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दिलीप संघवी: 2000 रुपये से शुरू किया कारोबार, आज अरबों डॉलर की फार्मा कंपनी; स्टार्टअप में थे महज दो कर्मचारी
अमर उजाला
Published by: शुभम कुमार
Updated Mon, 11 Nov 2024 07:33 AM IST
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सार
दिलीप संघवी को बिजनेस का कोई अनुभव नहीं था। बावजूद इसके अपनी मेहनत और इच्छाशक्ति के दम पर उन्होंने दो कर्मचारियों के साथ बिजनेस शुरू किया और अपने संगठन को अरबों डॉलर की कंपनी बनाकर उसे वैश्विक पहचान दिलाई...

दिलीप संघवी
- फोटो : अमर उजाला

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विस्तार
महत्वाकांक्षी इन्सानों के लिए विपरीत परिस्थितियां महज एक चुनौती नहीं होतीं, बल्कि वे उन्हें नए अवसरों के रूप में भी देखते हैं। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण हैं सन फार्मास्यूटिकल्स के संस्थापक दिलीप संघवी। उनका जन्म एक ऐसे दौर में हुआ था, जब लोगों के पास बहुत संसाधन नहीं होते थे और एक अच्छे मार्गदर्शक की भी कमी होती थी। उस समय लोगों को लगता था कि बड़ा कारोबार करना बड़े लोगों की ही बस की बात है और मध्यमवर्गीय परिवार के लोग तो ठीक-ठाक से अपना जीवन जी लें इतना ही बहुत है।
लेकिन सच यह है कि सफलता आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति, मेहनत, लगन और धैर्य से हासिल होती है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं- “लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत। लीक छाड़ि तीनों चलें, शायर, सिंह और सपूत।'' इसका अर्थ है कि लायक औलाद बाप-दादा की राह पर नहीं चलती, गाड़ी लीक पर चलती है और बेवकूफ लड़का पुराने रस्म-ओ-रिवाज पर चलता है, शायर, शेर और लायक बेटा पुराने रास्ते पर नहीं चलते, बल्कि नया रास्ता निकालते हैं यानी कि नए रास्ते बनाना बहादुरी का काम है। ये लाइनें दिलीप संघवी के ऊपर एकदम सटीक बैठती हैं।
घूम-घूमकर बेची दवा
दिलीप संघवी का जन्म एक अक्तूबर, 1955 को गुजरात के एक छोटे से शहर अमरेली में शांतिलाल संघवी और कुमुद संघवी के घर पर हुआ था। दिलीप के पिता एक फार्मास्युटिकल वितरक थे और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत करते थे। दिलीप की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई थी।
इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स में स्नातक किया। घर के आर्थिक हालात ठीक न होने की वजह से दिलीप ने अपने पिता के कामों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। वह फार्मा कंपनियों की दवाइयां घूम-घूमकर बेचने लगे। दूसरों के लिए काम करके उन्हें मजा नहीं आ रहा था। उनके मन में हमेशा ख्याल आता था कि अगर मैं दूसरों की बनाई दवाई बेच सकता हूं, तो अपनी क्यों नहीं? उन्होंने जल्दी ही दवा क्षेत्र में संभावनाओं को पहचान लिया। संघवी की गहरी व्यावसायिक प्रवृत्ति ने उन्हें एक महत्वाकांक्षी कदम उठाने और दवा निर्माण कंपनी शुरू करने के लिए प्रेरित किया।
गुजरात और वह कमरा
दिलीप काम तो कर रहे थे, लेकिन उनका सपना उन्हें खींच रहा था। काफी उधेड़बुन के बाद उन्होंने निश्चय किया कि मैं अपना बिजनेस शुरू करूंगा। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि पैसे कहां से आएंगे? खुद की कमाई इतनी नहीं थी कि नौकरी करके पैसे बचा लें।
इसलिए उन्होंने पिता से 2,000 रुपये उधार लिए और उन्होंने अपने दोस्त के साथ मिलकर गुजरात के वापी में एक कमरे से अपनी दवा कंपनी सन फार्मा की शुरुआत की। शुरुआत तो हो गई पर आगे की राह इतनी आसान नहीं थी। वो कहते हैं न जिसने गिर-गिर कर ही चलना सीखा हो उसे कौन गिरा सकता है। ठोकरें इन्सान को मजबूत बना देती हैं। ऐसा इन्सान परेशान होता है, पर कभी हार नहीं मानता। दिलीप अपनी मेहनत, धैर्य और लगन के दम पर मुश्किलों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे।
दो ही कर्मचारी
सन फार्मा के शुरुआती दौर में सिर्फ दो कर्मचारी थे। ये दोनों कर्मचारी दिलीप के मार्गदर्शन में दवाओं की मार्केटिंग और वितरण का काम करते थे। शुरुआत में कंपनी ने बहुत ज्यादा दवाइयों की विविधता बनाने पर ध्यान न देते हुए, अच्छी गुणवत्ता की दवा पर ध्यान दिया और पहले ही साल कंपनी ने सात लाख रुपये का बिजनेस किया। चार साल में ही कंपनी का व्यापार पूरे देश में फैला गया। ठीक 15 साल बाद 1997 में दिलीप ने घाटे में जा रही एक अमेरिकी कंपनी कारको फार्मा को खरीद लिया, ताकि अमेरिकी बाजार में भी पहुंच बनाई जा सके। 2007 में कंपनी ने इस्राइली कंपनी टारो फार्मा का भी अधिग्रहण कर लिया।
साल 2014 में सन फार्मा और रैनबैक्सी के बीच समझौता हुआ, जिसके बाद काफी कुछ बदल गया। सन फार्मा ने रैनबैक्सी को करीब 19 हजार करोड़ रुपये में खरीद लिया है। साल 2014 के अंत तक दिलीप संघवी की कुल संपत्ति 17.8 अरब डॉलर तक पहुंच गई। एक समय पर फोर्ब्स की लिस्ट में उन्होंने भारत के सबसे अमीर उद्योगपति के तौर पर अपना नाम दर्ज कर लिया था।
युवाओं को सीख
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लेकिन सच यह है कि सफलता आपकी दृढ़ इच्छाशक्ति, मेहनत, लगन और धैर्य से हासिल होती है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र कहते हैं- “लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत। लीक छाड़ि तीनों चलें, शायर, सिंह और सपूत।'' इसका अर्थ है कि लायक औलाद बाप-दादा की राह पर नहीं चलती, गाड़ी लीक पर चलती है और बेवकूफ लड़का पुराने रस्म-ओ-रिवाज पर चलता है, शायर, शेर और लायक बेटा पुराने रास्ते पर नहीं चलते, बल्कि नया रास्ता निकालते हैं यानी कि नए रास्ते बनाना बहादुरी का काम है। ये लाइनें दिलीप संघवी के ऊपर एकदम सटीक बैठती हैं।
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घूम-घूमकर बेची दवा
दिलीप संघवी का जन्म एक अक्तूबर, 1955 को गुजरात के एक छोटे से शहर अमरेली में शांतिलाल संघवी और कुमुद संघवी के घर पर हुआ था। दिलीप के पिता एक फार्मास्युटिकल वितरक थे और परिवार का भरण-पोषण करने के लिए कड़ी मेहनत करते थे। दिलीप की स्कूली शिक्षा कोलकाता में हुई थी।
इसके बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से कॉमर्स में स्नातक किया। घर के आर्थिक हालात ठीक न होने की वजह से दिलीप ने अपने पिता के कामों में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। वह फार्मा कंपनियों की दवाइयां घूम-घूमकर बेचने लगे। दूसरों के लिए काम करके उन्हें मजा नहीं आ रहा था। उनके मन में हमेशा ख्याल आता था कि अगर मैं दूसरों की बनाई दवाई बेच सकता हूं, तो अपनी क्यों नहीं? उन्होंने जल्दी ही दवा क्षेत्र में संभावनाओं को पहचान लिया। संघवी की गहरी व्यावसायिक प्रवृत्ति ने उन्हें एक महत्वाकांक्षी कदम उठाने और दवा निर्माण कंपनी शुरू करने के लिए प्रेरित किया।
गुजरात और वह कमरा
दिलीप काम तो कर रहे थे, लेकिन उनका सपना उन्हें खींच रहा था। काफी उधेड़बुन के बाद उन्होंने निश्चय किया कि मैं अपना बिजनेस शुरू करूंगा। लेकिन उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि पैसे कहां से आएंगे? खुद की कमाई इतनी नहीं थी कि नौकरी करके पैसे बचा लें।
इसलिए उन्होंने पिता से 2,000 रुपये उधार लिए और उन्होंने अपने दोस्त के साथ मिलकर गुजरात के वापी में एक कमरे से अपनी दवा कंपनी सन फार्मा की शुरुआत की। शुरुआत तो हो गई पर आगे की राह इतनी आसान नहीं थी। वो कहते हैं न जिसने गिर-गिर कर ही चलना सीखा हो उसे कौन गिरा सकता है। ठोकरें इन्सान को मजबूत बना देती हैं। ऐसा इन्सान परेशान होता है, पर कभी हार नहीं मानता। दिलीप अपनी मेहनत, धैर्य और लगन के दम पर मुश्किलों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे।
दो ही कर्मचारी
सन फार्मा के शुरुआती दौर में सिर्फ दो कर्मचारी थे। ये दोनों कर्मचारी दिलीप के मार्गदर्शन में दवाओं की मार्केटिंग और वितरण का काम करते थे। शुरुआत में कंपनी ने बहुत ज्यादा दवाइयों की विविधता बनाने पर ध्यान न देते हुए, अच्छी गुणवत्ता की दवा पर ध्यान दिया और पहले ही साल कंपनी ने सात लाख रुपये का बिजनेस किया। चार साल में ही कंपनी का व्यापार पूरे देश में फैला गया। ठीक 15 साल बाद 1997 में दिलीप ने घाटे में जा रही एक अमेरिकी कंपनी कारको फार्मा को खरीद लिया, ताकि अमेरिकी बाजार में भी पहुंच बनाई जा सके। 2007 में कंपनी ने इस्राइली कंपनी टारो फार्मा का भी अधिग्रहण कर लिया।
साल 2014 में सन फार्मा और रैनबैक्सी के बीच समझौता हुआ, जिसके बाद काफी कुछ बदल गया। सन फार्मा ने रैनबैक्सी को करीब 19 हजार करोड़ रुपये में खरीद लिया है। साल 2014 के अंत तक दिलीप संघवी की कुल संपत्ति 17.8 अरब डॉलर तक पहुंच गई। एक समय पर फोर्ब्स की लिस्ट में उन्होंने भारत के सबसे अमीर उद्योगपति के तौर पर अपना नाम दर्ज कर लिया था।
युवाओं को सीख
- अगर इन्सान ठान ले, तो दुनिया में
- कुछ भी असंभव नहीं।
- सफलता घराना या परिवार की हैसियत देखकर नहीं मिलती।
- दृढ़ इच्छाशक्ति, मेहनत, लगन और धैर्य के दम पर नया इतिहास रचा जा सकता है।
- खुद पर विश्वास रखकर आप किसी भी मुकाम को हासिल कर सकते हैं।
- कहीं पहुंचने के लिए कहीं से शुरुआत करना जरूरी होता है।