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Chhath Puja 2025: 36 घंटे निर्जल व्रत और दफ्तर की जिम्मेदारियां, जानें छठ पर्व कैसे मनाती हैं महिला
लाइफस्टाइल डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: शिवानी अवस्थी
Updated Tue, 28 Oct 2025 11:55 AM IST
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सार
Chhath Puja 2025: तन और मन की शुद्धि की प्रधानता बताने वाले छठ पर्व के व्रत को करना तो कठिन है, लेकिन नई पीढ़ी की कामकाजी महिलाएं भी इस परंपरा को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ आगे बढ़ा रही हैं।
Chhath Puja 2025
- फोटो : अमर उजाला
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विस्तार
केलवा के पात पर उगे लन सुरुजमल...।
छठ महापर्व शुरू होते ही गांव-शहर, सभी जगह सुप्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा का यह छठ गीत सुनाई देने लगता है। शारदा सिन्हा ने एक इंटरव्यू में बताया था कि छठ न सिर्फ जीवनदायक सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का त्योहार है, बल्कि प्रकृति, परिवार और सामाजिक एकता के प्रतीक के रूप में भी इसका अगाध महत्व है। यह पर्व सामाजिक विषमताओं को भी मिटा देता है। इसलिए अपने गांव-समाज और देश से दूर बसे लोग भी अनेक कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद यह चार दिनी पर्व अवश्य मनाते हैं। इस पर्व को महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित भी करती हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण
छठ पर्व मुख्य रूप से भारत के बिहार और झारखंड राज्यों के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी मनाया जाता है। बिहार के मुंगेर जिले की सुमन देवी बताती हैं कि 20 से भी अधिक वर्षों तक उन्होंने लगातार छठ व्रत किया। उम्र बढ़ने पर जब उन्हें थकान का अनुभव होने लगा, तब उन्होंने मुंबई में रहने वाली बहू को इसे हस्तांतरित कर दिया। उन्हें यह घटना अच्छी तरह याद है कि जब उनकी बहू प्रिया ने मुंबई के समुद्र तट पर पहली बार फल से भरे टोकरे के साथ सूर्य देव को अर्घ्य दिया था, तो लोग उसे अजीब-सी नजरों से देख रहे थे। उनकी बहू के लिए डाला पर चढ़ाए जाने वाले फल और अन्य सामग्री को इकठ्ठा करना भी एक मुश्किल भरा टास्क था।
अब तो यह पर्व इतना लोकप्रिय हो गया है कि मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों के साथ-साथ ज्यादातर शहरों में छठ के घाट बनाए और खूब सजाए जा रहे हैं। छठ गीत गाए और बजाए जा रहे हैं। व्रती की सुविधा के लिए छठ घाट तक रास्तों को स्वच्छ और सुगम बनाया जा रहा है। बाजार भी छठ पूजा में इस्तेमाल होने वाली सामग्री से भरते जा रहे हैं।
मन और तन की शुद्धता
आध्यात्मिक और पर्यावरण संरक्षण, दोनों दृष्टिकोण से छठ पर्व आत्मिक-शारीरिक और आस-पास के परिवेश की शुद्धता और स्वच्छता पर जोर देता है। इस पर्व के अनुशासन तन और मन दोनों का शुद्धिकरण कर देते हैं। छठ व्रती 36 घंटे का कठिन निर्जल उपवास रखती हैं। सूर्य देव और छठी मैया (सूर्य की किरणें) को समर्पित इस पर्व के अनुष्ठान चार दिनों तक चलते हैं।
नहाय खाय के साथ शुरू
दिल्ली से बिहार के समस्तीपुर जाकर छठ व्रत करने वाली साधना नहाय खाय के दिन नदी जाकर स्नान करती हैं, तो इंदौर में रहने वाली श्वेता घर पर ही पवित्र स्नान करती हैं। स्नान से पहले रसोई घर समेत पूरे घर की साफ-सफाई की जाती है। स्नान करने के बाद ही शुद्ध और सात्विक आहार तैयार किया जाता है। चावल, चपाती, चने की दाल के साथ-साथ लौकी की सब्जी अवश्य बनाई जाती है। नहाय खाय के दिन लौकी की सब्जी बनना अनिवार्य होने के कारण इसे कद्दू-भात (बिहार में लौकी को कद्दू कहा जाता है) भी कहते हैं।
छठ का दूसरा दिन खरना कहलाता है, जिसमें व्रती दिन भर कठोर उपवास रखती हैं। सूर्यास्त के बाद गुड़ की खीर, रोटी या पूरी और फलों का विशेष प्रसाद सूर्य को अर्पित कर खाती और परिवारजनों को खिलाती हैं। इस भोजन के बाद 36 घंटे का निर्जल उपवास शुरू होता है। तीसरा दिन संध्या अर्घ्य कहलाता है। सूर्यास्त से पहले नदी तट पर डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती पानी में खड़ी होती हैं। उनके हाथ में ठेकुआ और गन्ने जैसे पारंपरिक फल-प्रसाद से भरा बांस का सूप (टोकरी) होता है।
उषा अर्घ्य के साथ समाप्त
सूर्योदय से पहले भक्तगण उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए नदी तट पर पहुंचते हैं। इस अनुष्ठान के साथ व्रत-त्योहार का समापन हो जाता है। प्रार्थना के बाद व्रती छठ प्रसाद से अपना व्रत तोड़ती हैं। वर्किंग वुमन रश्मि मिश्र नोएडा की एक सोसाइटी में पिछले 5 साल से छठ कर रही हैं। रश्मि बताती हैं, “घर और ऑफिस की जिम्मेदारी पूरी करते हुए छठ में बिना भोजन या जल के 36 घंटे का कठोर उपवास करने पर उन्हें अत्यधिक थकान, कमजोरी और तनाव भी हो जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के लिए व्यापक तैयारी की भी जरूरत होती है। घर की अच्छी तरह सफाई, प्रसाद तैयार करना और नदी या सोसाइटी पूल के किनारे सुबह और शाम जाने के लिए ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ती है।"
महिलाओं की जिम्मेदारियां
छठ व्रती हर्षा बताती हैं कि अन्य त्योहारों में पुरुष और महिलाओं की एक समान भागीदारी होती है। छठ में महिलाओं को ही ज्यादातर अनुष्ठान निभाने पड़ते हैं। इससे वर्क लाइफ का बैलेंस बिगड़ जाता है। कई बार छठ के लिए गांव की यात्रा का तनाव मानसिक सेहत को प्रभावित कर देता है।
शहर की परेशानियां
छठ के दौरान एक ओर महिलाओं पर पारंपरिक भूमिकाएं निभाने का सामाजिक दबाव रहता है, तो वहीं महानगरों में प्रदूषित नदियां और तालाब अनुष्ठानों को जोखिम भरा बना देते हैं। लंबे समय तक गंदे पानी में खड़े रहने से त्वचा और सांस की समस्याएं सामने आती हैं। इन सब कारणों से छठ पर्व शहर में चुनौती बनता जा रहा है। वहीं गांव में जहां हर जरूरत के लिए पड़ोस का दरवाजा खटखटाया जा सकता है, शहरों में यह संभव नहीं है। ऐसे में बेशक आज शहरों में छठ पर्व के लिए सुविधाएं बढ़ गई हैं, लेकिन चुनौतियां फिर भी कम नहीं हैं।
कैसे करती हैं मैनेज?
शहरों में छठ व्रत करना भले ही चुनौतीपूर्ण हो, लेकिन आधुनिक महिलाएं इसे बड़े संतुलन और समझदारी से निभा रही हैं। वे परंपरा से जुड़ी आस्था को बनाए रखते हुए अपनी व्यावसायिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रही हैं और व्रत की हर तैयारी सोच-समझकर करती हैं। समय और श्रम बचने के लिए कुछ महिलाएं ठेकुआ जैसी मिठाइयां पहले से बनाकर रखती हैं। वे वर्क फ्रॉम होम या छुट्टी लेकर व्रत के दौरान मानसिक और शारीरिक तैयारी के लिए खुद को समय देती हैं। सिर्फ यही नहीं, आज की महिलाएं पति और बच्चों को साथ जोड़कर छठ व्रत को पारिवारिक सहभागिता में बदल रही हैं। इससे न सिर्फ काम बंटता है, बल्कि परिवार के बीच समझ और सहयोग भी बढ़ता है। नदी या तालाब तक जाना मुश्किल हो तो महिलाएं छत या सोसाइटी में ही अर्घ्य के लिए कुंड बना लेती हैं। सामुदायिक छठ समितियां भी उनका सहारा बन रही हैं। इस तरह शहरी महिलाएं परंपरा को नई सोच और प्रबंधन कौशल के साथ आगे बढ़ा रही हैं।
दृढ़ता और विश्वास
आज की महिलाएं आस्था और दृढ़विश्वास के साथ त्योहारों की हर रस्म निभाती हैं। वे शारीरिक चुनौतियों का सामना करते हुए 36 घंटे का उपवास रखती हैं और अपने जीवन तथा ऑफिस के बीच संतुलन बनाकर रखती हैं।
हमें छठ के संदेश को समझना चाहिए
लोक गायिका रंजना झा कहती हैं, अब छठ अपने देश के साथ-साथ विदेश में भी मनाया जाने लगा है। पहले इसे बिहार और उत्तर प्रदेश का ही पर्व माना जाता था। घर-परिवार और समाज के कल्याण के लिए छठ महापर्व मनाया जाता है। साथ ही छठ प्रकृति के रक्षार्थ एक महापर्व है। प्रकृति के स्वच्छ और संरक्षित होने पर ही हमारा स्वास्थ्य उत्तम होगा और हम समाज के लिए कुछ कर पाएंगे। जब हम त्योहार शुरू करते हैं, तो स्वच्छता का पूरा ख्याल रखते हैं। पर्व समाप्त होते ही हम सभी जगह कचरा फैला देते हैं। यह बात मुझे दुख पहुंचाती है। क्यों न हम सिर्फ चार दिन ही नहीं, बल्कि साल भर अपने घर के साथ-साथ सड़क, नदी को भी स्वच्छ रखें। सड़क पर कूड़ा न फेंकें। हमें यह सोचना चाहिए कि प्रकृति रहेगी, तभी हमारा जीवन बचेगा। स्वच्छता पर्व का मतलब है- अंदर और बाहर, दोनों को स्वच्छ रखना।
छठ महापर्व शुरू होते ही गांव-शहर, सभी जगह सुप्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा का यह छठ गीत सुनाई देने लगता है। शारदा सिन्हा ने एक इंटरव्यू में बताया था कि छठ न सिर्फ जीवनदायक सूर्य के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का त्योहार है, बल्कि प्रकृति, परिवार और सामाजिक एकता के प्रतीक के रूप में भी इसका अगाध महत्व है। यह पर्व सामाजिक विषमताओं को भी मिटा देता है। इसलिए अपने गांव-समाज और देश से दूर बसे लोग भी अनेक कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद यह चार दिनी पर्व अवश्य मनाते हैं। इस पर्व को महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित भी करती हैं।
पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण
छठ पर्व मुख्य रूप से भारत के बिहार और झारखंड राज्यों के साथ-साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी मनाया जाता है। बिहार के मुंगेर जिले की सुमन देवी बताती हैं कि 20 से भी अधिक वर्षों तक उन्होंने लगातार छठ व्रत किया। उम्र बढ़ने पर जब उन्हें थकान का अनुभव होने लगा, तब उन्होंने मुंबई में रहने वाली बहू को इसे हस्तांतरित कर दिया। उन्हें यह घटना अच्छी तरह याद है कि जब उनकी बहू प्रिया ने मुंबई के समुद्र तट पर पहली बार फल से भरे टोकरे के साथ सूर्य देव को अर्घ्य दिया था, तो लोग उसे अजीब-सी नजरों से देख रहे थे। उनकी बहू के लिए डाला पर चढ़ाए जाने वाले फल और अन्य सामग्री को इकठ्ठा करना भी एक मुश्किल भरा टास्क था।
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अब तो यह पर्व इतना लोकप्रिय हो गया है कि मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों के साथ-साथ ज्यादातर शहरों में छठ के घाट बनाए और खूब सजाए जा रहे हैं। छठ गीत गाए और बजाए जा रहे हैं। व्रती की सुविधा के लिए छठ घाट तक रास्तों को स्वच्छ और सुगम बनाया जा रहा है। बाजार भी छठ पूजा में इस्तेमाल होने वाली सामग्री से भरते जा रहे हैं।
मन और तन की शुद्धता
आध्यात्मिक और पर्यावरण संरक्षण, दोनों दृष्टिकोण से छठ पर्व आत्मिक-शारीरिक और आस-पास के परिवेश की शुद्धता और स्वच्छता पर जोर देता है। इस पर्व के अनुशासन तन और मन दोनों का शुद्धिकरण कर देते हैं। छठ व्रती 36 घंटे का कठिन निर्जल उपवास रखती हैं। सूर्य देव और छठी मैया (सूर्य की किरणें) को समर्पित इस पर्व के अनुष्ठान चार दिनों तक चलते हैं।
नहाय खाय के साथ शुरू
दिल्ली से बिहार के समस्तीपुर जाकर छठ व्रत करने वाली साधना नहाय खाय के दिन नदी जाकर स्नान करती हैं, तो इंदौर में रहने वाली श्वेता घर पर ही पवित्र स्नान करती हैं। स्नान से पहले रसोई घर समेत पूरे घर की साफ-सफाई की जाती है। स्नान करने के बाद ही शुद्ध और सात्विक आहार तैयार किया जाता है। चावल, चपाती, चने की दाल के साथ-साथ लौकी की सब्जी अवश्य बनाई जाती है। नहाय खाय के दिन लौकी की सब्जी बनना अनिवार्य होने के कारण इसे कद्दू-भात (बिहार में लौकी को कद्दू कहा जाता है) भी कहते हैं।
छठ का दूसरा दिन खरना कहलाता है, जिसमें व्रती दिन भर कठोर उपवास रखती हैं। सूर्यास्त के बाद गुड़ की खीर, रोटी या पूरी और फलों का विशेष प्रसाद सूर्य को अर्पित कर खाती और परिवारजनों को खिलाती हैं। इस भोजन के बाद 36 घंटे का निर्जल उपवास शुरू होता है। तीसरा दिन संध्या अर्घ्य कहलाता है। सूर्यास्त से पहले नदी तट पर डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। व्रती पानी में खड़ी होती हैं। उनके हाथ में ठेकुआ और गन्ने जैसे पारंपरिक फल-प्रसाद से भरा बांस का सूप (टोकरी) होता है।
उषा अर्घ्य के साथ समाप्त
सूर्योदय से पहले भक्तगण उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए नदी तट पर पहुंचते हैं। इस अनुष्ठान के साथ व्रत-त्योहार का समापन हो जाता है। प्रार्थना के बाद व्रती छठ प्रसाद से अपना व्रत तोड़ती हैं। वर्किंग वुमन रश्मि मिश्र नोएडा की एक सोसाइटी में पिछले 5 साल से छठ कर रही हैं। रश्मि बताती हैं, “घर और ऑफिस की जिम्मेदारी पूरी करते हुए छठ में बिना भोजन या जल के 36 घंटे का कठोर उपवास करने पर उन्हें अत्यधिक थकान, कमजोरी और तनाव भी हो जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस त्योहार के लिए व्यापक तैयारी की भी जरूरत होती है। घर की अच्छी तरह सफाई, प्रसाद तैयार करना और नदी या सोसाइटी पूल के किनारे सुबह और शाम जाने के लिए ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ती है।"
महिलाओं की जिम्मेदारियां
छठ व्रती हर्षा बताती हैं कि अन्य त्योहारों में पुरुष और महिलाओं की एक समान भागीदारी होती है। छठ में महिलाओं को ही ज्यादातर अनुष्ठान निभाने पड़ते हैं। इससे वर्क लाइफ का बैलेंस बिगड़ जाता है। कई बार छठ के लिए गांव की यात्रा का तनाव मानसिक सेहत को प्रभावित कर देता है।
शहर की परेशानियां
छठ के दौरान एक ओर महिलाओं पर पारंपरिक भूमिकाएं निभाने का सामाजिक दबाव रहता है, तो वहीं महानगरों में प्रदूषित नदियां और तालाब अनुष्ठानों को जोखिम भरा बना देते हैं। लंबे समय तक गंदे पानी में खड़े रहने से त्वचा और सांस की समस्याएं सामने आती हैं। इन सब कारणों से छठ पर्व शहर में चुनौती बनता जा रहा है। वहीं गांव में जहां हर जरूरत के लिए पड़ोस का दरवाजा खटखटाया जा सकता है, शहरों में यह संभव नहीं है। ऐसे में बेशक आज शहरों में छठ पर्व के लिए सुविधाएं बढ़ गई हैं, लेकिन चुनौतियां फिर भी कम नहीं हैं।
कैसे करती हैं मैनेज?
शहरों में छठ व्रत करना भले ही चुनौतीपूर्ण हो, लेकिन आधुनिक महिलाएं इसे बड़े संतुलन और समझदारी से निभा रही हैं। वे परंपरा से जुड़ी आस्था को बनाए रखते हुए अपनी व्यावसायिक जिम्मेदारियों को भी बखूबी निभा रही हैं और व्रत की हर तैयारी सोच-समझकर करती हैं। समय और श्रम बचने के लिए कुछ महिलाएं ठेकुआ जैसी मिठाइयां पहले से बनाकर रखती हैं। वे वर्क फ्रॉम होम या छुट्टी लेकर व्रत के दौरान मानसिक और शारीरिक तैयारी के लिए खुद को समय देती हैं। सिर्फ यही नहीं, आज की महिलाएं पति और बच्चों को साथ जोड़कर छठ व्रत को पारिवारिक सहभागिता में बदल रही हैं। इससे न सिर्फ काम बंटता है, बल्कि परिवार के बीच समझ और सहयोग भी बढ़ता है। नदी या तालाब तक जाना मुश्किल हो तो महिलाएं छत या सोसाइटी में ही अर्घ्य के लिए कुंड बना लेती हैं। सामुदायिक छठ समितियां भी उनका सहारा बन रही हैं। इस तरह शहरी महिलाएं परंपरा को नई सोच और प्रबंधन कौशल के साथ आगे बढ़ा रही हैं।
दृढ़ता और विश्वास
आज की महिलाएं आस्था और दृढ़विश्वास के साथ त्योहारों की हर रस्म निभाती हैं। वे शारीरिक चुनौतियों का सामना करते हुए 36 घंटे का उपवास रखती हैं और अपने जीवन तथा ऑफिस के बीच संतुलन बनाकर रखती हैं।
हमें छठ के संदेश को समझना चाहिए
लोक गायिका रंजना झा कहती हैं, अब छठ अपने देश के साथ-साथ विदेश में भी मनाया जाने लगा है। पहले इसे बिहार और उत्तर प्रदेश का ही पर्व माना जाता था। घर-परिवार और समाज के कल्याण के लिए छठ महापर्व मनाया जाता है। साथ ही छठ प्रकृति के रक्षार्थ एक महापर्व है। प्रकृति के स्वच्छ और संरक्षित होने पर ही हमारा स्वास्थ्य उत्तम होगा और हम समाज के लिए कुछ कर पाएंगे। जब हम त्योहार शुरू करते हैं, तो स्वच्छता का पूरा ख्याल रखते हैं। पर्व समाप्त होते ही हम सभी जगह कचरा फैला देते हैं। यह बात मुझे दुख पहुंचाती है। क्यों न हम सिर्फ चार दिन ही नहीं, बल्कि साल भर अपने घर के साथ-साथ सड़क, नदी को भी स्वच्छ रखें। सड़क पर कूड़ा न फेंकें। हमें यह सोचना चाहिए कि प्रकृति रहेगी, तभी हमारा जीवन बचेगा। स्वच्छता पर्व का मतलब है- अंदर और बाहर, दोनों को स्वच्छ रखना।

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