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Bihar Election 2025: लालू परिवार में सियासी विरासत का संघर्ष और बहुदलीय परिवारवाद...!

Ajay Bokil अजय बोकिल
Updated Thu, 25 Sep 2025 03:31 PM IST
सार

Bihar Election 2025: लालू पहले अपनी पत्नी राबड़ी देवी को राजनीति में लाए। फिर बच्चे बड़े हुए तो मीसा भारती, तेजप्रताप और तेजस्वी जनप्रतिनिधि या सत्ताधीश बनवा दिया। ऐसे में उनकी एक और बेटी रोहिणी आचार्य का अपने ‘त्याग की कीमत’ मांगना स्वाभाविक ही था, जिन्होंने पिता को अपनी एक किडनी दी है।

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Political legacy in lalu yadav,s family challenges and crises know lalu's legacy impacts in bihar politics
लालू परिवार में सियासी विरासत का संघर्ष और बहुदलीय परिवारवाद - फोटो : PTI
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विस्तार
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बिहार में विधानसभा चुनाव के पहले राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के परिवार में राजनीतिक विरासत के ‘न्यायोचित’ बंटवारे को लेकर जो अंतर्कलह मची है, उसे जनता किस रूप में लेगी, लालू इस मामले में कितने न्यायशील रह पाएंगे, यह अभी देखना है, लेकिन जो हो रहा है, वह शायद राजनीति में परिवारवाद की अनिवार्य त्रासदी है। या यूं कहें कि परिवार ही परिवारवादी सियासत का ‘दि एंड’ होता है। हालांकि लालूजी के सभी नौ बच्चे राजनीति में सक्रिय नहीं है, लेकिन बाकी पांच में उनमें सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी की चाहत न हो, यह भी अति आशावाद होगा। लालू परिवार में आज हर कोई अपने-अपने ‘त्याग’ की कीमत मांग रहा है। जबकि लालू ने अपने सबसे छोटे बेटे तेजस्वी यादव को ‘योग्यतम’ पाकर अपना सियासी वारिस घोषित किया हुआ है। बड़े पुत्र और सत्ताकांक्षी तेजप्रताप यादव को ‘प्रेम सम्बन्धों’ के चलते पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। 

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लालू पहले अपनी पत्नी राबड़ी देवी को राजनीति में लाए। फिर बच्चे बड़े हुए तो मीसा भारती, तेजप्रताप और तेजस्वी जनप्रतिनिधि या सत्ताधीश बनवा दिया। ऐसे में उनकी एक और बेटी रोहिणी आचार्य का अपने ‘त्याग की कीमत’ मांगना स्वाभाविक ही था, जिन्होंने पिता को अपनी एक किडनी दी है। रोहिणी ने 18 सितंबर को एक सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर की पोस्ट को शेयर किया, जिसमें राजद सांसद संजय यादव पर ‘बिहार अधिकार यात्रा’ के दौरान बस की अगली सीट पर बैठने का आरोप था। यह सीट आमतौर पर लालू प्रसाद या तेजस्वी यादव जैसे शीर्ष नेताओं के लिए आरक्षित रहती है। फिर रोहिणी ने पूर्व विधायक शिव चंद्र राम जैसे हाशिए पर पड़े दलित नेताओं की तस्वीरें शेयर कीं, जो उसी सीट पर बैठे दिख रहे थे। 
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रोहिणी ने लिखा कि राजद के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादवजी द्वारा सामाजिक-आर्थिक न्याय के लिए चलाए जा रहे अभियान का मूल उद्देश्य समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े वंचित वर्ग को आगे लाना रहा है। इन तस्वीरों में इन्हीं वर्गों से आने वाले लोगों को आगे बैठे देखना सुखद अनुभव है।” फिर 19 सितंबर को रोहिणी ने सिंगापुर में किडनी दान के दौरान ऑपरेशन थिएटर ले जाते समय की अपनी पुरानी तस्वीर शेयर करते हुए लिखा कि मुझे किसी पद की लालसा नहीं है, न ही कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा। मेरे लिए मेरा स्वाभिमान सर्वोपरि है।” चर्चा है कि  रोहिणी विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थीं, लेकिन तेजस्वी ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। शायद वो परिवार में एक और नया प्रतिद्वंद्वी नहीं चाहते। यहां संजय यादव तो एक निमित्त भर है। क्योंकि हर नेता का कोई न कोई ‘संजय यादव’ होता ही है। असली कारण लालू  की राजनीतिक विरासत में बराबरी की हिस्सेदारी है। यहां सवाल यह भी है कि अगर रोहिणी की सचमुच कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है तो फिर सोशल मीडिया पर यह सब डालने की जरूरत ही क्या थी?
 

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भारतीय राजनीति के वटवृक्ष के नीचे फल-फूल रहे राजनीतिक परिवारवाद को जन स्वीकृति भी प्राप्त है - फोटो : X/TejashwiYadav

लालू परिवार के बाकी पांच सदस्यों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा कितनी है, यह अभी सामने नहीं आया है। लेकिन इस बार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के जीतने की उम्मीदों के बीच उनके सियासी अरमान भी उछाल मारने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि महागठबंधन जीत ही जाएगा। लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि राहुल गांधी के जोरदार ‘वोट चोरी विरोधी अभियान’ और तेजस्वी के युवा चेहरे’ की छवि ने विधानसभा चुनाव मुकाबले को कांटे का बना दिया है। कभी परिवारवाद के लिए लालू पर तंज कसने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी लंबे अर्से बाद ‘कार्यकर्ताओं की इच्छा’ का सम्मान करते हुए अपने बेटे निशांत को राजनीति में आने की इजाजत दे दी है। चूंकि निशांत अकेले हैं, इसलिए सियासी विरासत में बंटवारे का कोई खतरा उनके सामने नहीं है। यही स्थिति अखिलेश यादव, नवीन पटनायक या सुप्रिया सुले के साथ भी है। क्योंकि ये सभी इकलौते हैं।

पिछले दिनों तेजस्वी यादव ने उन पर लग रहे परिवारवादी आरोप के जवाब में नीतीश राज में आयोगों में हो रही नियुक्तियों पर तंज कसते हुए उसे ‘जीजा, जमाई, मेहरारू (पत्नी) आयोग’ कहा था। तेजस्वी के पलटवार में दम इसलिए था, क्योंकि बिहार में ‘लालू के परिवारवाद’ के खिलाफ ‘प्रति परिवारवाद’ की भी बहार है। मसलन बिहार सरकार ने जेडीयू के राज्यसभा सांसद संजय कुमार झा की बेटी सत्या और आद्या झा को सुप्रीम कोर्ट में काउंसलर बना दिया। सरकार में जेडीयू कोटे से मंत्री अशोक चौधरी के दामाद सायन कुणाल को बिहार राज्य धार्मिक विश्वास परिषद का सदस्य बनाया गया। सायन की पत्नी शांभवी चौधरी, जीतन राम मांझी की पार्टी “हम” से संसद हैं।  

केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी के दामाद देवेंद्र कुमार मांझी को बिहार अनुसूचित जाति आयोग का उपाध्यक्ष, तो पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय राम विलास पासवान के दामाद और वर्तमान केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान के बहनोई मृणाल पासवान को बिहार अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पद से नवाजा गया है। जबकि लालू परिवार में तेजस्वी के बड़े भाई तेज प्रताप विधायक हैं। बहन मीसा भारती राज्यसभा सदस्य हैं। सोशल मीडिया पर मोर्चा खोलने वाली बहन रोहिणी आचार्य लोकसभा चुनाव लड़ चुकी हैं। लालू यादव के साले साधु यादव भी राजनीति में हैं। लालू और राबड़ी देवी तो मुख्यमंत्री रह ही चुके हैं। 

यह सच्चाई है कि भारतीय राजनीति के वटवृक्ष के नीचे फल-फूल रहे राजनीतिक परिवारवाद को जन स्वीकृति भी प्राप्त है। इस परिवारवाद ने जनता से वैधता हासिल करने के लिए क्षेत्रीय अखंडता, जातीय पहचान और भाषिक अस्मिता का च्यवनप्राश भी इसमें चतुराई से मिला दिया है। फिर चाहे वो तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन हों, महाराष्ट्र में शरद पवार और ठाकरे परिवार के साथ-साथ जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला या मुफ्ती परिवार हो, तेलंगाना में केसीआर का परिवार हो या आंध्र में जगनमोहन रेड्डी का खानदान हो। पंजाब में अकाली दल हो या फिर बंगाल में ममता दीदी व यूपी में मायावती हों, उन्होंने अपना परिवार न होने पर भांजे, भतीजों के सिर पर हाथ रख दिया है। 
 

Political legacy in lalu yadav,s family challenges and crises know lalu's legacy impacts in bihar politics
लालू परिवार की यह अंतर्कलह समय रहते न थमी तो चुनाव में आरजेडी लिए दोहरा खतरा हो सकता है - फोटो : PTI

कांग्रेस में तो शीर्ष नेतृत्व ही राजनीति के इस प्रकार का साक्षात उदाहरण है। वामपंथी पार्टियों में परिवारवाद उतना ही हाशिए पर है, जितनी आज खुद वो पार्टियां हैं। उधर भाजपा राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद के खिलाफ खुलकर खम ठोकती है, बावजूद इसके कि यह घुन अब उसमें भी लग गया है। बीजेपी में परिवारवाद की कलमें अभी वृक्ष में तब्दील हो रही हैं। आज अधिकांश स्थापित नेताओं के  बेटे-बेटियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति के दरवाजे खटखटा रहे हैं। वैसे भाजपा ने इसकी एक सुविधाजनक परिभाषा भी खोज निकाली है कि ‘राजनीति में लंबे समय से सक्रिय’ बेटे बेटियों या करीबी रिश्तेदारों को परिवारवाद के ठप्पे से मुक्त रखा जाए।

इसके अलावा एक नया ट्रेंड ‘बहुदलीय परिवारवाद’ भी है। परिवार का एक सदस्य सत्तापक्ष में तो दूसरा विपक्ष में रहता है। यानी सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में परिवार के हाथों में ही रहती है। दोनों एक दूसरे की  सार्वजनिक आलोचना भी करते हैं और निजी तौर पर गले मिलते हैं। यह भी बहुदलीय लोकतंत्र खुला मजाक और जनता की आंखो में धूल झोंकना ही है। चिंता की बात यह है कि इस परिवारवाद को जनता का समर्थन भी मिलता है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 के लोकसभा चुनाव में एडीए गठबंधन ने 128 वंशवादियों को टिकट दिया, जिनमे से 77 जीते। अकेले बीजेपी ने ऐसे 96 टिकट बांटे थे, जिनमें  से 57 जीतकर लोकसभा पहुंचे। इसी तरह विपक्षी इंडिया गठबंधन ने कुल 152 परिवारवादियों को टिकट दिए थे, उनमें से 75 को जीत हासिल हुई। इसमें भी अकेले कांग्रेस ने 96 ऐसे टिकट दिए, जिनमें से 40 जीतकर संसद में पहुंचे। 

यह सही है कि नेताओं के पुत्र-पुत्रियां व अन्य रिश्तेदार अपने जीवन यापन के लिए कोई और उद्यम करें न करें, वास्तविक पुण्य उन्हें राजनीति में ही दिखाई पड़ता है। खासकर सत्ता का स्वाद चख चुके परिजनों में तो यह भाव और भी गहरे तक बैठा रहता है। उनके लिए किसी तरह सत्ता में आना और उस पर काबिज रहना ही जीवन का सार तत्व है और इसके लिए हर हथकंडा जायज है। ऐसे में जो नेता पुत्र-पुत्रियां व नजदीकी रिश्तेदार  सामान्य जीवन जी रहे होते हैं, उन्हें लगता है कि ‘पैतृक सम्पत्ति भी हिस्सेदारी’ की तरह अगर उन्हें राजनीतिक विरासत में भागीदारी न मिली तो पूरा जीवन ही बेकार है।  

बहरहाल, राजनीतिक नजरिए से लालू परिवार की यह अंतर्कलह समय रहते न थमी तो चुनाव में आरजेडी लिए दोहरा खतरा हो सकता है। पहला-चुनावी सीजन में सत्तारूढ़ नीतीश कुमार और बीजेपी इसे तेजस्वी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े करने के लिए भुनाएंगे। दूसरा-पार्टी के पुराने नेता और कार्यकर्ता, जो पहले ही संजय यादव के "सुपर पावर" से परेशान हैं, खुलकर बगावत कर सकते हैं। अपने ही परिवार के भीतर से चुनौती मिलने के कारण तेजस्वी की ‘युवा’ छवि कमजोर पड़ सकती है। हालांकि, तेजस्वी मानकर चल रहे हैं कि मुख्यमंत्री की अगली कुर्सी उन्हीं का इंतजार कर रही है। लेकिन मुश्किल यह है कि चुनाव के मुहाने पर छिड़ा यह पारिवारिक संघर्ष कहीं जनता के मुद्दों पर हावी हो गया तो विपक्ष का ‘वोट चोरी’ और ’बिहार के अधिकारों’ का नरेटिव ‘विरासत चोरी’ और ‘परिजनों के अधिकार संघर्ष’  में भी बदल सकता है। ऐसे में हाथ आती दिखती सत्ता फिर एक बार फिसल सकती है।

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