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Story of Surgical Strike: 10 मिनट का हमला, 82 आतंकी ढेर, सर्जिकल स्ट्राइक के नायक ने बताई वीरता की पूरी कहानी
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, लखनऊ
Published by: कीर्तिवर्धन मिश्र
Updated Mon, 26 Feb 2024 02:03 PM IST
सार
Amar Ujala Samvad: 'अमर उजाला संवाद उत्तर प्रदेश' में बतौर वक्ता लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) राजेंद्र रामराव निंभोरकर मौजूद थे। उड़ी हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक के समय वे थलसेना में कोर कमांडर थे।
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लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) आरआर निंभोरकर।
- फोटो : Amar Ujala
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विस्तार
साल 2016 में उड़ी के सैन्य शिविर पर आतंकी हमला हुआ। कुछ दिन बाद भारत ने अपने वीर जवानों की बदौलत पाकिस्तान को करारा जवाब दे दिया। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में हमारे जवान जमीन के रास्ते घुसे और कार्रवाई को अंजाम देकर बिना किसी खरोंच के लौट आए। सितंबर 2016 की यह सर्जिकल स्ट्राइक देश की सेना के साहस और शौर्य की कभी न भूलने वाली कहानी बन गए। इस सर्जिकल स्ट्राइक के नायक थे लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) राजेंद्र रामराव निंभोरकर जो 'अमर उजाला संवाद उत्तर प्रदेश' में मौजूद थे। उन्होंने 'देश के सम्मान की बात' विषय पर अपनी बात रखी। सर्जिकल स्ट्राइक की पूरी कहानी को उन्हीं के शब्दों में पढ़ें...
"जब मैं युवा अफसर था, तब से अमर उजाला से रिश्ता रहा है। मैं द्रास में था, तब वहां राशन आता था। उसी के साथ अमर उजाला की 30 प्रतियां आती थीं। हमें जिंदा रखने में अमर उजाला ने बहुत मदद की। ...उड़ी हमले की बात करूं तो 16 सितंबर को पाकिस्तान से आए आतंकियों ने उड़ी में हमला कर दिया। कई जवान शहीद हुए। हमने सोचा था कि इसका जवाब जरूर देना चाहिए। मैं कोर कमांडर था। मेरे नीचे दो लाख सैनिक थे। 270 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा मेरे जिम्मे थी। मेरे पास कमांडो दस्ते थे। मैंने उनसे कहा कि अगर मौका मिलता है तो यह मत कहना कि हम तैयार नहीं हैं।
हम स्ट्राइक के लिए तकरीबन तैयार थे। 17 तारीख को हमें कहा गया कि योजना बनाइए। मैंने सोचा कि प्लान तो दे देंगे, लेकिन सवाल था कि नतीजा क्या होगा? 2008 के मुंबई हमलों के बाद भी कहा गया था कि हम छोड़ेंगे नहीं। इस बार भी ऐसा ही हुआ, जब कहा गया कि हम जवाब जरूर देंगे। पहले ऐसा होता था तो हम ज्यादा से ज्यादा कहते थे कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना बंद कर देंगे। 21 तारीख को फोन आया, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर थे। हमें कहा गया कि आप शुरू करो। हम आश्चर्यचकित रह गए। हमने पूछा कि जो योजना बनाई है, क्या वाकई उस पर अमल करना है? उन्होंने कहा कि हां करना है। हमने पूछा कि कब? तो जवाब मिला कि जल्दी। दुश्मन को कैसे आश्चर्यचकित करना है, किस समय करना है, यह हमें देखना था।
28-29 सितंबर के लिए हमने इसकी योजना बनाई। प्रशिक्षित सैनिकों को अमावस की रात अच्छी लगती है। अमावस हमारे लिए दोस्त होती है। उस रात आधा चंद्रमा था। दूसरी बात यह थी कि कब करना है? आदमी सबसे ज्यादा गहरी नींद में रात दो बजे से तड़के चार बजे के बीच होता है। वही समय चुना गया। तीसरी अहम बात थी- हम सेना में वास्तविक तौर पर धर्मनिरपेक्षता अपनाते हैं। जिन आतंकवादियों पर हमला करने वाले थे, वे सब मुसलमान थे। 29 तारीख को उनकी पहली नमाज चार बजे के करीब थी। हमने सोचा कि जो कुछ करेंगे, उससे पहले करेंगे।
फिर सरप्राइज कैसे करें, यह देखना था। प्रधानमंत्री से लेकर हमारे तक ही सबको प्लानिंग पता था। जवानों को भी नहीं पता था कि आखिर जाना कब है। उड़ी पर बनी फिल्म में थोड़ा मसाला जोड़ा गया है क्योंकि ऐसा नहीं करते तो डॉक्यूमेंट्री बन जाती, जिसे कोई नहीं देखता। सेना में अभिनेत्रियां नहीं होतीं। हीरो एक आतंकी को ढूंढता रहता है, लेकिन हमारे पास इतना वक्त नहीं होता। तुरंत एक्शन करना होता है। भारत में मेरे ख्याल से प्रधानमंत्री से लेकर मुझ तक सिर्फ 17 लोगों को इस बारे में पता था। मेरे नंबर-टू अफसर यानी मेजर जनरल को भी पता नहीं था। वो दौड़कर आए कि टीवी पर देखा है, ऐसा हुआ था क्या। मैंने कहा कि टीवी पर दिखा रहे हैं तो हुआ ही होगा।
सबसे अहम बात यह है कि जो हथियार और उपकरण चाहिए थे, वे छह दिन में मिल गए। श्रेष्ठ राइफल, नाइट विजन कैमरे, अच्छे रेडियो सेट दिए गए। मेरा निजी तौर पर मानना है कि भारत को इतिहास में अगर कोई सबसे अच्छा रक्षा मंत्री मिला तो वे मनोहर पर्रिकर थे। विजयी भव:, हमसे बस यही कहा गया। राजनीतिक इच्छाशक्ति की सबसे ज्यादा जरूरत थी, जो उस वक्त मौजूद थी। अगर मुंबई हमले के बाद हम निर्णय लेते तो शायद नतीजा यही होता और आगे हमले नहीं होते। उड़ी के बाद हमले कम हुए।
स्ट्राइक में शामिल तीन पार्टियों के पास 35 लोग थे। सेना का उसूल है कि अगर जवान शहीद या जख्मी हो जाए तो दुश्मन के इलाके में हम उसे नहीं छोड़ते। 900 मीटर वापस लाने के लिए आदमी चाहिए। इसलिए 35 लोग रखे गए। चौकियों के बीच सुरंग होती है। अगर उस पर कदम रख दिया तो मिशन खत्म। इसलिए हमने हर सौ मीटर पार करने के लिए ढाई से तीन घंटे लगाए। नियंत्रण रेखा के बीच से बंदर आते हैं, खच्चर आते हैं, उसका ध्यान रखा।
तकरीबन तड़के तीन बजे टारगेट पास हमारे जवान पहुंच गए। आतंकियों को कैसे न्यूट्रलाइज करें, यह चुनौती थी। साइलेंसर वाले हथियारों से भी थोड़ी तो आवाज होती ही है। जवानों ने धीरे से जाकर सबके गले काट दिए। हमने 10 मिनट में पूरे हथियार बरसा दिए। थर्मल कैमरा से इसकी शूटिंग हुई। 12 मिनट में जवान वहां से निकले। तड़के पांच बजे वापस लौटे। कुछ जगहों पर मुकाबला हुआ। खुशकिस्मती से हमारा कोई जवान जख्मी नहीं हुआ। हम हेलिकॉप्टर से नहीं गए थे, पैदल गए थे। सुबह ब्रीफिंग हुई। वीडियोग्राफी से पता चला कि 28-30 मुर्दा नजर आ रहे हैं। कुल 82 आतंकियों को हमने मार गिराया था। हमारे एक भी जवान को कुछ नहीं हुआ, यह हमारे लिए सबसे बड़ी बात थी। मेरी पेशेवर जिंदगी का समापन बहुत अच्छे तरीके से हुआ।"
'कारगिल जंग में लगा कि अंत आ गया है'
कारगिल की जंग 1999 के अप्रैल-मई में शुरू हुई। तब हम कई मोर्चों पर लड़ रहे थे। मैं राजौरी में था। हमें कहा गया कि हमले करो। पांच-छह सौ मीटर दूर एक चौकी थी। उसे तबाह करना था। जब हम लौट रहे थे, तब दूसरी चौकी वालों ने हमें देखा। उन्होंने आर्टिलरी से गोले दागने शुरू कर दी। हम नाले में फंस गए थे। मैंने देखा कि किसी का खून फव्वारे की तरह निकलना शुरू हुआ है। मैंने रेडियो सेट पर पूछा कि कोई घायल हुआ है क्या। बाद में पता चला कि मेरी छाती से ही खून निकल रहा था। मेरे सारे जवान सरदार थे। उन्होंने पगड़ी से बांधने की कोशिश की, लेकिन खून बंद नहीं हुआ। मेरी सांस कम होने लगी। सोचा कि अंत आ गया है। जवानों ने मुझे कंधों पर उठाकर अपने इलाके तक पहुंचाया। डॉक्टर से मैंने पूछा कि मेरे पास समय कितना है। डॉक्टर ने कहा कि आप बच जाएंगे, लेकिन मैं जानता था कि इतना खून बह जाने के बाद बचना मुश्किल था। मेरे पास 10 हजार रुपये की एफडी थी। पत्नी को इस बारे में जानकारी नहीं थी। मैंने डॉक्टर से कहा कि पत्नी को जाकर यह बात बता देना। फिर मैं दिल्ली आया और बच गया। अगर भगवान बचाना चाहता है तो मौत मुश्किल हो जाती है।
इन्फॉर्मेशन वारफेयर में हिंदुस्तान कहां है?
लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) राजेंद्र रामराव निंभोरकर ने कहा कि सबसे पहले देखें कि हमारा दुश्मन कौन है। पाकिस्तान हमारे लिए मायने नहीं रखता। हमारी ताकत उससे कहीं ज्यादा बढ़ चुकी है। हमें पाकिस्तान से घबराने की जरूरत नहीं है। उत्तर में चीन शत्रु है। उसका ध्यान रखना है। डोकलाम में हम 34 दिन हम उसके सामने थे। उसे हमारी क्षमता के बारे में पता चला गया। चीन की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे तिब्बत के रास्ते आना पड़ता है। हमारे पास उसे रोकने की क्षमता है। बड़ी फौज को पैसा चाहिए। अगर हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो वायुसेना के पास 50 स्क्वाड्रन होगी। हमें रोकने वाला अब कोई नहीं है। चीन यह बात जानता है। अगर जंग हुई तो हमारा जितना नुकसान होगा, उतना ही नुकसान हम दुश्मन का भी कर देंगे। हमें आर्थिक रूप से सक्षम होना पड़ेगा।
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"जब मैं युवा अफसर था, तब से अमर उजाला से रिश्ता रहा है। मैं द्रास में था, तब वहां राशन आता था। उसी के साथ अमर उजाला की 30 प्रतियां आती थीं। हमें जिंदा रखने में अमर उजाला ने बहुत मदद की। ...उड़ी हमले की बात करूं तो 16 सितंबर को पाकिस्तान से आए आतंकियों ने उड़ी में हमला कर दिया। कई जवान शहीद हुए। हमने सोचा था कि इसका जवाब जरूर देना चाहिए। मैं कोर कमांडर था। मेरे नीचे दो लाख सैनिक थे। 270 किलोमीटर लंबी नियंत्रण रेखा मेरे जिम्मे थी। मेरे पास कमांडो दस्ते थे। मैंने उनसे कहा कि अगर मौका मिलता है तो यह मत कहना कि हम तैयार नहीं हैं।
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हम स्ट्राइक के लिए तकरीबन तैयार थे। 17 तारीख को हमें कहा गया कि योजना बनाइए। मैंने सोचा कि प्लान तो दे देंगे, लेकिन सवाल था कि नतीजा क्या होगा? 2008 के मुंबई हमलों के बाद भी कहा गया था कि हम छोड़ेंगे नहीं। इस बार भी ऐसा ही हुआ, जब कहा गया कि हम जवाब जरूर देंगे। पहले ऐसा होता था तो हम ज्यादा से ज्यादा कहते थे कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना बंद कर देंगे। 21 तारीख को फोन आया, रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर थे। हमें कहा गया कि आप शुरू करो। हम आश्चर्यचकित रह गए। हमने पूछा कि जो योजना बनाई है, क्या वाकई उस पर अमल करना है? उन्होंने कहा कि हां करना है। हमने पूछा कि कब? तो जवाब मिला कि जल्दी। दुश्मन को कैसे आश्चर्यचकित करना है, किस समय करना है, यह हमें देखना था।
28-29 सितंबर के लिए हमने इसकी योजना बनाई। प्रशिक्षित सैनिकों को अमावस की रात अच्छी लगती है। अमावस हमारे लिए दोस्त होती है। उस रात आधा चंद्रमा था। दूसरी बात यह थी कि कब करना है? आदमी सबसे ज्यादा गहरी नींद में रात दो बजे से तड़के चार बजे के बीच होता है। वही समय चुना गया। तीसरी अहम बात थी- हम सेना में वास्तविक तौर पर धर्मनिरपेक्षता अपनाते हैं। जिन आतंकवादियों पर हमला करने वाले थे, वे सब मुसलमान थे। 29 तारीख को उनकी पहली नमाज चार बजे के करीब थी। हमने सोचा कि जो कुछ करेंगे, उससे पहले करेंगे।
फिर सरप्राइज कैसे करें, यह देखना था। प्रधानमंत्री से लेकर हमारे तक ही सबको प्लानिंग पता था। जवानों को भी नहीं पता था कि आखिर जाना कब है। उड़ी पर बनी फिल्म में थोड़ा मसाला जोड़ा गया है क्योंकि ऐसा नहीं करते तो डॉक्यूमेंट्री बन जाती, जिसे कोई नहीं देखता। सेना में अभिनेत्रियां नहीं होतीं। हीरो एक आतंकी को ढूंढता रहता है, लेकिन हमारे पास इतना वक्त नहीं होता। तुरंत एक्शन करना होता है। भारत में मेरे ख्याल से प्रधानमंत्री से लेकर मुझ तक सिर्फ 17 लोगों को इस बारे में पता था। मेरे नंबर-टू अफसर यानी मेजर जनरल को भी पता नहीं था। वो दौड़कर आए कि टीवी पर देखा है, ऐसा हुआ था क्या। मैंने कहा कि टीवी पर दिखा रहे हैं तो हुआ ही होगा।
सबसे अहम बात यह है कि जो हथियार और उपकरण चाहिए थे, वे छह दिन में मिल गए। श्रेष्ठ राइफल, नाइट विजन कैमरे, अच्छे रेडियो सेट दिए गए। मेरा निजी तौर पर मानना है कि भारत को इतिहास में अगर कोई सबसे अच्छा रक्षा मंत्री मिला तो वे मनोहर पर्रिकर थे। विजयी भव:, हमसे बस यही कहा गया। राजनीतिक इच्छाशक्ति की सबसे ज्यादा जरूरत थी, जो उस वक्त मौजूद थी। अगर मुंबई हमले के बाद हम निर्णय लेते तो शायद नतीजा यही होता और आगे हमले नहीं होते। उड़ी के बाद हमले कम हुए।
स्ट्राइक में शामिल तीन पार्टियों के पास 35 लोग थे। सेना का उसूल है कि अगर जवान शहीद या जख्मी हो जाए तो दुश्मन के इलाके में हम उसे नहीं छोड़ते। 900 मीटर वापस लाने के लिए आदमी चाहिए। इसलिए 35 लोग रखे गए। चौकियों के बीच सुरंग होती है। अगर उस पर कदम रख दिया तो मिशन खत्म। इसलिए हमने हर सौ मीटर पार करने के लिए ढाई से तीन घंटे लगाए। नियंत्रण रेखा के बीच से बंदर आते हैं, खच्चर आते हैं, उसका ध्यान रखा।
तकरीबन तड़के तीन बजे टारगेट पास हमारे जवान पहुंच गए। आतंकियों को कैसे न्यूट्रलाइज करें, यह चुनौती थी। साइलेंसर वाले हथियारों से भी थोड़ी तो आवाज होती ही है। जवानों ने धीरे से जाकर सबके गले काट दिए। हमने 10 मिनट में पूरे हथियार बरसा दिए। थर्मल कैमरा से इसकी शूटिंग हुई। 12 मिनट में जवान वहां से निकले। तड़के पांच बजे वापस लौटे। कुछ जगहों पर मुकाबला हुआ। खुशकिस्मती से हमारा कोई जवान जख्मी नहीं हुआ। हम हेलिकॉप्टर से नहीं गए थे, पैदल गए थे। सुबह ब्रीफिंग हुई। वीडियोग्राफी से पता चला कि 28-30 मुर्दा नजर आ रहे हैं। कुल 82 आतंकियों को हमने मार गिराया था। हमारे एक भी जवान को कुछ नहीं हुआ, यह हमारे लिए सबसे बड़ी बात थी। मेरी पेशेवर जिंदगी का समापन बहुत अच्छे तरीके से हुआ।"
'कारगिल जंग में लगा कि अंत आ गया है'
कारगिल की जंग 1999 के अप्रैल-मई में शुरू हुई। तब हम कई मोर्चों पर लड़ रहे थे। मैं राजौरी में था। हमें कहा गया कि हमले करो। पांच-छह सौ मीटर दूर एक चौकी थी। उसे तबाह करना था। जब हम लौट रहे थे, तब दूसरी चौकी वालों ने हमें देखा। उन्होंने आर्टिलरी से गोले दागने शुरू कर दी। हम नाले में फंस गए थे। मैंने देखा कि किसी का खून फव्वारे की तरह निकलना शुरू हुआ है। मैंने रेडियो सेट पर पूछा कि कोई घायल हुआ है क्या। बाद में पता चला कि मेरी छाती से ही खून निकल रहा था। मेरे सारे जवान सरदार थे। उन्होंने पगड़ी से बांधने की कोशिश की, लेकिन खून बंद नहीं हुआ। मेरी सांस कम होने लगी। सोचा कि अंत आ गया है। जवानों ने मुझे कंधों पर उठाकर अपने इलाके तक पहुंचाया। डॉक्टर से मैंने पूछा कि मेरे पास समय कितना है। डॉक्टर ने कहा कि आप बच जाएंगे, लेकिन मैं जानता था कि इतना खून बह जाने के बाद बचना मुश्किल था। मेरे पास 10 हजार रुपये की एफडी थी। पत्नी को इस बारे में जानकारी नहीं थी। मैंने डॉक्टर से कहा कि पत्नी को जाकर यह बात बता देना। फिर मैं दिल्ली आया और बच गया। अगर भगवान बचाना चाहता है तो मौत मुश्किल हो जाती है।
इन्फॉर्मेशन वारफेयर में हिंदुस्तान कहां है?
लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) राजेंद्र रामराव निंभोरकर ने कहा कि सबसे पहले देखें कि हमारा दुश्मन कौन है। पाकिस्तान हमारे लिए मायने नहीं रखता। हमारी ताकत उससे कहीं ज्यादा बढ़ चुकी है। हमें पाकिस्तान से घबराने की जरूरत नहीं है। उत्तर में चीन शत्रु है। उसका ध्यान रखना है। डोकलाम में हम 34 दिन हम उसके सामने थे। उसे हमारी क्षमता के बारे में पता चला गया। चीन की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसे तिब्बत के रास्ते आना पड़ता है। हमारे पास उसे रोकने की क्षमता है। बड़ी फौज को पैसा चाहिए। अगर हमारी अर्थव्यवस्था बढ़ेगी तो वायुसेना के पास 50 स्क्वाड्रन होगी। हमें रोकने वाला अब कोई नहीं है। चीन यह बात जानता है। अगर जंग हुई तो हमारा जितना नुकसान होगा, उतना ही नुकसान हम दुश्मन का भी कर देंगे। हमें आर्थिक रूप से सक्षम होना पड़ेगा।