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शेर बहादुर देउबा: नेपाल में सुप्रीम कोर्ट ने जगाई उम्मीद
के एस तोमर, वरिष्ठ पत्रकार
Published by: केएस तोमर
Updated Thu, 15 Jul 2021 05:37 AM IST
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Sher Bahadur Deuba and KP Sharma Oli
- फोटो : सोशल मीडिया
नेपाल में चल रहे नाटकीय घटनाक्रम में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के संसद को भंग करने के असांविधानिक फैसले को दरकिनार कर लोकतंत्र के कवच का ही काम किया है। इसके बावजूद नए प्रधानमंत्री देउबा के समक्ष चुनौती है कि वह कैसे बहुमत साबित करते हैं।
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नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के संसद को भंग करने के फैसले को दरकिनार कर इस छोटे से हिमालयी देश में परोक्ष रूप से लोकतंत्र को बचाने का ही काम किया है। पिछले छह महीने से चल रहे नाटकीय घटनाक्रम में निवर्तमान प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद ओली ने सांविधानिक कायदों की धज्जियां उड़ाकर पहले तो खुद की सत्ता बचाने की कोशिश की और फिर दो बार संसद को भंग करने की सिफारिश कर दी थी।
नेपाल के प्रधान न्यायाधीश चोलेंद्र शमशेर राणा की अगुआई वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने ऐतिहासिक फैसले में संसद की बहाली के साथ ही शेर बहादुर देउबा को प्रधानमंत्री नियुक्त करने का निर्देश दिया। इसके बाद मंगलवार को राष्ट्रपति ने देउबा को शपथ भी दिलवा दी। देउबा नेपाली कांग्रेस, सीपीएन (यूएमएल) और राष्ट्रीय जनता पार्टी के धड़े से मिलकर बने गठबंधन के नेता हैं। राष्ट्रपति ने उन्हें बहुमत साबित करने के लिए तीस दिन का समय दिया है।
इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम के साथ ही नेपाल का राजनीतिक गतिरोध फिलहाल खत्म हो गया है। नेपाल के सांविधानिक विशेषज्ञ इस गतिरोध के लिए राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को जिम्मेदार ठहराते हैं, जिन्होंने संसद को भंग करने के पिछले साल 23 दिसंबर के अपने असांविधानिक फैसले के संभावित प्रभावों को नजरंदाज किया था। उनके इस फैसले को असांविधानिक करार देकर सुप्रीम कोर्ट ने 23 फरवरी, 2021 को संसद को बहाल कर दिया था। इसके बाद दस मई को एक बार फिर विद्या देवी ने यह जानते हुए भी कि ओली बहुमत खो चुके हैं, उनकी सिफारिश पर संसद को भंग कर दिया, जिससे नेपाल के लोकतंत्र समर्थक हर व्यक्ति को धक्का लगा। इस तरह एक बार फिर नेपाल में न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षक बनकर सामने आई। विशेषज्ञ मानते हैं कि कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव लोकतंत्र के हित में नहीं है।
राष्ट्रपति ने तीन विपक्षी दलों नेपाली कांग्रेस, पुष्प कमल दहल प्रचंड की अगुआई वाले माओवादी सेंटर तथा उपेंद्र यादव की अगुआई वाले जनता समाजवादी पार्टी के धड़े को मौका नहीं दिया था, जिसे सीपीआई (यूएमएल) का माधव नेपाल-झालानाथ खनल का धड़ा समर्थन दे रहा था। इन दलों ने नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा के नेतृत्व में 21 मई को 149 सांसदों के समर्थन का पत्र राष्ट्रपति को सौंपा था।
इसके उलट दस मई को महज 93 सदस्यों का समर्थन जुटाकर बहुमत खोने वाले ओली ने भी राष्ट्रपति को 153 सदस्यों के समर्थन की एक नई सूची दे दी थी। राष्ट्रपति ने दोनों पक्षों के दावों को अस्वीकार कर संसद को भंग कर नए चुनाव कराने का एलान कर दिया। मगर सुप्रीम कोर्ट ने उनके फैसले को पलट दिया। नए प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा को बहुमत साबित करने में मुश्किल नहीं आनी चाहिए, क्योंकि सदन के भीतर उनके गठबंधन की स्थिति मजबूत है। नेपाली कांग्रेस के अभी 61 सांसद हैं, सीपीएन (यूएमएल) के 49 और जनता समाजवादी पार्टी के 34 सांसद हैं। इस तरह देउबा को 144 सांसदों का समर्थन हासिल है, जो कि 271 सदस्यीय सदन में बहुमत के लिए जरूरी 136 सांसदों से अधिक है।
देउबा जनता समाजवादी पार्टी के महंत ठाकुर और राजेंद्र महतो गुट का भी समर्थन जुटा सकते हैं, जो कि सत्ता संघर्ष के दौरान ओली का समर्थन कर रहे थे। मगर मौजूदा परिदृश्य में ओली अप्रासंगिक हो गए हैं, लिहाजा इस धड़े का समर्थन जुटाना नए प्रधानमंत्री के लिए मुश्किल नहीं होना चाहिए। सीपीएन (यूएमएल) के माधव नेपाल धड़े के पास 23 सांसद हैं, जिन्होंने ओली को सत्ता से हटाने और देउबा को प्रधानमंत्री बनाने से संबंधित याचिका पर हस्ताक्षर किए थे। मगर सीपीएन (यूएमएल) के दोनों धड़ों की सुलह की कोशिश के बीच कहना मुश्किल है कि यह धड़ा देउबा के पक्ष में वोट करेगा।
कुछ पूर्व राजनयिकों की राय है कि भारत को अपने संपर्कों के जरिये जनता समाजवादी पार्टी के नेताओं को देउबा को समर्थन देने के लिए राजी करना चाहिए, क्योंकि पांचवीं बार प्रधानमंत्री बन रहे देउबा के भारत से रिश्ते बहुत अच्छे रहे हैं। जनता समाजवादी पार्टी बिहार से सटे नेपाल के तराई में रहने वाले लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, 2015 में लागू किए गए नए संविधान में जिनकी उपेक्षा की गई थी। तब भारत ने तराई के लोगों का समर्थन कर नेपाल की सीमा पर नाकेबंदी भी की थी।
नए प्रधानमंत्री देउबा के समक्ष बहुमत जुटाने के साथ ही पहली चुनौती कोविड-19 से जुड़ी है। वहां एक ओर तो संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, दूसरी ओर वैक्सीन की कमी है। उनके सामने दूसरी चुनौती भारत-नेपाल के ऐतिहासिक संबंधों से जुड़ी है, जिसमें ओली के शासन के दौरान दरार आ गई थी। ओली ने नेपाल के नक्शे में बदलाव कर उसमें भारतीय क्षेत्रों लिपुलेख, लिंपियाधुरा और कालापानी को अपने हिस्से में दिखाकर भारत को नाराज कर दिया था। यही नहीं, ओली ने भारत द्वारा बनाई गई कैलाश मानसरोवर लिंक रोड को लेकर आपत्ति जताकर भी विवाद को जन्म दिया था। देउबा के समक्ष तीसरी चुनौती यह होगी कि वह चीन को नजरंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि वह वहां भारी निवेश कर रहा है।
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने ओली के शासन में अपनी नेपाल यात्रा के दौरान 12 अक्तूबर, 2019 को 18 परियोजनाओं में 200 अरब नेपाली रुपये के निवेश से संबंधित समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और नेपालियों का जीवन स्तर ऊपर उठाने के लिए 56 अरब नेपाली रुपये की वित्तीय मदद देने का वादा किया था। देउबा के समक्ष चौथी चुनौती यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने ओली सरकार द्वारा पेश 2021-22 के बजट को अनुचित तथा प्रतिनिधित्व शासन प्रणाली के विरुद्ध बताया है, जिससे नई सरकार को नए बजट प्रस्ताव पेश करने होंगे। नेपाल में अगले चुनाव डेढ़ साल बाद प्रस्तावित हैं, यह देखना होगा कि क्या देउबा यह कार्यकाल पूरा कर पाते हैं या नहीं।