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क्या आप अपने पैसों को सही जगह पर खर्च करते हैं?
शिवकुमार गोयल
Updated Mon, 06 Jan 2014 12:10 PM IST
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धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जो जरूरत से अधिक धन का संग्रह करता है और अर्जित धन का अंश सेवा-परोपकार में नहीं लगाकर भोग-विलास पर खर्च करता है, वह दूसरे के हक पर डाका डालता है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, यज्ञशिष्याशिनः सन्तो मुच्यन्ते पचन्त्यामकारणात्। अर्थात, सबको देकर उसके बाद जो बचे, उससे अपना काम चलाएं। जो बचा धन है, वही यज्ञावशेष है।
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आध्यात्मिक विभूति महर्षि रमण ने कहा, हमेशा यह मानो कि मेरे पास जो धन-संपत्ति है, वह ईश्वर की है। मैं तो मात्र उसका प्रबंधकर्ता हूं। महर्षि नारद ने भी कहा है, जो जीवन यापन करने से अधिक संपत्ति को अपनी मानकर उसका उपयोग करता है, वह दंड का पात्र है। जरूरत से अधिक धन का परोपकार में उपयोग करना चाहिए।
इसलिए भगवान बुद्ध और महावीर ने भी अपरिग्रह को पुण्य और परिग्रह को पाप बताया है। पुराणों में महाराजा शिवि की कथा आती है। उन्हें स्वर्ग भेजे जाने का आदेश हुआ। शिवि ने कहा, मेरी यह अभिलाषा है कि जितने दुखी हैं, सब सुखी हो जाएं। मेरे पुण्य दुखियों के दुख दूर करने में लगा दिए जाएं।
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संत-महात्मा भगवान को दीनबंधु कहते हैं, जो दीनों के हृदय में वास करते हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि रमण आदि विभूतियां अपंगों, बीमारों, कोढ़ियों को साक्षात भगवान मानकर उनकी सेवा में तत्पर रहती थीं।