक मतभेद हिंसा में बदल जाते हैं।

हालांकि, आशा की किरण यह है कि  इस घटना की संस्थागत प्रतिक्रिया त्वरित और दृढ़ रही। बीसीआई की निलंबन कार्रवाई एक सकारात्मक संकेत है, जो दर्शाती है कि न्यायिक समुदाय खुद को साफ करने को तैयार है। इस घटना की उन लोगों ने भी निन्दा की है जो कि दिन रात ’सनातन’ का राग अलापते रहते हैं। लेकिन सवाल बाकी हैं, क्या बार काउंसिल को वकीलों के लिए नैतिक प्रशिक्षण अनिवार्य करना चाहिए?

क्या अदालतों में धार्मिक मामलों की सुनवाई के लिए विशेष दिशानिर्देश चाहिए? और सबसे बड़ा, क्या हमारा समाज अब इतना संवेदनशील हो गया है कि न्यायाधीशों को भी बोलने की आजादी पर संदेह हो?

आत्म चिन्तन का समय

यह जूता न केवल सीजेआई गवई पर, बल्कि पूरे राष्ट्र की चेतना पर फेंका गया प्रतीत होता है। यह हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र नाजुक है, इसे हिंसा से नहीं, संवाद से मजबूत किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई तूफानों का सामना किया है, और यह भी पार कर लेगा। लेकिन समाज को आत्ममंथन करना होगा। कट्टरता को रोकने के लिए शिक्षा, संवाद और कानूनी जागरूकता ही हथियार हैं।

अन्यथा, न्याय का मंदिर चुपचाप ढह सकता है, और उसके मलबे में हम सब दब जाएंगे। सबसे जरूरी है कि कट्टरवाद को राजनीति से दूर रखना होगा। दुर्भाग्य से वोटों के लिये हर तरह की कट्टरता आजमाई जाती है, जिससे वैमनस्यता का जहर फैलता है और वकील राकेश किशोर और उसकी हरकत तो मात्र एक नमूना है।

कट्टरता धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र किसी की भी हो सकती है। ये देश केवल संविधान से चलेगा।यह घटना न केवल वकीलों के लिए एक सबक है, बल्कि हर नागरिक के लिए भी है। क्योंकि अंततः, न्याय सबका है, और इसका अपमान हम सबका अपमान है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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