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बिहार के महाकांड: दंगा जिसमें गई मुख्यमंत्री की कुर्सी, दंगाइयों ने खेत में गाड़कर 108 लाशों पर उगा दी थी गोभी

स्पेशल डेस्क, अमर उजाला Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र Updated Thu, 30 Oct 2025 09:02 AM IST
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सार

‘बिहार के महाकांड’ सीरीज में आज हम आपको  भागलपुर दंगे की कहानी बताएंगे। भागलपुर में 1989 में दंगों की पृष्ठभूमि क्या थी? तनाव पनपने की वजह क्या थी? इन दंगों से धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर तनाव ने किस तरह विकराल रूप ले लिया? दंगों के बाद बिहार में क्या हुआ? आइये जानते हैं...

Bihar Bhagalpur Riots of 1989 Communal Clashes Hindu Muslim violence Parbatti Longain incident explained news
बिहार के महाकांड। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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देश में एक आंदोलन जोर पकड़ रहा था। जोर ऐसा की दो धर्मों में तनाव बढ़ता जा रहा था। इसी बीच एक शहर में दो खबर फैलती हैं।  ये खबरें कोरी अफवाह होती हैं, लेकिन अपना काम कर जाती हैं। काम दो धर्मों के बीच नफरत को बढ़ाने का। इन सबके बीच एक जुलूस में ऐसा कुछ होता है कि शहर में दंगे की आग भड़क जाती है। वो दंगा जिसे हम आप भागलपुर दंगा के नाम से जानते हैं। 


बिहार में चुनाव की घड़ी नजदीक आ चुकी है। 6 और 11 नवंबर को विधानसभा चुनाव होने हैं और 14 नवंबर को मतगणना का दिन होगा। इस चुनाव साल से पहले अमर उजाला बिहार और बिहार की राजनीति जुड़ी घटनाओं और चेहरों के बारे में अलग-अलग सीरीज शुरू कर रहा है। इसी से जुड़ी ‘बिहार के महाकांड’ सीरीज में आज हम आपको  भागलपुर दंगे की कहानी बताएंगे। भागलपुर में 1989 में दंगों की पृष्ठभूमि क्या थी? तनाव पनपने की वजह क्या थी? इन दंगों से धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर तनाव ने किस तरह विकराल रूप ले लिया? दंगों के बाद बिहार में क्या हुआ? आइये जानते हैं...
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कब हुआ था भागलपुर दंगा
भागलपुर में 1989 में हुए दंगों की नींव पड़ी थी अगस्त में, जब मुहर्रम और बिशेरी पूजा की तैयारियों को लेकर दोनों पक्षों के बीच तनाव देखा गया। हालांकि, दंगा हुआ दो महीने बाद अक्तूबर में भड़का, जब एक जुलूस राम मंदिर के लिए शिलाएं इकट्ठा करने जुटा था। 36 साल पहले हुआ भागलपुर का यह दंगा कितना भयावह था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आधिकारिक आंकड़ों में दंगों में मरने वालों की संख्या एक हजार बताई जाती है। 

क्या थी भागलपुर में दंगों की पृष्ठभूमि?
'स्प्लिंटर्ड जस्टिस: लिविंग द हॉरर ऑफ मास कम्युनल वॉयलेंस इन भागलपुर एंड गुजरात' की सह-लेखिका वरीशा फरासत के एक लेख के मुताबिक, 12 अगस्त से 22 अगस्त के बीच मुहर्रम और बिशेरी पूजा के दौरान हिंदुओं और मुस्लिमों में अपने-अपने धर्मों को लेकर जुनून काफी बढ़ चुका था। इसके केंद्र में राम मंदिर आंदोलन था। अक्तूबर में यह तनाव हिंसा में बदल गया। दरअसल, विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए पांच दिन के 'रामशिला' कार्यक्रम की शुरुआत की। इसके तहत वीएचपी ने पांच दिन में पांच जुलूस निकालकर राम मंदिर के लिए ईंटें (शिलाएं) इकट्ठा करने का लक्ष्य रखा था। हालांकि, इन जुलूस में हुई नारेबाजी से माहौल संवेदनशील हुआ और देखते ही देखते दंगे शुरू हो गए। 

भागलपुर में दंगों 24 अक्तूबर 1989 को हुए। हालांकि, यहां के फतेहपुर गांव में 22 अक्तूबर को ही दोनों पक्ष आमने-सामने आ चुके थे। बताया जाता है कि हिंसा फैलने के पीछे दो अफवाहें सबसे बड़ी वजह बनीं...



इन दोनों अफवाहों के फैलते ही पहले से ही तनावपूर्ण चल रहा माहौल और बिगड़ने लगा। अल्पसंख्यक आयोग की 1990 की रिपोर्ट में कहा गया कि यह दोनों ही अफवाहें निराधार थीं। लेकिन इन्होंने दंगे भड़काने में अहम भूमिका निभाई। 

दंगे की भयावहता बताती तीन कहानियां
1. 24 अक्तूबर 1989 को रामशिला इकट्ठा करने के लिए जुलूस मुस्लिम बहुल तातरपुर क्षेत्र से निकले। इस जुलूस की सुरक्षा के लिए पुलिस भी साथ थी, जिसका नेतृत्व खुद भागलपुर के एसपी केएस द्विवेदी कर रहे थे। कहते हैं कि जुलूस में शामिल लोग नारेबाजी भी कर रहे थे। इसी दौरान जुलूस पर बम फेंक दिया गया। इंडियन मुस्लिम्स: द नीड फॉर पॉजिटिव आउटलुक में वहीदुद्दीन खान लिखते हैं- "भागलपुर हिंसा में पहले बम मुस्लिमों की तरफ से ही चलाया गया। इसके बाद हिंदुओं ने मुस्लिमों की संपत्तियों को आग के हवाले कर दिया।"

इस घटना में किसी भी व्यक्ति की जान नहीं गई। कुछ पुलिसवालों को बमबारी में चोट जरूर आई, लेकिन इस घटना को ही दंगों के भड़कने की वजह माना जाता है। प्रशासन को इस घटना की खबर मिलते ही भागलपुर में कर्फ्यू लगा दिया गया। हालांकि, एक के बाद एक फैलती अफवाहों और हिंसा से जुड़ी खबरों के चलते दंगे लगातार बढ़ते चले गए।

2. 24 अक्तूबर से लेकर 27 अक्तूबर तक पूरे भागलपुर में हिंसा का दौर जारी रहा। पत्रकार सईद नकवी के 2013 के एक लेख में कहा गया है कि जब भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा भड़की तब वे भागपुर के चंदेरी में थे। उन्होंने बताया कि कैसे तब चंदेरी और राजपुर की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभा रहे मेजर जीपीएस विर्क ने लोगों को बचाने की कोशिश की और पुलिसकर्मियों को सुरक्षा के लिए तैनात किया। हालांकि, अगली सुबह जब वे लौटे तो माहौल बदल चुका था और उन्हें उस घर में कोई जिंदा नहीं मिला। पास के ही तालाब से तब 61 शव निकाले गए थे। बताया जाता है कि भीड़ ने एक ही रात में यहां 70 लोगों की जान ले ली थी। 

3. भागलपुर दंगों में एक और नाम लौगांय गांव का आता है, जो कि हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) की 1996 में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि भागलपुर ने 1924, 1936, 1946 और 1967 में भी सांप्रदायिक हिंसा देखी। लेकिन ऐसी हिंसा कभी ग्रामीण क्षेत्रों तक नहीं फैली। 1989 में हुए दंगों ने यह दायरा भी तोड़ दिया। इसमें कहा गया है कि  27 अक्तूबर को भीड़ ने लौगांय में सुबह-सुबह हमला कर दिया। इस घटना में अनुमानित 115 लोगों की मौत हुई थी। बताया गया है कि यहां मारे गए लोगों को पहले एक पोखर में फेंका गया। इसके बाद उनके शवों को निकालकर एक कुएं में फेंका गया। हालांकि, लाशों को यहां भी नहीं छोड़ा गया। इन्हें बाद में एक खेत में गाड़ा गया, जहां गोभी उगा दी गई। दिसंबर 1989 में जांच के दौरान यहां से 108 लाशें निकाली गईं।

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली मैगजीन में अशगर अली इंजीनियर ने भागलपुर हिंसा की जांच के लिए गठित कमेटी की 1995 में प्रकाशित रिपोर्ट के हवाले से लिखा, दंगे जिले के 21 संभागों में से 15 संभागों तक पहुंच गए। इसका असर 250 गांवों तक हुआ। वहीं, करीब 50 हजार से ज्यादा लोग बेघर हुए।

बताया जाता है कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इन दंगों के बीच भागलपुर एसपी केएस द्विवेदी को ट्रांसफर कर दिया। हालांकि, 26 अक्तूबर को जब दंगे अपने चरम पर थे, तब पुलिसकर्मियों और भाजपा-वीएचपी के कार्यकर्ताओं ने द्विवेदी के ट्रांसफर के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए। आखिरकार दंगा प्रभावित भागलपुर के दौरे पर आए राजीव गांधी को उनकी मांग के आगे झुकना पड़ा। दंगों का दौर अगले दो दिन और जारी रहा। इसके बाद 27 अक्तूबर को बिहार में सेना और बीएसएफ को बुला लिया गया और स्थिति को सामान्य करने की कोशिश की गई। 

दंगों के दो महीने बाद हुआ दो जांच आयोग का गठन, दोनों की रिपोर्ट अलग
भागलपुर के दंगे ऐसे समय में हुए थे, जब बिहार में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा दिल्ली में ही मौजूद रहे। वह बिहार तब पहुंचे, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें डपटते हुए वापस भेजा और हिंसा को नियंत्रित करने के लिए कहा। इन दंगों के बाद बिहार सरकार सक्रिय हुई। मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने इस मामले में 8 दिसंबर 1989 को दो जांच आयोगों का गठन किया।

  • दो सदस्यीय जांच आयोग हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस राम चंद्र प्रसाद सिन्हा और जस्टिस (रि.) एस शम्सुल हसन के नेतृत्व में गठित किया गया। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1995 में दायर की थी।
  • इसी दिन जस्टिस आरएन प्रसाद के नेतृत्व में एक सदस्यीय जांच आयोग का भी गठन किया गया। इस आयोग को तीन महीने यानी मार्च 1990 तक रिपोर्ट देनी थी। हालांकि, इस आयोग में बाद में दो और सदस्यों को जोड़ा गया।



जस्टिस प्रसाद की एक सदस्यीय समिति में बाद में जस्टिस सिन्हा और जस्टिस हसन को भी शामिल किया गया। हालांकि, जस्टिस प्रसाद ने लगातार बाकी दो साथी जस्टिस से अलग विचार पेश किए। उन्होंने भागलपुर कांड से जुड़े अफसरों को नोटिस जारी करने का भी विरोध किया। जस्टिस प्रसाद ने अपनी रिपोर्ट में तातरपुर की घटना के लिए दोनों पक्षों को बराबर का जिम्मेदार माना।

भागलपुर दंगों के बाद कभी अपने दम पर सत्ता में नहीं लौटी कांग्रेस
कांग्रेस के लिए भागलपुर दंगे चोट पहुंचाने वाले साबित हुए। बिहार में कद्दावर नेता होने के बावजूद सत्येंद्र नारायण सिन्हा को इस्तीफा देना पड़ा था। उनकी जगह जगन्नाथ मिश्र को मुख्यमंत्री बनाया गया। दरअसल, मिश्र मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय चेहरा थे और उन्होंने उर्दू को बिहार की दूसरी आधिकारिक भाषा बनाने के लिए काम किया था। हालांकि, इसके बाद भी कांग्रेस के वोट अगले चुनाव में जनता दल की तरफ से लड़ रहे लालू प्रसाद यादव की तरफ छिटक गए। सिन्हा ने अपनी आत्मकथा- 'मेरी यादें, मेरी भूलें' में लिखा था- राज्य के कांग्रेस नेताओं ने निजी फायदे के लिए सांप्रदायिक तनाव को पनपने दिया। उन्होंने घटना के लिए पूर्व मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद और पूर्व स्पीकर शिवचंद्र झा (दोनों कांग्रेस नेता) को दंगे भड़काने का आरोपी ठहराया। इतना ही नहीं, सिन्हा ने यह भी कहा कि उन्होंने घटना में शामिल कांग्रेस नेताओं की जानकारी राजीव गांधी को दी थी। 

दंगों के बाद कुल 142 एफआईआर दर्ज हुईं। हजारों लोगों पर आरोप तय हुए। लेकिन तब इस मामले में कार्यवाही आगे नहीं बढ़ पाई। बताया जाता है कि लालू प्रसाद यादव ने भी मुख्यमंत्री बनने के बाद इन दंगों के आरोपियों को सजा दिलाने के लिए कोई खास कदम नहीं उठाए। हालांकि, 2005 में भागलपुर दंगे के मामले में 10 लोगों को आजीवन कारावास की सजा हुई। वहीं 2007 में लौंगाय हिंसा के मामले में 14 लोगों को और सजा मिली। 

2005 में मुख्यमंत्री बने नीतीश, एक और जांच आयोग का हुआ गठन
2005 में नीतीश कुमार ने सत्ता में आने के बाद जस्टिस एनएन सिंह के नेतृत्व में एक और जांच आयोग का गठन हुआ। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट फरवरी 2015 में दी। बिहार विधानसभा में इस रिपोर्ट को अगस्त 2015 में पेश किया गया। इसमें दंगों को रोकने में कांग्रेस सरकार की नाकामी का जिक्र किया गया। साथ ही भागलपुर में स्थानीय पुलिस और प्रशासन को भी जानलेवा हिंसा का जिम्मेदार बताया गया।
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