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क्या भाजपा का नया इतिहास लिखेंगे अमित शाह

शशिधर पाठक, नई दिल्ली Updated Fri, 02 Nov 2018 07:44 PM IST
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Will Amit Shah write BJP new history?
अमित शाह(फाइल फोटो)
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अस्सी के दशक में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना होने के बाद से वह पहले अध्यक्ष हैं, जो प्रधानमंत्री से सीधा तालमेल बनाकर काम करते हैं। चुनौती तय करते हैं और लक्ष्य को भेदने के लिए हर विकल्प अजमाते हैं।

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कभी यशवंत सिन्हा कहा करते थे और अब यह माना जाता है कि देश की सरकार तीन लोग मिलकर चला रहे हैं। इसमें सवा दो का हिस्सा (2.25 भाग) प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास है, आधा (0.5) भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और एक चौथाई (.25) वित्त मंत्री अरुण जेटली, लेकिन भाजपा को तो करीब-करीब अमित शाह ही चला रहे हैं।
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अमित शाह के पास जातिगत आधार पर राजनीतिक समीकरण को काटने का भी प्लान है। कैसे धर्म और सांप्रदायिकता को परोक्ष में रखकर और इसके जरिए जाति को इसकी छत के नीचे लाया जा सकता है, वह जानते हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उन्होंने एक नई सामाजिक इंजीनियरिंग खड़ी की थी, जहां जातिगत समीकरण निष्प्रभावी हो गए थे। हालांकि इससे पहले बिहार में उनकी इस तरह की कोशिश को तगड़ा झटका लगा था, लेकिन उत्तर प्रदेश में वह सफल हुए थे।

नई चुनौती

भाजपा अध्यक्ष के सामने नई चुनौती है। यह चुनौती पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव जीतने के साथ 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में फिर भाजपा को पूर्ण बहुमत दिलाने की है। इससे भी बड़ी चुनौती पहले विपक्षी एकता की संभावना को बिखेरने की है। शाह को पता है कि 2019 का रास्ता महागठबंधन की संभावना को बिखरने वाले गलियारे से होकर जाता है।

माना यह जा रहा है कि भाजपा अध्यक्ष अभी तक इसमें कामयाब रहे हैं, लेकिन आगे की चुनौती कुछ जटिल मोड़ से गुजर सकती है। फिलहाल अभी वह इस संदेश को देने में सफल हैं कि मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन का बनना सिर्फ संभावना भर है। हकीकत नहीं बन पाया है। अमित शाह भाजपा के वोट प्रतिशत को शानदार ऊंचाई पर ले गए हैं। उनके सामने इसको बनाए रखने की चुनौती है।

2013 में उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान का प्रभार संभालने के बाद उन्होंने जातिगत समीकरण को तोड़ने के लिए धर्म और जाति का अनोखा कॉकटेल तैयार किया। वोटों के ध्रुवीकरण में सफल रहे और 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री के चेहरे पर 73 तो 2017 के विधानसभा सीट में 325 सीट का प्रचंड बहुमत लाने में सफल रहे। इसे बनाए रखना भी एक कठिन चुनौती है।

वह दक्षिण के राज्य में कमल, केरल में भाजपा के पांव, पश्चिम बंगाल में सरकार, उड़ीसा में सत्ता परिवर्तन का सपना देख रहे हैं। कुल मिलाकर कोशिश मोदी सरकार के खिलाफ चल रही सरकार विरोधी लहर के नुकसान की भरपाई के लिए नये राजनीतिक प्रबंधन का है। भाजपा के लिए यह कोई आसान चुनौती नहीं है।

पार्टी और अनुशासन

अटल जी की उदारता और वाकपटुता, कार्य व्यहार के जरिए अनुशासन तथा पार्टी का चेहरा बनाने में उनका कोई सानी नहीं रहा। लाल कृष्ण आडवाणी संगठन को मुट्ठी में रखने वाला नेतृत्व देने के तौर पर जाने गए। अनुशासन का सख्ती से पालन किया। शत्रुघ्न सिन्हा को तीसरी बार राज्यसभा नहीं मिल पाई।

पार्टी के केंद्र में सरकार बनाने के बाद जनाकृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण जैसे चेहरों ने कमान संभाली। एक बार फिर लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी के अध्यक्ष बने। इसके बाद आरएसएस से करीबी रिश्ते ने राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी को भी यह अवसर दिया, लेकिन भाजपा एक वाच्या नहीं रही। यह अध्यक्ष भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की छाया में ही रहे।

इसके सामानांतर 2014 में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर कमान संभाली। चार साल का शानदार समय गुजारा है। पार्टी के भीतर और बाहर भय, अनुशासन, संगठन में लगातार तैयारी, भावी योजना पर काम, रणनीतिक दक्षता समेत अन्य को बनाए रखा है। एक दो नेताओं को छोड़ दें तो पूरी पार्टी एक अनुशासन में चल रही है।

इतना ही नहीं नये दौर में आरएसएस को भरपूर लाभ मिला है, लेकिन भाजपा अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को तरजीह दी है। इससे पार्टी, सरकार और संघ के बीच में समन्वय बनाए रखने में सफल रहे और तीनों प्लेटफार्म पर आपस में टकराव जैसी स्थिति नहीं आई।

दिया नया मुकाम

अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में अमित शाह ने भाजपा को शीर्ष पर पहुंचाया। दिल्ली, बिहार, पंजाब को छोड़कर भाजपा ने अपना परचम लहराया। गोवा और मणिपुर में पिछड़ी जरूर लेकिन सरकार बनाने में सफल रही। कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी होने के बाद भी सरकार बनाने में पिछड़ गई, लेकिन बिहार में सत्ता में साझीदार बनकर आधार बढ़ा लिया।

मिजोरम में पार्टी ने राजनीतिक कद बढ़ाया तो त्रिपुरा में सरकार बनाने में सफल रही। इस तरह से 2014 के बाद से हुए सभी राज्यों के चुनाव में उपरोक्त को छोड़कर पार्टी ने सबकुछ हासिल किया। उपचुनाव जरूर चिंता का विषय रहे, लेकिन यह अमित शाह की रणनीतिक सूझ बूझ ही है कि भाजपा सदस्यों की संख्या और धनबल के मामले में देश का शीर्ष राजनीतिक दल है। पार्टी के पास दिल्ली में अपना आलीशान राजनीतिक मुख्यालय है और भाजपा सदस्यों की संख्या दस करोड़ को पार कर चुकी है।

रणनीतिकार अमित शाह

अमित शाह की निगाह चिड़िया की एक आंख पर रहती है। वह उसके इर्द गिर्द तैयारी का जाल बुनते हैं। विरोधियों को अपने तैयारी की भनक नहीं लगने देते। मीडिया को भी उनके राज का बहुत कम अंश ही मालुम हो पाता है। वह अपने हिसाब से मीडिया, एजेंसी, चुनाव तैयारी में लगे लोग, नेता, प्रत्याशी, प्रचार अभियान के लोग सबसे रिश्ता रख लेते हैं।

राजस्थान में वसुंधरा राजे के साथ राजनीतिक तैयारी का रास्ता बनाने में सफल रहे तो शिवराज को उनकी इच्छा से समझौता कराकर राकेश सिंह को भाजपा अध्यक्ष बनवाया। उत्तर प्रदेश में छोटे-छोटे जनाधार वाले नेताओं को तोड़कर सबको हतप्रभ कर दिया। वह मतदाता सूची के हर पन्ने की जिम्मेदारी सौंपने से लेकर राज्य के प्रभारी और महासचिव के साथ मिलकर नई योजना पर काम करने बखूबी संचालन कर लेते हैं।

प्रधानमंत्री के विश्वास पात्र

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह दो जिस्म और एक जान जैसे लगते हैं। एक दूसरे के बीच में इतनी गहरी समझ और इतनी गहराई से निर्भरता का उदाहरण कम है। भाजपा अध्यक्ष प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुरूप हर रोड मैप तैयार कर लेते हैं। वह हर चुनाव में प्रधानमंत्री को पार्टी का एकमात्र चेहरा बनाए रखने में सफल हैं। कम बात करना, ज्यादा काम करना और समय पर अच्छा परिणाम देना अमित शाह की फितरत में है।

आरोप से चोली दामन का साथ

अमित शाह का कभी आरोप ने पीछा नहीं छोड़ा। हालांकि उनके ऊपर लगे कई आरोपों की पृष्ठभूमि में कहीं न कहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। वह गुजरात में गृहमंत्री थे तब पहली बार उन पर गंभीर आरोप लगे थे। इन आरोपों ने उन्हें जेल तक पहुंचाया। राज्य में प्रवेश पर पाबंदी तक लगी। गुजरात दंगे से लेकर सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ कांड और अन्य। जस्टिस लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मृत्यु में भी उनका नाम आया।

आज भी अमित शाह पर आरोप लगाने वाले दुश्मनों की कमी नहीं है। पार्टी के भीतर भी और बाहर भी। उनपर भाजपा को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी, निजी कंपनी या फिर मर्यादा को तोड़कर पार्टी चलाने का आरोप लगता रहता है।

कहने वाले यहां तक कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार न होती तो अमित शाह की जगह जेल में होती। पार्टी में उन पर तानाशाह की तरह कामकाज करने का भी आरोप लगता है, लेकिन शाह किसी की परवाह नहीं करते। एक के बाद एक लक्ष्य को पाना ही उनकी फितरत है।

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