सनातन धर्म में प्रदोष व्रत को अति मंगलकारी और शिव कृपा प्रदान करने वाला माना गया है। इस साल वैशाख माह का पहला प्रदोष व्रत 8 मई, शनिवार को रखा जाएगा। इस बार यह व्रत शनिवार को पड़ने के कारण शनि प्रदोष कहलाएगा। इस दिन भगवान शिव के साथ शनि देव की पूजा भी की जाती है। शास्त्रों के अनुसार, शनि प्रदोष व्रत के दिन शनि देव को काला तिल, काला वस्त्र, तेल, उड़द की दाल अर्पित करना शुभ माना जाता है। प्रदोष व्रत की पूजा प्रदोष काल यानि संध्या के समय सूर्यास्त से लगभग 45 मिनट पहले आरंभ कर दी जाती है। इस दिन विधि-विधान से व्रत और पूजन करने से भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है। पुराणों के अनुसार इस व्रत को करने से लम्बी आयु का वरदान प्राप्त होता है।
पूजा-पाठ: जानिए क्या है शनि प्रदोष व्रत कथा, पूजन विधि और महत्व
शनि प्रदोष व्रत की पूजा विधि
त्रयोदशी तिथि के दिन सूरज उगने से पहले स्नान करके साफ़ वस्त्र धारण कर लें एवं व्रत का संकल्प करें। शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर अथवा घर पर ही बेलपत्र, अक्षत, दीप, धूप, गंगाजल आदि से भगवान शिव की पूजा करें। शिवजी की कृपा पाने के लिए भगवान शिव के मन्त्र ॐ नमः शिवाय का मन ही मन जप करते रहें। प्रदोष बेला में फिर से भगवान शिव का पंचामृत से अभिषेक करने के बाद गंगाजल मिले हुए शुद्ध जल से भगवान का अभिषेक करें। शिवलिंग पर शमी, बेल पत्र, कनेर, धतूरा, चावल, फूल, धूप, दीप, फल, पान, सुपारी आदि अर्पित करें। इसके बाद शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करें एवं शिव चालीसा का पाठ करें। तत्पश्चात कपूर प्रज्वलित कर भगवान की आरती कर भूल-चूक की क्षमा मागें।
शनि प्रदोष व्रत का महत्व
शास्त्रों में शिवजी को शनिदेव का आराध्य माना गया है, इसलिए शनि प्रदोष शिवजी की पूजा करने से आपकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है और शनि के अशुभ प्रभावों से भी राहत मिलती है। मान्यता यह भी है कि इस व्रत के प्रभाव से संतान संबंधी परेशानियां भी दूर होती हैं। पुराणों के अनुसार प्रदोष के समय भगवान शिव कैलाश पर्वत पर नृत्य करते हैं, इसी वजह से लोग शिव जी को प्रसन्न करने के लिए इस दिन प्रदोष व्रत रखते हैं।
शनि प्रदोष व्रत की कथा
प्राचीन समय की बात है, एक नगर सेठ धन-दौलत और वैभव से सम्पन्न था। वह अत्यन्त दयालु था उसके यहाँ से कभी भी कोई भी ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। वह सभी को जी भरकर दान-दक्षिणा देता था। लेकिन दूसरों को सुखी देखने वाले सेठ और उसकी पत्नी स्वयं काफ़ी दुखी थे क्यों कि उनके कोई संतान नहीं थी। एक दिन उन्होंने तीर्थयात्रा पर जाने का निश्चय किया और अपने काम-काज सेवकों को सोंप कर चल पड़े। अभी वे नगर के बाहर ही निकले थे कि उन्हें एक विशाल वृक्ष के नीचे समाधि लगाए एक तेजस्वी साधु दिखाई पड़े। दोनों ने सोचा कि साधु महाराज से आशीर्वाद लेकर आगे की यात्रा शुरू की जाए। पति-पत्नी दोनों समाधिलीन साधु के सामने हाथ जोड़कर बैठ गए और उनकी समाधि टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। सुबह से शाम और फिर रात हो गई, लेकिन साधु की समाधि नहीं टूटी। मगर सेठ पति-पत्नी धैर्यपूर्वक हाथ जोड़े पूर्ववत बैठे रहे। अंततः अगले दिन प्रातः काल साधु समाधि से उठे। सेठ पति-पत्नी को देख वह मन्द-मन्द मुस्कराए और आशीर्वाद स्वरूप हाथ उठाकर बोले- ‘मैं तुम्हारे अन्तर्मन की कथा भांप गया हूँ वत्स! मैं तुम्हारे धैर्य और भक्तिभाव से अत्यन्त प्रसन्न हूँ।’ साधु ने सन्तान प्राप्ति के लिए उन्हें शनि प्रदोष व्रत करने की विधि समझाई और शंकर भगवान की निम्न वन्दना बताई।हे रुद्रदेव शिव नमस्कार। शिव शंकर जगगुरु नमस्कार॥ हे नीलकंठ सुर नमस्कार। शशि मौलि चन्द्र सुख नमस्कार॥ हे उमाकान्त सुधि नमस्कार। उग्रत्व रूप मन नमस्कार ॥ईशान ईश प्रभु नमस्कार। विश्वेश्वर प्रभु शिव नमस्कार॥ तीर्थयात्रा के बाद दोनों वापस घर लौटे और नियमपूर्वक शनि प्रदोष व्रत करने लगे। व्रत के प्रभाव और शिवजी की कृपा से सेठ की पत्नी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया।

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