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Indigo Crisis: 'कमाई रुपये में, खर्च डॉलर में', इंडिगो संकट के बीच एयर एशिया सीएफओ ने बताई बाजार की सच्चाई
बिजनेस डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: कुमार विवेक
Updated Wed, 10 Dec 2025 05:44 PM IST
सार
Indigo Crisis: देश में जारी विमानन संकट के बीच एयर एशिया के सीएफओ विजय गोपालन ने एक साक्षात्कार में भारतीय विमानन क्षेत्र की कड़वी सच्चाई के बारे में बताते हुए कहा है कि भारतीय विमानन बाजार के मौजूदा ढांचे में मुनाफा कमाना बहुत मुश्किल है। उन्होंने विमानन बाजार के किन चुनौतियों की बात की, आइए जानते हैं।
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इंडिगो संकट।
- फोटो : PTI
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विस्तार
भारतीय विमानन बाजार दुनिया के सबसे तेजी से बढ़ते बाजारों में से एक है, लेकिन इसके बावजूद यह एयरलाइनों के लिए हमेशा घाटे का सौदा ही रहा है। देश की सबसे बड़ी एयरलाइन इंडिगो में जारी हालिया उथल-पुथल ने एक बार फिर इस बहस को छेड़ दिया है कि क्या भारत में एयरलाइन चलाना वास्तव में टेढ़ी खीर है? इस गंभीर सवाल के बीच, एयर एशिया के सीएफओ विजय गोपालन ने जो बातें कही हैं, वे किसी खतरे की घंटी से कम नहीं हैं। उनका विश्लेषण बताता है कि भारत में एयरलाइन कारोबार की यह दशा केवल प्रबंधन की विफलता नहीं है, बल्कि सिस्टम का संरचनात्मक दोष है जो एयरलाइनों को डूबने पर मजबूर कर रहा है।
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एयर एशिया के सीएफओ विजय गोपालन ने क्या कहा?
एयर एशिया के सीएफओ विजय गोपालन ने एक साक्षात्कार में भारतीय विमानन क्षेत्र की कड़वी सच्चाई के बारे में बताते हुए कहा है कि भारतीय विमानन बाजार के मौजूदा ढांचे में मुनाफा कमाना बहुत मुश्किल है। गोपालन ने कहा, "एयरलाइन कंपनियों का आधा खर्चा विमान के ईंधन यानी एयर टरबाइन फ्यूल पर होता है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह ईंधन जीएसटी के दायरे में नहीं आता। इस पर राज्य सरकारें अपना टैक्स लगाती हैं, जो कुछ राज्यों में 30% से भी अधिक है। एक कमोडिटी बिजनेस में, जहां मार्जिन बेहद कम होता है, वहां लागत का 50% हिस्सा अगर ईंधन में चला जाए तो परेशानी खड़ी होती है। गोपालन ने साफ किया कि इस हालात को इसे तर्कसंगत बनाए बिना विमानन उद्योग में बदलाव कठिन है।"
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गोपालन ने कहा कि भारत में एयरलाइंस के लिए डॉलर में होने वाला भुगतान परेशानी का दूसरा बड़ा कारण है। गोपालन के अनुसार, एयरलाइन का 75 फीसदी खर्च डॉलर में होता है। एयरक्राफ्ट का भाड़ा हो, मेंटेनेंस और रिपेयर हो या कलपुर्जे पर किया गया खर्च, ये सभी डॉलर में चुकाए जाते हैं। फिलहाल रुपया एक डॉलर की तुलना में 90 रुपये तक पहुंच गया है। विमान की लीज पर दो वर्ष पहले जब 100 डॉलर खर्च होता था, तो हमें 8000 रुपये चुकाने पड़ते थे। आज उसी एयरक्राफ्ट के लिए हमें 9000 रुपये चुकाने पड़ते हैं।" सीधा मतलब है कि बिना कोई अतिरिक्त सेवा दिए या बिजनेस बढ़ाए, केवल रुपये के कमजोर होने से एयरलाइन की लागत सीधे तौर पर बढ़ गई है।
गोपालन ने कहा कि विदेशी लीजर्स (विमान पट्टे पर देने वाली कंपनियां) भारत को एक 'जोखिम भरा बाजार' मानते हैं। भारतीय कंपनियों के लिए लीजिंग की लागत वैश्विक औसत से अधिक है। इसके अलावे भारत में कुछ ढांचागत समस्याएं भी हैं। स्लॉट्स की कमी: चेन्नई और मुंबई जैसे प्रमुख हवाई अड्डों पर पीक आवर्स में स्लॉट उपलब्ध नहीं हैं। देश में पर्याप्त ट्रेनिंग फैसिलिटी नहीं है, जिससे विदेशी पायलट्स पर निर्भरता और वेतन लागत बढ़ती है।
विजय गोपालन की बातों को अगर हम इतिहास के संदर्भ में देखें, तो तस्वीर साफ हो जाती है। किंगफिशर एयरलाइंस (2012) में बंद हो गई। विजय माल्या की 'किंग ऑफ गुड टाइम्स' कही जाने वाली एयरलाइन उच्च ईंधन लागत, भारी कर्ज और गलत प्रबंधन के कॉकटेल के कारण डूब गई। देश की सबसे पुरानी निजी एयरलाइनों में से एक, जेट एयरवेज ने 25 साल तक आसमान पर राज किया। लेकिन डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी और बढ़ते कर्ज ने इसे जमीन पर ला दिया। 2019 में यह भी बंद हो गई। हाल ही में गो फर्स्ट का संकट भी इंजनों की उपलब्धता (सप्लाई चेन) और कैश फ्लो की कमी का परिणाम था। इसके अलावे स्पाइसजेट एयरलाइन को भी संकट से जूझना पड़ा।