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इरफान खान: छोटे शहर से बड़े सपनों और हॉलीवुड तक की उड़ान
बीबीसी हिंदी
Published by: अपूर्वा राय
Updated Wed, 29 Apr 2020 10:08 PM IST
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इरफान खान
- फोटो : सोशल मीडिया
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1988 में जब मीरा नायर की फिल्म सलाम बॉम्बे दुनिया भर में धूम मचा रही थी तो शायद ही किसी की नज़र उस दुबले पतले 18-20 साल के लड़के पर गई होगी जो महज़ कुछ सेकंड के लिए स्क्रीन पर आता है। सड़क किनारे बैठकर लोगों की चिट्टियाँ लिखने वाले एक लड़के का छोटा सा रोल किया था अभिनेता इरफान खान ने और बोला था चंद डायलॉग-
"बस-बस 10 लाइन हो गया, आगे लिखने का 50 पैसा लगेगा.
माँ का नाम-पता बोल"
पहली दफा लोगों ने इरफान खान को फिल्मी पर्दे पर देखा और भूल गए लेकिन ये शायद ही किसी को मालूम था कि ये अभिनेता आगे जाकर भारत ही नहीं दुनिया भर में नाम कमाएगा। 1966 में जयपुर में जन्मे इरफान खान का बचपन एक छोटे से कस्बे टोंक में गुजरा। शहर छोटा था पर सपने बड़े थे।
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इरफान खान
- फोटो : YouTube
ये स्वाभाविक था कि बचपन से ही किस्से कहानियों के शौकीन इरफान का झुकाव सिनेमा की तरफ हुआ। खासकर नसीरुद्दीन शाह की फिल्में देखकर। राज्य सभा टीवी को दिए एक इंटरव्यू में लड़कपन का एक किस्सा सुनाते हुए इरफान ने बताया था, "मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म मृग्या आई थी तो किसी ने कहा तेरा चेहरा मिथुन से मिलता है। बस अपने को लगा कि मैं भी फिल्मों में काम कर सकता हूँ। कई दिनों तक मैं मिथुन जैसा हेयरस्टाइल बनाकर घूमता रहा।" लेकिन आगे चलकर इरफान खुद एक ट्रेंडसेटर बनने वाले थे। एक ओर जहाँ उन्होंने ख़ुद को हिंदी सिनेमा के सबसे प्रतिभावान एक्टर्स की लिस्ट में स्थापित किया वहीं हॉलीवुड में लाइफ ऑफ पाई, द नेमसेक, द स्लमडॉग मिलियनेयर, द माइटी हार्ट, द अमेज़िंग स्पाइडरमैन जैसी फिल्में की।
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इरफान खान
- फोटो : पीटीआई
मतलब ऐंग ली और मीरा नायर की फिल्मों से लेकर अनीस बज़्मी और शूजीत सरकार तक। इरफान अपने आप में प्रतिभा की खान थे - खासकर शाहरुख, आमिर और सलमान- तीनों खानों से घिरे बॉलीवुड में। चाहे आँखों से अभिनय करने की उनकी अदा हो, संवाद बोलने की अपनी सहजता, रोमाटिंक रोल से लेकर बीहड़ का डाकू बनने की उनकी क्षमता- ऐसा ख़ूबसूरत तालमेल कम ही देखने को मिलता है। मसलन पान सिंह तोमर में डकैत का रोल और उसमें जिस तरह वो मासूमियत, भोलेपन, दर्द, तिरस्कार और बग़ावत का पुट एक साथ लेकर लाते हैं। जब सिस्टम से हताश और बंदूक़ उठा चुका पान सिंह बोलता है कि बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में... तो थिएटर में पड़ने वाली ताली सिर्फ़ इस संवाद पर नहीं थी, अपनी एक्टिंग से इरफ़ान हमें ये यक़ीन दिलाते हैं कि उन्हीं की बात सही है भले ही आप जानते हों कि ये सही नहीं है।
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इरफान खान
- फोटो : Social Media
2012 में आई इस फ़िल्म के लिए इरफ़ान ख़ान को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। या फिर हैदर में कश्मीर में रूहदार का वो रोल जो कहता है- झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, शिया भी मैं, सुन्नी भी मैं और पंडित भी। रूहदार का किरदार जो कहने को एक भूत था पर आपको यक़ीन दिलाता है कि वो असल में है और आपकी ही ज़मीर की आवाज है। या फिल्म मकबूल में अब्बाजी के लिए वफादारी (पंकज कपूर) और निम्मी (तब्बू) के बीच फँसा मियां मकबूल (इरफान) जो अब्बाजी का क़त्ल कर उससे तो पीछा छुड़ा लेता है पर ग्लानि उसका पीछा नहीं छोड़ती. वो सीन जहां इरफान और तब्बू को अपने साफ़ हाथों पर भी खून के धब्बे नजर आते हैं- बिना कुछ कहे ही इरफान आत्मग्लानि का वो भाव हम तक ख़ामोशी से पहुँचाते हैं।
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इरफान खान
- फोटो : अमर उजाला
जब फिल्म जज़्बा में वो ऐश्वर्या से कहते हैं कि 'मोहब्बत है इसीलिए तो जाने दिया, ज़िद्द होती तो बाहों में होती' तो आपको यकीन होता है कि इससे दिलकश आशिकी हो ही नहीं सकती। कहने का मतलब कि इरफ़ान खान की खासियत यही थी कि जिस रोल में वो पर्दे पर दिखते रहे, सिनेमा में बैठी जनता को लगता रहा कि इससे बेहतर इस किरदार को कोई कर ही नहीं सकता था। ऐसी इंडस्ट्री में जहाँ टाइपकास्ट हो जाना या कर दिया जाना एक नियम सा है, इरफ़ान उन सारे नियमों को तोड़ते रहे। जब हासिल जैसे रोल के बाद उन्हें सब नेगेटिव रोल मिलने लगे तो हिंदी मीडियम जैसे रोल से उन्होंने बार-बार दिखाया कि कॉमिक टाइमिंग में उनका जवाब नहीं। लंचबॉक्स का साजन फ़र्नेंडिस शायद उनका निभाया सबसे प्यारा किरदार होगा. एक लंच बॉक्स और उस डिब्बे में भेजी चिट्ठियाँ और दो लोगों की प्रेम कहानी जो कभी नहीं मिले।
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