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Supreme Court: 'बिलों पर मुहर की ताकत राज्यपाल-राष्ट्रपति के पास...', सुप्रीम कोर्ट में बोली महाराष्ट्र सरकार

न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: हिमांशु चंदेल Updated Tue, 26 Aug 2025 04:54 PM IST
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सार

सुप्रीम कोर्ट में महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि विधानसभा से पारित बिलों को मंजूरी देने का अधिकार सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास है, अदालत इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने दलील दी कि संविधान के अनुच्छेद 361 और 200 के अनुसार यह शक्तियां अदालत के दायरे से बाहर हैं।

Maharashtra government say in supreme court approve bill lies Governor President power Court not accord assent
सुप्रीम कोर्ट। - फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
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महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी है कि विधानसभा से पारित बिलों को मंजूरी देने का अधिकार सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास है, अदालत इस प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकती। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने महाराष्ट्र की ओर से यह दलील पांच जजों की संविधान पीठ के सामने रखी, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई कर रहे हैं।
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साल्वे ने कहा कि अदालत राज्यपाल या राष्ट्रपति को बिल पर हस्ताक्षर करने का आदेश नहीं दे सकती। उन्होंने जोर दिया कि किसी कानून को मंजूरी अदालत नहीं दे सकती, यह अधिकार सिर्फ संवैधानिक पदाधिकारियों यानी राज्यपाल और राष्ट्रपति को है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अदालत केवल यह पूछ सकती है कि फैसला क्या लिया गया है, लेकिन यह नहीं पूछ सकती कि क्यों लिया गया है।
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साल्वे ने किया इस संविधान का जिक्र
साल्वे ने संविधान के अनुच्छेद 361 का जिक्र किया, जिसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने अधिकारों के इस्तेमाल के लिए अदालत के जवाबदेह नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति केंद्र सरकार की सलाह पर काम करते हैं, जबकि राज्यपाल के पास व्यापक अधिकार हैं, जिनमें बिल पर हस्ताक्षर रोकने की शक्ति भी शामिल है। अनुच्छेद 200 के तहत इस प्रक्रिया के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। कई बार बिल पर विचार 15 दिन में होता है और कभी छह महीने भी लग जाते हैं।

राज्यपाल की शक्ति को लेकर बहस
साल्वे ने कहा कि राज्यपाल की यह शक्ति संवैधानिक रूप से मान्य है, हालांकि इसे ‘वीटो’ कहना सही नहीं होगा। उन्होंने कहा कि अगर अदालत इस शक्ति को स्वीकार करती है, तो फिर यह नहीं पूछ सकती कि राज्यपाल ने मंजूरी क्यों रोकी। यहां तक कि मनी बिल पर भी राज्यपाल हस्ताक्षर रोक सकते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि बिल को वापस भेजने की प्रक्रिया असल में सलाह-मशविरा है, न कि कोई स्थायी रोक लगाने का तरीका।

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अन्य राज्यों का पक्ष और अदालत की चिंता
मध्यप्रदेश की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता एन.के. कौल ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैं। बिल को मंजूरी देना, मंजूरी रोकना या राष्ट्रपति के पास भेजना। राजस्थान की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता मनींदर सिंह ने भी दलीलें दीं। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने सवाल किया कि अगर राज्यपाल किसी बिल पर लंबे समय तक चुप रहें तो क्या अदालत बेबस रहेगी? कोर्ट ने पूछा कि अगर 2020 में पारित बिल पर 2025 तक भी कोई फैसला न हो, तो क्या अदालत कुछ नहीं कर सकती।

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राष्ट्रपति का रुख और सुनवाई जारी
मामले की पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी। उन्होंने पूछा था कि क्या अदालत राज्यपाल या राष्ट्रपति को समयसीमा में निर्णय लेने के लिए बाध्य कर सकती है। इस पर अब विस्तृत सुनवाई हो रही है और विभिन्न राज्यों ने भी अपने-अपने तर्क पेश किए हैं।

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