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Munshi Premchand Stories

मुंशी प्रेमचंद की कहानियां

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धनपत राय श्रीवास्तव, मुंशी प्रेमचंद नाम से जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार और विचारक थे। इनकी कहानियां हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं में लिखा। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।

मुंशी प्रेमचंद की कहानी : एक आंच की कसर भाग-01

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सभी 222 एपिसोड

सारे नगर में महाशय यशोदानन्द का बखान हो रहा था। नगर ही में नही, समस्त प्रान्त में उनकी कीर्ति की जाती थी, समाचार पत्रों में टिप्पणियां हो रही थी, मित्रो से प्रशंसापूर्ण पत्रों का तांता लगा हुआ था। समाज-सेवा इसको कहते है ! 

हमारा जिस्म पुराना है लेकिन इस में हमेशा नया ख़ून दौड़ता रहता है। इस नए ख़ून पर ज़िंदगी क़ायम है। दुनिया के क़दीम निज़ाम में ये नयापन उसके एक एक ज़र्रे में, एक-एक टहनी में, एक-एक क़तरे में, तार में छुपे हुए नग़मे की तरह गूँजता रहता है और ये सौ साल की बुढ़िया आज भी नई दुल्हन बनी हुई है।  जब से लाला डंगा मल ने नई शादी की है उनकी जवानी अज़ सर-ए-नौ ऊ’द कर आई है जब पहली बीवी ब-क़ैद-ए-हयात थी वो बहुत कम घर रहते थे। सुबह से दस ग्यारह बजे तक तो पूजापाट ही करते रहते थे। फिर खाना खा कर दुकान चले जाते। वहां से एक बजे रात को लौटते और थके-माँदे सो जाते। 

दोनों मित्र आश्रम की सैर करने चले। अमृतराय ने नदी के किनारे असी-संगम के निकट पचास एकड़ जमीन ले ली थी। वहाँ रहते भी थे। अपना कैंटोमेंट वाला बंगला बेच डाला था। आश्रम ही के हाते में एक छोटा-सा मकान अपने लिए बनवा लिया था। आश्रम के द्वार पर के दोनों बाजुओं पर दो बड़े-बड़े कमरे थे। एक आश्रम का दफ्तर था और दूसरा आश्रम में बनी हुई चीजों का शो-रूम। दफ्तर में एक अधेड़ महिला बैठी हुई लिख रही थी। रजिस्टर आदि कायदे से आल्मारियों में चुने रखे थे। इस समय अस्सी स्त्रियाँ थीं और बीस बालक। 

दाननाथ जब अमृतराय के बंगले के पास पहुँचे, तो सहसा उनके कदम रुक गए, हाते के अंदर जाते हुए लज्जा आई। अमृतराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही खयाल होगा कि जब चारों तरफ ठोकरें खा चुके और किसी ने साथ न दिया, तो यहाँ दौड़े हैं, वह इसी संकोच में फाटक पर खड़े थे कि अमृतराय का बूढ़ा नौकर अंदर से आता दिखाई दिया। दाननाथ के लिए अब वहाँ खड़ा रहना असंभव था। फाटक में दाखिल हुए। बूढ़ा इन्हें देखते ही झुक कर सलाम करता हुआ बोला – ‘आओ भैया, बहुत दिन माँ सुधि लिहेव। बाबू रोज तुम्हार चर्चा कर-कर पछतात रहे। तुमका देखि के फूले न समैहें। मजे में तो रह्यो – जाए के बाबू से कह देई।’

दाननाथ यहाँ से चले, तो उनके जी में ऐसा आ रहा था कि इसी वक्त घर-बार छोड़ कर कहीं निकल जाऊँ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले डूबा था। जनता की दृष्टि में कमलाप्रसाद और वह अभिन्न थे। यह असंभव था कि उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अपयश दूसरे को न मिले। जनता के सामने अब किस मुँह से खड़े होंगे क्या यह उनके सार्वजनिक जीवन का अंत था? क्या वह अपने को इस कलंक से पृथक् कर सकते थे?

बाबू दाननाथ के स्वभाव में मध्यम न था। वह जिससे मित्रता करते थे, उसके दास बन जाते थे, उसी भाँति जिसका विरोध करते थे, उसे मिट्टी में मिला देना चाहते थे। कई महीने तक वह कमलाप्रसाद के मित्र बने रहे। बस, जो कुछ थे कमलाप्रसाद थे। उन्हीं के साथ घूमना, उन्हीं के साथ उठना-बैठना। अमृतराय की सूरत से भी घृणा थी - उन्हीं की आलोचना करने में दिन गुजरता था। 

पूर्णा क्यों उदास थी, वह इसे कमलाप्रसाद से न कह सकी। उसे इस समय वसंत कुमार की याद न थी, अधर्म की शंका न थी, बल्कि कमलाप्रसाद के प्रगाढ़ आलिंगन में मग्न इस समय उसे यह शंका हो रही थी कि इस प्रणय का अंत भी क्या वैसा ही भयंकर होगा? निर्मम विधि लीला फिर उसका सुख-स्वप्न तो न भंग कर देगी। वह दृश्य उसकी आँखों में फिर गया, जब पहले-पहल उसके स्वामी ने उसे गले लगाया था। उस समय उसका हृदय कितना निशंक, कितनी उमंगों से भरा हुआ था, पर इस समय उमंगों की जगह शंकाएँ थीं, बाधाएँ थीं।

पूर्णा कितना ही चाहती थी कि कमलाप्रसाद की ओर से अपना मन हटा ले, पर यह शंका उसके हृदय में समा गई थी कि कहीं इन्होंने सचमुच आत्म-हत्या कर ली तो क्या होगा? रात को वह कमलाप्रसाद की उपेक्षा करके चली तो आई थी, पर शेष रात उसने चिंता में काटी। उसका विचलित हृदय पति-भक्ति, संयम और व्रत के विरुद्ध भाँति-भाँति की तर्कनाएँ करने लगा। क्या वह मर जाती, तो उसके पति पुनर्विवाह न करते? अभी उनकी अवस्था ही क्या थी? पच्चीस वर्ष की अवस्था में क्या विधुर जीवन का पालन करते? कदापि नहीं। अब उसे याद ही न आता था कि पंडित वसंत कुमार ने उसके साथ कभी इतना अनुरक्त प्रेम किया था। उन्हें इतना अवकाश ही कहाँ था। सारे दिन तो दफ़्तर में बैठे रहते थे, फिर उन्होंने उसे सुख ही क्या पहुँचाया? एक-एक पैसे की तंगी रहती थी, सुख क्या पहुँचाते।

पूर्णा प्रातःकाल और दिनों से आध घंटा पहले उठी। उसने दबे पाँव सुमित्रा के कमरे में क़दम रखा। वह देखना चाहती थी कि सुमित्रा सोती है या जागती। शायद वह उसकी सूरत देख कर निश्चय करना चाहती थी कि उसे रात की घटना की कुछ खबर है अथवा नहीं। सुमित्रा चारपाई पर पड़ी कुछ सोच रही थी। पूर्णा को देख कर वह मुस्करा पड़ी। मुस्कराने की क्या बात थी, यह तो वह जाने, पर पूर्णा का कलेजा सन्न-से हो गया। चेहरे का रंग उड़ गया। भगवान, कहीं इसने देख तो नहीं लिया?

दाननाथ मोटे चाहे न हो गए हों, कुछ हरे अवश्य थे। चेहरे पर कुछ सुर्खी थी। देह भी कुछ चिकनी हो गई थी। मगर यह कहने की बात थी। माताओं को तो अपने लड़के सदैव ही दुबले मालूम होते हैं, लेकिन दाननाथ भी इस विषय में कुछ वहमी जीव थे। उन्हें हमेशा किसी-न-किसी बीमारी की शिकायत बनी रहती थी। कभी खाना नहीं हजम हुआ, खट्टी डकारें आ रही हैं, कभी सिर में चक्कर आ रहा है, कभी पैर का तलवा जल रहा है। इस तरह ये शिकायतें बढ़ गई थीं। कहीं बाहर जाते, तो उन्हें कोई शिकायत न होती, क्योंकि कोई सुनने वाला न होता। पहले अकेले माँ को सुनाते थे। अब एक और सुनने वाला मिल गया था। इस दशा में यदि कोई उन्हें मोटा कहे, तो यह उसका अन्याय था। प्रेमा को भी उनकी खातिर करनी पड़ती थी। इस वक्त दाननाथ को खुश करने का उसे अच्छा अवसर मिल गया। बोली - 'उनकी आँखों में शनीचर है। दीदी बेचारी जरा मोटी थीं। रोज उन्हें ताना दिया करते, घी मत खाओ, दूध मत पीयो। परहेज करा-करा के बेचारी को मार डाला। मैं वहाँ होती तो लाला जी की खबर लेती।'

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