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जलवायु परिवर्तन के चलते सबसे ज्यादा नुकसान भारत को, हर साल होती हैं 3600 मौतें

न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Updated Wed, 05 Dec 2018 05:08 PM IST
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Due to climate change india has suffered the biggest loss in the world
प्रतीकात्मक तस्वीर - फोटो : lawlex
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जलवायु परिवर्तन आज पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर समस्या बन गया है। वैसे आमतौर पर जलवायु में बदलाव आने में काफी समय लगता है और उस बदलाव के साथ धरती पर मौजूद सभी जीव (चाहे वो इंसान ही क्यों न हों), जल्द ही सामंजस्य भी बैठा लेते हैं। लेकिन पिछले 150-200 सालों की अगर बात की जाए तो ये जलवायु परिवर्तन इतनी तेजी से हुआ है कि इंसानों से लेकर पूरा वनस्पति जगत इस बदलाव के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा है।     

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हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने को लेकर संयुक्त राष्ट्र की ओर से हर साल एक महासभा का आयोजन होता है और उसमें दुनिया के लगभग सभी देश शामिल होते हैं। इस साल यह महासभा पोलैंड के कालोवास में आयोजित की जा रही है, जो अगले हफ्ते है। इस महासभा को पर्यावरण के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि इस बैठक में चार प्रमुख चरणों पर ध्यान देने की बात कही जा रही है। 
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कहा जा रहा है कि इस महासभा में पेरिस समझौते के कार्यांवयन के ठोस नियमों पर वार्ता की जाएगी। इसके अलावा विभिन्न पक्षों के बीच पारस्परिक विश्वास, ईमानदारी और समान जीत के माहौल में अंतरराष्ट्रीय सहयोग आगे बढ़ाने को लेकर बातचीत होगी, जिससे साल 2020 तक अलग-अलग देशों द्वारा किए गए विभिन्न वायदों का अमलीजामा पहनाया जा सके। इसके लिए विकसित देशों को 2020 से पहले हर साल 1 खरब अमेरिकी डॉलर के कार्यांवयन की स्थिति पर अधिक ब्यौरा देना चाहिए और जलवायु परिवर्तन के निपटारे में विकासशील देशों की पूंजी की जो मांगें हैं, वो पूरी की जानी चाहिए। 

19वीं सदी के बाद से तापमान में भारी वृद्धि

आंकड़ें बताते हैं कि 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का तापमान 3 से 6 डिग्री तक बढ़ गया है। हर 10 साल में तापमान में कुछ न कुछ वृद्धि हो ही जाती है। ये तापमान में वृद्धि के आंकड़े हमें मामूली लग सकते हैं लेकिन अगर समय रहते इसपर ध्यान नहीं दिया गया तो यही परिवर्तन आगे चलकर महाविनाश को आकार देंगे।  

जलवायु परिवर्तन के पीछे मानवीय क्रिया-कलाप जिम्मेदार

जलवायु में बदलाव के पीछे मानवीय क्रिया-कलाप ही प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं और इससे नुकसान भी उनका ही हो रहा है, क्योंकि आज के समय में जिस तरह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई चल रही है और कभी न खत्म होने वाले कचरे जैसे कि प्लास्टिक का इस्तेमाल जिस तेजी से हो रहा है, वो दिन दूर नहीं है जब धरती से पूरी मानव जाति का ही अंत हो जाएगा। 

एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में जलवायु परिवर्तन के चलते 153 अरब कामकाजी घंटे बर्बाद हुए हैं। लांसेट की यह रिपोर्ट भारत के लिए सबसे ज्यादा चेतावनी भरी है, क्योंकि इसमें अकेले भारत की क्षति 75 अरब कार्य घंटों के बराबर है। यह जलवायु परिवर्तन के चलते पूरी दुनिया में हुई कुल क्षति का 49 फीसदी है। जलवायु परिवर्तन के चलते दुनियाभर में उत्पादकता के क्षेत्र में भी भारी कमी आई है, जिससे पूरी दुनिया को 326 अरब डॉलर का नुकसान पहुंचा है। इसमें 160 अरब डॉलर का नुकसान तो सिर्फ भारत को ही हुआ है, जबकि चीन की क्षति 21 अरब कार्य घंटों के साथ महज 1.4 फीसदी के करीब है। इससे इतना तो साफ है कि चीन की तैयारियां भारत से कहीं बेहतर हैं। 

निम्न आय वाले देशों में स्थिति सबसे भयानक 

लांसेट की रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में हुई क्षति का 99 फीसदी तो निम्न आय वाले देशों में हुआ है। इस क्षति का आकलन गर्मी बढ़ने के कारण पैदा होने वाली परिस्थितियों, तबाही की घटनाओं, इसके चलते स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों, बीमारियों आदि को ध्यान में रखते हुए किया गया है। रिपोर्ट में पिछले दो दशकों से भी कम समय में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव तेजी से सामने आए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2000 से 2017 के बीच 62 अरब कार्य घंटे के बराबर की उत्पादकता नष्ट हुई है। साल 2000 में भारत में यह अनुमान लगाया गया था कि 43 अरब कार्य घंटों की क्षति हो सकती है, लेकिन पिछले दो दशकों में यह काफी बढ़ गई है। 

जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम सबसे ज्यादा प्रभावित

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव सबसे ज्यादा मौसम पर पड़ता है। गर्म मौसम होने से वर्षा का चक्र प्रभावित होता है और इससे बाढ़ या सूखे का खतरा पैदा हो जाता है। इसके अलावा ध्रुवीय ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र के स्तर में भी वृद्धि हो जाती है। पिछले कुछ सालों में आए तूफानों और बवंडरों ने अप्रत्यक्ष रूप से इसके संकेत भी दे दिए हैं। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार इस बार तापमान पिछले सालों की तुलना में ज्यादा रहेगा। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले तीन साल सबसे गर्म वर्षों की सूची में शीर्ष पर हैं। 

एशिया में 50 डिग्री तक पहुंचा तापमान

जलवायु परिवर्तन के चलते एशिया में तापमान 50 डिग्री तक पहुंच चुका है। बार-बार आए समुद्री तूफानों से कैरेबियन, अटलांटिक और यहां तक की आयरलैंड में भी भारी नुकसान हुआ। इसके अलावा पूर्वी अफ्रीका सूखे से ग्रसित रहा। भारतीय मौसम विभाग के 'डाउन टू अर्थ' डेटा के अनुसार, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में हाल ही में आए चक्रवात की वजह भी जलवायु परिवर्तन ही है। इस दौरान बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में 13 दबाव के क्षेत्र बने, जिसने पिछले 26 सालों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया। 

शोधकर्ताओं के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव चक्रवाती गतिविधियों के बढ़ने में ही नहीं बल्कि तापमान में वृद्धि और वर्षा में कमी के रूप में भी दिख रहा है। माना जा रहा है कि इस सदी के अंत तक तमिलनाडु का तापमान 3.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा, जबकि वर्षा में औसतन 4 फीसदी की कमी आएगी। 

खराब मौसम के कारण भारत में हर साल होती हैं 3,660 मौतें 

जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले खराब मौसम के कारण भारत में हर साल 3,660 लोगों की मौतें हो जाती हैं। हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट में 1998 से लेकर 2017 तक आंकड़ा दिया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि खराब मौसम से होने वाली घटनाओं में बीते 20 सालों में दुनियाभर में 5.2 लाख लोगों की जानें गई हैं। इनमें सबसे ज्यादा मौतें म्यांमार में हुई हैं, जबकि दूसरे नंबर पर भारत है। 

आंकड़ों के मुताबिक, भारत में साल 2017 में खराब मौसम के कारण आई बाढ़, भारी बारिश और तूफान ने 2,736 लोगों की जान ले ली। यह रिपोर्ट जर्मनवॉच द्वारा जारी की गई है। बता दें कि खराब मौसम से हुई घटनाओं से धन की भी काफी हानि होती हैं। बीते दो दशकों में भारत को 67.2 बिलियन डॉलर की हानि हुई है। वहीं, वैश्विक तौर पर 3.47 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। 

तेजी से बढ़ा कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन 

विश्व मौसम संगठन के मुताबिक, वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन साल 2016 में काफी तेजी से बढ़ा है। संगठन का कहना है कि मानव गतिविधियों और मजबूत अल नीनो की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड सांद्रण का वैश्विक स्तर 2015 के 400.00 पीपीएम से बढ़कर 2016 में 403.3 पीपीएम तक पहुंच गया। बता दें कि अल-नीनो एक ऐसी मौसमी परिस्थिति है, जो प्रशांत महासागर के पूर्वी भाग यानी दक्षिणी अमरीका के तटीय भागों में महासागर के सतह पर पानी का तापमान बढ़ने की वजह से पैदा होती है। विश्व मौसम संगठन के प्रमुख पेट्टेरी टालास का कहना है कि कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में तुरंत कटौती किए बिना इस पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता है।

बेहद भयानक हैं मौसम का आंकड़ें  

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि मौजूदा दौर में कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन सबसे ज्यादा है। पिछली बार धरती पर इसी तरह का सांद्रण स्तर 30 से 50 लाख साल पहले था। उस दौरान समुद्र स्तर आज के मुकाबले 20 मीटर ऊंचा था। फिलहाल पृथ्वी का तापमान 16 डिग्री सेल्सियस के करीब है, जबकि 1951 से 1980 के बीच धरती का तापमान 14 डिग्री सेल्सियस था। वहीं, 1880 में यह तापमान 13 डिग्री था। यह तापमान ग्लेशियर्स को तेजी से पिघला रहा है, जिसका नतीजा ये हुआ है कि दुनिया के चारों महासागरों में जलस्तर बढ़ रहा है। 

इंसान खुद बढ़ा रहे तापमान 

धरती पर बढ़ रहे तापमान के पीछे कोई प्राकृतिक कारण नहीं है, बल्कि इंसान की उत्पादन और निर्माण की गतिविधियां ही असल में तापमान बढ़ा रही हैं। एक रिपोर्ट कहती है कि साल 2017 में इंसानों ने दुनियाभर में जितनी गर्मी पैदा की है, वह हिरोशिमा वाले 4 लाख परमाणु बमों के बराबर है। साल 1950 के बाद से इस गर्मी के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण ग्रीनहाउस गैसें हैं। 

क्या होता है ग्रीनहाउस प्रभाव 

ग्रीनहाउस प्रभाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी ग्रह या उपग्रह के वातावरण में मौजूद कुछ गैसें वातावरण के तापमान को अपेक्षाकृत अधिक बनाने में मदद करतीं हैं। इन ग्रीनहाउस गैसों में कार्बन डाईऑक्साइड, जल-वाष्प, मिथेन आदि शामिल हैं। यदि ग्रीनहाउस प्रभाव नहीं होता तो शायद ही पृथ्वी पर जीवन होता। 

क्या कार्बन डाइऑक्साइड घटाने से कम हो जाएगा धरती का तापमान? 

पेरिस जलवायु सम्मेलन में वैश्विक देशों ने संकल्प लिया था कि वह धरती का तापमान औद्योगिकीकरण शुरू होने के पहले से काफी कम रखेंगे। यानी वृद्धि को 2 डिग्री सेंटीग्रेड से काफी कम कर दिया जाएगा। जलवायु परिवर्तन पर अंतर्सरकारी पैनल के 116 में से 101 मॉडल मानकर चलते हैं कि हवा में से कार्बन डाइऑक्साइड निकाल लिया जाएगा, ताकि 2 डिग्री का लक्ष्य हासिल किया जा सके। लेकिन सवाल ये है कि घटाया कैसे जाए? इसके लिए साल 2100 तक वातावरण से 819 अरब टन गैस हटानी होगी, लेकिन इतनी तो मौजूदा दर पर दुनिया 20 सालों में उत्सर्जित करेगी, जबकि वर्तमान में ऐसी कोई तकनीक है ही नहीं। 
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