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Aravalli Hills: अरावली की नई 'सुप्रीम' परिभाषा पर मचा बवाल, क्या राजस्थान की सियासत में भी आएगा नया भूचाल?

सौरभ भट्ट Published by: हिमांशु प्रियदर्शी Updated Sat, 20 Dec 2025 04:09 PM IST
सार

Aravalli Hills News: सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की नई परिभाषा स्वीकार किए जाने से राजस्थान में पर्यावरण और राजनीति की बहस तेज हो गई है। कांग्रेस के साथ अब बीजेपी के नेता भी सवाल उठा रहे हैं, जिससे आने वाले समय में बड़े सियासी बदलावों के संकेत मिल रहे हैं।
 

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Supreme Court Verdict on Aravalli Hills Reaction Statement Rajasthan Politics News in Hindi
अरावली पर्वत शृंखला पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विवाद - फोटो : अमर उजाला

राजस्थान में अरावली की कहानी क्या इस बार राजस्थान में नए सियासी समीकरण गढ़ेगी। कांग्रेस ‘सेव अरावली’ कैंपेन तो चला ही रही है, लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि बीजेपी के नेताओं ने भी अब सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान में बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने बयान दिया है कि सरकार को अरावली के मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन दायर करनी चाहिए। बड़ा सवाल यह है कि क्या बीजेपी इस मुद्दे पर अपनों से ही घिरती नजर आ रही है और यह भी कि सियासत की यह लड़ाई क्या सिर्फ पर्यावरण बचाने के लिए है?




 

पत्थर सी असंवेदनशीलता रही है सरकारों की 
हालांकि राजस्थान में खनन को लेकर राजनीति नई बात नहीं। इसे लेकर सरकारों की असंवेदनशीलता पत्थर की तरह रही है। पूर्ववर्ती सरकार में अवैध खनन का विरोध करते हुए भरतपुर के डीग में एक साधु विजय दास ने आत्मदाह कर लिया था। वे यहां बृज क्षेत्र में चल रहे अवैध खनन का विरोध कर रहे थे, लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं हुई। ये पहाड़ियां भी अरावली का ही हिस्सा थीं। यहां तक की पिछली सरकार के मंत्री प्रमोद जैन भाया पर उन्हीं की सरकार के विधायक ने खुलकर अवैध खनन के आरोप लगाए थे। इससे पहले बीजेपी के राज में कांग्रेस ऐसे ही आरोप लगाती रही है।

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अरावली की सबसे ऊंची चोटी गुरु शिखर - फोटो : अमर उजाला

18 साल बाद राजस्थान में फिर आया अरावली विवाद
करीब 18 साल बाद राजस्थान में अरावली का विवाद एक बार खड़ा होता नजर आ रहा है। हालिया सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित वैज्ञानिक परिभाषा को स्वीकार कर लिया है। इसके तहत जिस भू-भाग की ऊंचाई आसपास के सामान्य धरातल से कम से कम 100 मीटर अधिक होगी, उसे अरावली हिल माना जाएगा। वहीं 500 मीटर के दायरे में स्थित दो या अधिक ऐसी पहाड़ियों को अरावली रेंज की श्रेणी में रखा जाएगा। केंद्र का तर्क है कि इससे पूरे देश में अरावली की एक समान और स्पष्ट परिभाषा लागू हो सकेगी।
 

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पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव - फोटो : संवाद न्यूज एजेंसी

गहलोत के कैंपेन पर क्या बोले केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव?
अब इस मुद्दे को लेकर पर्यावरणविदों से लेकर विपक्ष एक बड़ी मुहिम की ओर चल पड़ा है। ‘सेव अरावली’ कैंपेन देश भर में शुरू हो चुका है। राजस्थान में इस कैंपेन की अगुवाई पूर्व सीएम अशोक गहलोत कर रहे हैं। बीजेपी इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर सियासत करने के आरोप लगा रही है। अलवर से बीजेपी के सांसद और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक कार्यक्रम में कहा कि अशोक गहलोत के कार्यकाल में वर्ष 2002 में 1968 की लैंड रिफॉर्म रिपोर्ट पेश की गई थी और अब वे इस मामले में ज्ञापन दे रहे हैं।
 
अरावली का कितना हिस्सा कानूनी संरक्षण से बाहर होगा?
बहरहाल पक्ष और विपक्ष के तर्कों के साथ यह जानना भी जरूरी है कि राजस्थान के लिए अरावली है क्या? विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली सिर्फ ऊंचाई का विषय नहीं, बल्कि एक संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र है। सरकारी और तकनीकी अध्ययनों के अनुसार राजस्थान में मौजूद अरावली की करीब 90 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर की ऊंचाई की शर्त पूरी नहीं करतीं। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य की केवल 8 से 10 प्रतिशत पहाड़ियां ही कानूनी रूप से ‘अरावली’ मानी जाएंगी, जबकि शेष लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण कानूनों से बाहर हो सकती हैं।
 

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अरावली का महत्व - फोटो : अमर उजाला

पर्यावरणविदों की चेतावनी
राजस्थान के लिए यह मुद्दा इसलिए बड़ा है क्योंकि अरावली का सबसे ज्यादा हिस्सा यहीं से होकर गुजरता है। अरावली की छोटी और मध्यम ऊंचाई की पहाड़ियां यहां वर्षा जल को रोकने, भूजल रिचार्ज, धूल भरी आंधियों को थामने और थार रेगिस्तान के फैलाव को रोकने में अहम भूमिका निभाती हैं। पर्यावरणविदों की चेतावनी है कि यदि ये पहाड़ियां संरक्षण से बाहर हुईं तो अलवर, जयपुर, दौसा, सीकर, झुंझुनूं, उदयपुर और राजसमंद जैसे जिलों में भूजल स्तर और नीचे जाएगा, सूखे की तीव्रता बढ़ेगी और खनन व अनियंत्रित निर्माण को बढ़ावा मिलेगा। पहले से ही जल-संकट से जूझ रहे राजस्थान के लिए यह स्थिति पर्यावरणीय के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य संकट को जन्म दे सकती है।
 
पर्यावरणविदों का मानना है कि यह लड़ाई केवल अदालत या सरकार तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज की साझा जिम्मेदारी है। अरावली का नुकसान स्थायी हो सकता है, क्योंकि एक बार पहाड़ कटे और जलधाराएं टूटीं तो उन्हें वापस लाने में सदियां लग जाती हैं। इसी कारण जनजागरण और सवाल उठाना आज भविष्य को सुरक्षित करने की जरूरत बन गया है।
 

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अरावली पर्वत शृंखला का महत्व - फोटो : अमर उजाला

अरावली में किले, महल, मंदिर, शहर और 10 से ज्यादा सैंक्चुअरीज भी 
अरावली पर्वतमाला राजस्थान के लगभग 15 जिलों से होकर गुजरती है, जिनमें अलवर, जयपुर, अजमेर, राजसमंद, उदयपुर, सिरोही, पाली, चित्तौड़गढ़, बांसवाड़ा, टोंक, सीकर, झुंझुनू, नागौर, भीलवाड़ा और डूंगरपुर शामिल हैं। यह पर्वतमाला राज्य के लगभग 80% क्षेत्र (करीब 550 किमी) में फैली हुई है और विश्व की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक मानी जाती है। इसमें पर्यटन की दृष्टि से किले, महल और वन अभ्यारण आते हैं। वहीं, कई विश्व प्रसिद्ध मंदिर और कई शहर भी अरावली की परिधि में बसे हुए हैं। 



यह भी पढ़ें- Barmer News: अरावली की परिभाषा में बदलाव पर प्रदेश कांग्रेस सचिव ने जताई चिंता, पर्यावरण को बताया गंभीर खतरा
 
राजस्थान में उदयपुर, राजसमंद, अलवर में अरावली क्षेत्र में सबसे ज्यादा खनन होता है। इसमें उदयपुर में 99.89 प्रतिशत तथा राजसमंद में 98.9 प्रतिशत पर माइनिंग करना प्रतिबंधित है। इसके अलावा अलवर में सरिस्का, ब्यावर में टोकटा टाइगर सैंक्चुअरी, जयपुर में जमुआरामगढ़ टाइगर सैंक्चुअरी, नाहरगढ़ सैंक्चुअरी, झुंझुनू में शाकंभरी रिजर्व, पाली जवाई बांद, प्रतापगढ़ में सीतामाता, टोंक में बीसलुपर रिजर्व, उदयपुर में फुलवारी की नाल और सज्जनगढ़, कुंभलगढ़, सलूंबर जयसमंद, सिरोही में माउंटआबू वाइल्ड लाइफ सैंक्चुअरी अरावली का हिस्सा हैं।
 

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