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महाशिवरात्रि विशेष: शिवोऽहम्: शिवत्व का वास्तविक अर्थ

Acharya Prashant आचार्य प्रशांत
Updated Tue, 25 Feb 2025 06:12 PM IST
सार

महाशिवरात्रि के अवसर पर क्यों न शिव को उनके ही माध्यम से आप तक लाया जाए, जिन्होंने शिवत्व को समझा है। जिससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा कि शिव कौन हैं?
 

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The real meaning of Shivatva by acharya prashant Chidananda roopah shivoham shivoham meaning in hindi
शिवोऽहम्: शिवत्व का वास्तविक अर्थ - फोटो : adobe stock
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विस्तार
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महाशिवरात्रि के अवसर पर क्यों न शिव को उनके ही माध्यम से आप तक लाया जाए, जिन्होंने शिवत्व को समझा है। जिससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाएगा कि शिव कौन हैं।

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शिव को लेकर ज्यादा सवाल कुछ इस तरह से रहते हैं:

'क्या कैलाश पर्वत पर कुछ पारलौकिक शक्तियों का वास है?' 'डमरू का क्या महत्व है?' 'शिव के जो हमें अनेक रूप बताए जाते हैं, वो सब क्या हैं?' शिव के विषय में जो इतनी बातें हैं जिनमें से अधिकांश मात्र भ्रांतियां हैं, उनमें से एक-एक का परीक्षण करें और फिर उनको नकारें, उससे कहीं बेहतर है कि जो एक मूल बात है  ठीक, सीधी, साफ, सच्ची- वो कर दी जाए। और हमने राम, कृष्ण, शिव, ये तीन जो मुझे बहुत प्रिय हैं और पूज्य हैं, हमने इन तीनों के साथ ही कुछ अच्छा व्यवहार नहीं करा है।
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तीनों की ही बात को हमने समझने से इंकार करा है और तीनों के ही अर्थ को हमारे अहंकार ने खूब विकृत करा है। और इन विकृत अर्थों को ही अब हम यूं मानने लगे हैं और प्रचारित भी करने लगे हैं जैसे सत्य हो।

तो हम बात करेंगे शंकराचार्य के 'निर्वाण षट्कम' से। इसकी पृष्ठभूमि कुछ ऐसी है कि शंकराचार्य बालक से थे, किशोर भी नहीं हुए थे तो वो अपने गुरु के पास गए और गुरु के बारे में प्रसिद्ध था कि वो आसानी से शिष्य किसी को स्वीकार करते नहीं थे। तो गुरु ने इनको देखा और कम उनकी उम्र बहुत, तो बोलते हैं, 'अच्छा, जरा परिचय देना अपना, हो कौन तुम?' तो बालक शंकर ने अपना परिचय ही इस अंदाज से दिया कि गुरू को महा आश्चर्यचकित होकर और प्रेमविह्वल होकर शंकर को शिष्य स्वीकारना ही पड़ा।

यह जो हमारे सामने आ रहा है 'निवार्ण षट्कम', यह वास्तव में आदि शंकराचार्य ने अपना परिचय दिया है। और अपना परिचय देते हुए बोले, 'मेरे बारे में, बाकी सब बातें मैं बताऊं क्या आपको श्रीमान। बाकी सब बातें बताने लायक नहीं हैं, मेरे बारे में। जो भी है, एक ही चीज है, मेरे बारे में बताने लायक — शिवोऽहम्, मैं शिव हूं।'

तो इसमें बिलकुल रस्सी पर चलते हैं आचार्य शंकर। एक ओर तो वो सबकुछ जो किसी के बारे में भी महत्वपूर्ण माना जाता है, जिन चीजों को हम अपनी पहचान बताते हैं, उनको काटते चलते हैं और जैसे-जैसे काटते जाते हैं, साथ में बोलते हैं, ‘चिदानंदरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।' मैं वो सब नहीं हूं और वो सब यदि नहीं हूं तो मैं कौन हूं? मैं यह हूं- मैं विशुद्ध सतत चेतना मात्र हूं।

मैं आनंदमयी चेतनामात्र हूं, और उसका नाम शिव है। अब देखिए, मैंने 'निर्वाण षटकम्' को, आपसे शिव का परिचय कराने के लिए इसलिए चुना है, क्योंकि जिन्होंने शिव को जाना शंकराचार्य- वो जिन-जिन चीजों को नकार कर, काट कर, कह रहे हैं, 'यह सब मैं नहीं हूं।' माने यह सब शिव नहीं हैं। 'मैं कौन हूं?'

अपनेआप को बोलते हैं 'शिवोऽहम्।' और जिन-जिन चीजों को कहते हैं, 'मैं नहीं हूं', उन चीजों के बारे में यही तो कह दिया न कि वो सब बातें शिव से सम्बन्धित नहीं हैं क्योंकि 'मैं कौन हूं?' मैं बराबर शिव। तो जितनी बातों को वो कह रहे हैं, मैं नहीं हूं, उतनी बातों को वो यही कह रहे हैं कि वो सब बातें शिव से कोई रिश्ता नहीं रखतीं। तो मैंने निर्वाण षटकम् इसलिए चुना है, क्योंकि जिन-जिन बातों को हमें आचार्य शंकर बता रहे हैं कि शिव से कोई सम्बन्ध नहीं रखतीं, हमने आज शिव का सम्बन्ध उन्हीं सब बातों से जोड़ दिया। और मात्र, उन्हीं सब बातों से जोड़ दिया है।

अब यह तो एक अजीब विडंबना हो गई न भाई कि जो करने के लिए हमको मना कर गए ज्ञानी, हम ठीक वही कर रहे हैं। गजब माया है! ऐसा भी नहीं कि थोड़ी बहुत ग़लती कर दी है। शत प्रतिशत गलती, जैसे कि बिलकुल हिसाब लगाकर के गलती करी गई हो। जैसे कि कोई पूछ रहा हो, 'अच्छा बताओ, क्या क्या नहीं करना है?' और जो नहीं करना है वही सब करा हो। तो जो कुछ हमें यहां पर आचार्य शंकर मना कर रहे हैं — शिव के विषय में सोचने को — हमने शिव के विषय में वही सबकुछ सोच रखा है। और महाशिवरात्रि जैसे पर्व को भी हम बड़ा कलुषित कर देते हैं, जब हमारी शिव की धारणा ही इतनी विकृत होती है। तो कह रहे हैं आचार्य शंकर-

मनोबुद्ध्यहङ्कार चित्तानि नाहं,
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमि- र्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥


मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, अंत:करण के हिस्से होते हैं, ये सब, ये चार, शास्त्रीय तौर पर। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। बोल रहे हैं, 'इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं।' माने इनसे शिव का कोई सम्बन्ध नहीं। क्योंकि मैं कौन हूं? मैं शिव हूं। तो जिन चीजों से मेरा सम्बन्ध नहीं, उनसे शिव का भी सम्बन्ध नहीं। तो इन चीजो से शिव का कोई सम्बन्ध नहीं- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। और शिव वो नहीं हैं जो इंद्रियों की पकड़ में आ सकें। श्रोत्र माने? कान।

जिह्वा माने? जीभ। घ्राण माने? नाक। नेत्र माने? आंख। मन, बुद्धि, अहंकार, स्मृति इनका उपयोग करके शिव को सोचने मत लग जाना। और न शिव को कोई ऐसा रूप दे देना जिसे आंखें देख सकती हों। न शिव के बारे में कोई ऐसी बात कह देना जिसे कान सुन सकते हों। शिव को जिसने रूप दे दिया — हमको आचार्य शंकर समझा रहे हैं- उसने शिव को खो दिया। क्योंकि सब रूप तो मानसिक ही होते हैं न। सब रूपों को हम अपने ही रूप से ढालते हैं। हैं न? जैसा हमारा रूप होता है, वैसा ही या उससे सम्बन्धित। हम किसी को भी कोई रूप दे देते हैं।

तो कह रहे हैं, 'तुम्हारे मन से शिव की जो भी धारणा निकलेगी, गलत होगी। तुम्हारी बुद्धि से शिव के विषय में जो भी विचार निकलेगा, वो भी गलत होगा, एकदम गलत होगा- छोटा-मोटा नहीं।' इसका क्या यह अर्थ है कि एक विचार ग़लत हो सकता है शिव के विषय में, दूसरा विचार सही हो सकता है? नहीं। तुम जो भी विचार करोगे, वो उठ तो तुम्हारे ही अहंकार के केन्द्र से रहा है न, तो वह भी सब ग़लत होगा।

The real meaning of Shivatva by acharya prashant Chidananda roopah shivoham shivoham meaning in hindi
महाशिवरात्रि - फोटो : instagram

शिव के विषय में तुमने जो कुछ भी कह दिया, वो गलत। शिव के विषय में तुमने जो कुछ भी सुन लिया, वो गलत। जिह्वा ने कुछ कह दिया शिव के विषय में, गलत। बुद्धि ने कुछ अनुमान लगा लिया शिव के विषय में, कोई भी कहानी बना ली तुमने शिव के विषय में- शिव के विषय में कहानी छोड़ो, एक शब्द भी अगर तुमने कह दिया, तो तुम शिव से बहुत दूर हो गए। वाणी उनका वर्णन नहीं कर सकती, नेत्र उनका दर्शन नहीं कर सकते, कान उनका श्रवण नहीं कर सकते।

और हम क्या करते हैं? कहानियां-ही-कहानियां। 'वो यहां बैठे हैं, फिर यह कर रहे हैं, फिर उन्होंने यह करा, फिर कुपित हो गए, फिर ऐसा हो गया, वैसा हो गया।' इनमें से कुछ कहानियां हैं जो किताबों से आ रही हैं, और कुछ कहानियां हैं जो आजकल बहुत फैला दी गई हैं। जो सनातन धर्म की केन्द्रीय पुस्तक है, उसको वेद बोलते हैं। और वेदों का दर्शन है वेदांत। और वेदांत के दर्शन में जो आखिरी सत्य है उसको आत्मा बोलते हैं। तो शिव शिव वेदांत की आत्मा हैं।

जितनी बातें यहां पर आचार्य शंकर अपने बारे में या शिव के बारे में बोल रहे हैं, वो सारी बातें वास्तव में आत्मा के बारे में बोल रहे हैं। वो यही कह रहे हैं कि 'मैं आत्मा हूं, और शिव आत्मा का दूसरा नाम है, और आत्मा इंद्रियों से अतीत होती है; मन से उसका चिंतन नहीं हो सकता, अनुभव में वो आती नहीं, स्मृति में वो बैठती नहीं।' और यह जो बात है, यह उच्चतम बात है शिव के बारे में। अब अगर आपको शिव के बारे में और बहुत सारी बातें मिलती हैं — अन्य पुस्तकों में- जो इस बात के विपरीत जाती हैं, तो उसमें कोई हमें संशय नहीं होना चाहिए, कोई विचार की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। जो वेदांत की बात है वही मान्य होगी। बाकी सब बातों का कोई महत्व नहीं है।

एक बार उपनिषदों ने यह कह दिया कि शिव के विषय में कोई कल्पना न करो, उन्हें कोई रूप-रंग, आकार देने का प्रयास न करो। उनके बारे में कोई किस्से-कहानी सोचना ही धृष्टता है, तो उसके बाद और कहीं भी आपको बताया जा रहा हो कि लो शिव के बारे में यह कथा ले लो, यह कहानी ले लो, आपको उन सब कथाओं को तुरंत अस्वीकार कर देना चाहिए।

न व्योम (अर्थात्) आकाश, आसमान, न भूमि, न तेज, न वायु- किसी से कोई प्रयोजन नहीं। पूरी प्रकृति समा जाती है जमीन और आसमान के बीच में, पूरी प्रकृति में ही जो कुछ है, मैं वो नहीं हूं, वो आत्मा नहीं है, वो शिव नहीं है- यह मेरा परिचय है, यही शिवत्व का परिचय है। 'चिदानन्दरूप:'- चेतना मात्र। विशुद्ध चेतना को ही शिव कहते हैं।

शिव कोई व्यक्ति नहीं हैं, शिव का कोई व्यक्तित्व नहीं हो सकता। शिव कोई रूप-रंग, नाम, आकार नहीं हैं। शिव कोई मनुष्य नहीं हैं, जो कभी हुआ था। शिव कोई इंसान नहीं हैं, जो किसी घर में रहता है या किसी जगह पर रहता है। विशुद्ध चेतना को ही शिव कहते हैं। 'चिदानंदरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्' — विशुद्ध चेतना मात्र को ही शिव कहते हैं।

और चेतना के दूषण कौन होते हैं? वही सब जिनको अभी-अभी नकारा गया है। कौन? पृथ्वी से लेकर के आकाश के बीच में जो कुछ है, वो दूषण है। और वो आगे दूषित किसको करता है? इन्हीं को  मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को दूषित करता है। किसके माध्यम से वो मन तक पहुंचता है? अरे! यही भाई  जिह्वा, नेत्र, घ्राण। जिह्वा, नेत्र, घ्राण इनके माध्यम से कौन प्रवेश करता है आपमें? वो जो व्योम से लेकर भूमि तक है। और वो प्रवेश करके किसको कलुषित कर देता है? मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को।

तो पूरी जो दूषण की प्रक्रिया है, 'निर्वाण षट्कम' माने छह बातें कहेंगे इसमें। वो छह बातों में पहली ही बात में वो पूरी दूषण की प्रकिया है, मिलावट का जो खेल है, उसको आचार्य शंकर ने साफ़ कर दिया है। बोल रहे हैं, 'जमीन से आसमान तक जो कुछ है, नहीं हैं शिव! वो जो जमीन से लेकर आसमान तक है, वो आपमें जिस रास्ते से प्रवेश करता है, वो भी नहीं हैं शिव। और वो जहां जाकर बैठ जाता है, वो भी नहीं हैं शिव।' क्योंकि यह सारी प्रक्रिया ही दूषण की, माने मिश्रण की, मिलावट की है।

शिव क्या हैं?

शिव क्या हैं? 'चिदानंदरूप:' माने जहां कोई मिलावट नहीं है, विशुद्ध चैतन्य मात्र है। माने चेतना से यह सब चीजें, जो प्राकृतिक हैं, जब हट जाती हैं तो चेतना का जो विशुद्ध नृत्य होता है, चेतना का जो अकलुषित प्रकाश होता है उसको शिव कहते हैं। शिव जहां हो सकते हैं, उनको वहां होने दो न। शिव मात्र विशुद्ध चेतना में हो सकते हैं। और वहां तुम उनको होने नहीं देते, अहंकार गवारा नहीं करता। तो उनके लिए तुमने बहुत सारी चीजें बना लीं। उनके लिए एक विशिष्ट दिन बना लिया, उनके लिए एक विशिष्ट जगह बना दी, उनको एक विशिष्ट पर्वत भी दे दिया। और उनके बारे में न जाने कितने तरह की क्या-क्या बातें कह डालीं — उनमें से किसी में भी शिव नहीं हैं। सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी साफ़ चेतना का ही नाम शिव है।

न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातु- र्न वा पञ्चकोशः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥


'प्राण, वायु, धातु, कोष, वाक्, पाणि, पाद।' वाक् — तालू, पाणि — हथैली, पाद — पैर। चौपस्थपायू — जो आपकी उत्सर्जन की इंद्रियां होती हैं। तो आपकी जो कर्मेंद्रियां हैं, वो भी नहीं हैं। जो पंचवायु आप अपने शरीर के भीतर रखते हो, वो भी नहीं है। सप्तधातु नहीं। वो जो पंचकोष होते हैं, जिनसे जीव के अस्तित्व का हम पूरा विवरण ही दे देते हैं न, वो भी नहीं हैं।

आत्मा और अनात्मा के परित: हम पांच कोष बनाकर कहते हैं — यह जीव है, और ये जो पांचों कोष हैं, जब वो छिलके की तरह उतार दिए जाते हैं तो उनके मध्य में जो आत्मा है, वही मात्र सच्चाई है। तो यह जो पांच कोष हैं, ये तो मिथ्या ही हैं। कह रहे हैं, 'इनमें से कुछ भी नहीं।' ये सब बातें प्रकृति के अंतर्गत आती हैं, शिव इनमें से कुछ भी नहीं हैं।

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥३॥


आत्मा, मैं, शिव, इन तीनों के बारे में साझी बात — इनमें न द्वेष है, न राग है। 'न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ'। न लोभ है, न मोह है। द्वेष और राग हमेशा प्रकृति के प्रति होते हैं। प्रकृति में कोई विषय होता है, उसके प्रति कभी द्वेष हो जाता है, कभी अनुराग हो जाता है, कभी लोभ लगता है, कभी भय लगता है, कभी मोह हो जाता है। ये जितनी भी बातें हैं, ये सम्बन्ध को इंगित कर रही हैं न कि एक सम्बन्ध स्थापित कर लिया। आपके सामने कोई वस्तु है, उससे आपने एक सम्बन्ध स्थापित किया। सम्बन्ध का नाम हो सकता है — द्वेष, राग, लोभ, मोह, भय, मद, मात्सर्य। तो इन सबको सिरे से नकारे दे रहे हैं। आदि से अंत तक नकारे दे रहे हैं आचार्य। कह रहे हैं आचार्य —

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ,
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥३॥


मद माने चेतना का गिर जाना, अहंकार और सघन हो जाना, नशा। ईर्ष्या भी आपको सदा किसी प्रकृतिगत विषय के प्रति होती है। आप भी अपनेआप को प्रकृति का ही विषय समझते हो; वो जो सामने विषय है, वह आपको अपनेआप से बड़ा लगता है, तो आपमें ईर्ष्या उठ आती है। मद भी आप पर चढ़े, इसके लिए चेतना का आच्छादित होना जरूरी है। किससे? प्रकृति के ही किसी विषय से। जब प्रकृति का कोई विषय चेतना पर एकदम छा जाता है, तो नशा हो जाता है, मनुष्य विवेक खो देता है। तो ये सारी बातें किसको संबोधित करके कही गई हैं? प्रकृति को। और प्रकृति से क्या कहा गया है? 'नहीं बाबा! तुमसे मेरा नहीं कोई रिश्ता है।' जिसका प्रकृति से कोई सम्बन्ध न हो, उसको शिव कहते हैं।

किसी भी तरह कोई सम्बन्ध न हो- लोभ का नहीं, मोह का नहीं, राग का नहीं, द्वेष का नहीं, भय का नहीं, मद का नहीं, मात्सर्य का नहीं, हर्ष का नहीं, शोक का नहीं, लाभ का नहीं, हानि का नहीं। जो प्रकृति को इतना जान गया है, इतना जान गया है कि उसके लिए अब संभव ही नहीं रह गया है प्रकृति पर हाथ डालना, उसे शिव कहते हैं।

वो चेतना है एक, व्यक्ति नहीं है। जो चेतना प्रकृति को इतना समझ गई है कि अब वो चाहकर भी प्रकृति से बंध नहीं सकती, उसको शिव कहते हैं। और प्रकृति को उतना समझा जाता है प्रकृति के निकट आकर के। बिना निकटता के कुछ समझ में नहीं आएगा। बहुत दूरी बनाना तो द्वेष का लक्षण होता है। और निकट आने का मतलब आसक्ति हो आवश्यक नहीं है। 

जो देह होने से इंकार कर दे चेतना, उसको शिव कहते हैं। हमने क्या खुराफात कर दी? हमने शिव को ही देह पहना दी! जो चेतना देह होने को अस्वीकार कर दे, उसको शिव कहते हैं। और हमने इतना बड़ा अनर्थ कर दिया कि हमने शिव को ही देह पहना दी।

आपको अगर आम संसारी बने रहना है तो शिव की अपेक्षा नहीं करें। आप कहें कि मुझे अपना साधारण जीवन ही चलाना है और साल में एकाध-दो दिन में जाकर के शिव के नाम पर कुछ उत्सव कर लूंगा- जिनमें अधिकांशत: हुड़दंग मात्र होता है। तो उससे आपको शिव की निकटता नहीं मिल जाने वाली है। जिनको अभी अर्थ, काम और ऐसी चीजों में और सस्ती बातों में बहुत अभी रुचि हो, प्रयोजन हो, उनके लिए शिव नहीं हैं।

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम्
न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।


जो आम संसारी है, वो जिन-जिन चीजों को महत्व देता है, हर उस चीज को कहा जा रहा है, जबतक ये चीज तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण है, तब तक शिव के तुम आसपास भी नहीं भटक रहे भाई! ये पाप और पुण्य, यह साधारण धार्मिकता।

यूं ही नहीं अभी कहा था- 'न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः'। ये सब बातें हम धर्म के अंतर्गत मान लेते हैं न कि भाई पाप से बचना है, पुण्य कर्म करना है। कह रह हैं, 'जब तक तुम्हें अभी यह पाप-पुण्य वगैरह चल रहा है, तब तक तुम शिव से बहुत दूर हो।' क्योंकि पाप और पुण्य दोनों में ही कामना बैठी हुई है।

पुण्य करना है, ताकि पुण्य करके कुछ लाभ मिले, या पुण्य करना है, ताकि पुराने पाप कटे। पाप से बचना है, क्योंकि दुख की कामना नहीं है, दुख से भय है। तो जो अभी सकामता में जी रहा है, जिसके पास कामनाएं हैं, माने वो अभी अहंकार के चलाये चल रहा है। सब कामनाएं अहंकार की होती है न। तो पाप-पुण्य पर चलने वाला अहंकार होता है। इसीलिए आगे कह दिया है — 'न सौख्यं न दुःखम्।' पाप का संबंध होता है दुख से, और पुण्य का संबंध होता है सुख से। कह रहे हैं, अभी जो सुख-दुख के खेल में है, और सुख बढ़ जाए इसके लिए वो पुण्य इत्यादि का भी पालन कर लेता है, शिव उसके लिए नहीं हैं। और यह सब जो आम धार्मिक लोग हैं, उनके ऊपर बड़ा प्रहार है। प्रहार ही नहीं, वज्रपात है।

कहते हैं- 'न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।' जो शिव को लेकर के मंत्रोच्चारण कर रहे हों, वो सब दूर हटें। उनके लिए शिव नहीं हैं। तुमको क्यों लग रहा है कि शिव मंत्रों में बैठे हैं? 

'न मन्त्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।' यह जितने तुम काम करते हो, ये सब तुम अपनी बुद्धि से करते हो, अपना विचार लगाकर करते हो और इन सब कामों में तुम्हारी कामनाएं छुपी होती हैं — चेतना की कामना का नाम शिव नहीं है। चेतना जिसकी इच्छा कर सके, उसका नाम शिव नहीं है। चेतना जिसकी छवि बना सके, उसका नाम शिव नहीं है। चेतना जिसके बारे में कोई गुण बता सके, उसका नाम भी शिव नहीं है। 

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥४॥


'अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता'। न मैं वो हूं जो भोग सकता है, न मैं भोगे जाने वाला विषय हूं। ये दोनों प्रकृति में ही आते हैं न। एक होता है अहंकार जो अपनेआप को भोक्ता बोलता है। और सामने उसके तमाम विषय होते हैं, जिनको वो भोग रहा होता है। तो ये तीनों चीजें होती हैं — भोग्य वस्तु, भोक्ता और भोग। जो इन दोनों के बीच में सम्बन्ध होता है, वस्तु और अहंकार के बीच में भोग का सम्बन्ध, कह रहे हैं, 'इनसे हमारा कोई लेना-देना नहीं।'

प्रकृति में जो कुछ भी होता है, उससे मेरा लेना-देना नहीं। न मैं किसी को भोगने वाला हूं, न मुझे किसी का भोग बनना है। न मैं यह सोचता हूं कि प्रकृति में कुछ भी ऐसा है जो मुझमें जुड़ जाए, तो मैं पूर्ण हो जाऊंगा। न मैं सोचता हूं कि मुझमें वो अपूर्णता है जिसको अपेक्षा है, तलाश है, दरकार है कि कुछ मिल जाए बाहर से। यह सब होता रहता है। मैं जान रहा होता हूं कि यह सब हो रहा है। लेकिन यह जो कुछ भी हो रहा है उसमें मैं नहीं हूं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:,
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥५॥


मर सकता नहीं मैं, तो मुझमें मृत्यु की शंका कैसे होगी। अब बताइए वो कितना बड़ा भक्त हुआ शिव का जो शिव से आकर के कहे कि 'हे महाकाल, काल को मुझसे दूर रखना।'  इसको क्या है? ये मृत्युशंका है।

और यहां पर हमें बताया जा रह है — 'न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः।' फिर कोई बड़ा मंदिर हो शिव का जिसमें यह प्रथा चलती हो कि विशेषकर महाशिवरात्रि के दिन ब्राह्मण इत्यादि आकर के शिवलिंग का अभिषेक करेंगे तो उस मंदिर का, उस प्रथा का शिव से कोई सम्बन्ध नहीं है।

वो तो बोल रहे हैं- 'न मे जातिभेदः।' जहां जाति भेद है, वहां मैं नहीं। मुझमें कोई जाति भेद नहीं है। अजात चेतना को शिव कहते हैं, उसमें जाति कहां से आ गई? उसमें यह शरीर कहां से आ गया? जो अभी ये शरीरधर्मा है उसका शिव से क्या लेना-देना। जहां अभी यही सब बातें चल रही हैं कि जाति विशेष, व्यक्ति विशेष, वर्ण विशेष, देह विशेष वहां शिव से कोई संबंध नहीं।

'पिता नैव मे नैव माता न जन्मः'। जन्मा मैं नहीं हूं, मुझसे कोई जन्मता नहीं। एकमात्र सत्य हूं मैं। न मेरे कुछ ऊपर है, न मेरे कुछ नीचे है। ऊपर और नीचे का जो तुमको पता चलता है, इसी का नाम माया है। उसी को प्रकृति कहते हैं। ये शिव हैं। अब यह भी समझ आ रहा होगा कि क्यों यह जो शिव नाम है, जो शिव संदेश है, वो इतिहास में इतने पीछे से चला आकर के आज भी प्रासंगिक है। वजह समझिए। एक बार को जरा धार्मिक स्त्रोतों को एक तरफ़ रख दें, तो हमें इतिहासविद् बताते हैं कि शिव का पूजन तो आर्यों से भी बहुत पहले से हो रहा था।

बहुत पुराने हैं शिव। बाकी जितने देवी-देवता को आप जानते हैं, उन सबसे पुराने हैं शिव। कभी पशुपति नाम से सामने आते हैं, कभी रूद्र नाम से सामने आते हैं। और शिव की जो अवधारणा है, वो काल के प्रवाह में बदलती भी रही है। बदलती रही है, लेकिन बनी रही है — यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि बदलती रही। शिव आत्मा हैं, और आत्मा ही वैदिक सत्य है। और आत्मा चूंकि कालातीत होती है, इसलिए शिव भी कालातीत हो गए। आत्मा मिट नहीं सकती, इसीलिए शिव नहीं मिटते। और जब हम आत्मा कह रहे हैं यहां पर तो जो प्रचलित है भूत, प्रेत, पिशाच वाली आत्मा उसकी बात नहीं कर रहे हैं। आत्मा माने कालातीत सत्य। आत्मा माने मन की विशुद्ध अवस्था। उसको आत्मा कहते हैं। आत्मा माने आपकी असली पहचान। उसका नाम आत्मा है। आत्मा माने कोई ऐसी चीज नहीं, जो शरीर के भीतर वास करती है।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्॥५॥


जितनी भी आप कल्पनाएं कर सकते हैं, जितने भी तरह के आपके रिश्ते हो सकते हैं, ठोस वैदिक परिपाटी में आचार्य शंकर सबकी नेति नेति किए दे रहे हैं। माता-पिता को हटा दिया, फिर बन्धु को हटा दिया, फिर मित्र को हटा दिया, फिर गुरु को भी हटा दिया, फिर शिष्य को भी हटा दिया। 

अहं निर्विकल्पो निराकाररूप:
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्ध:
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥६॥


सब नकारने के बाद, नकार में ही एक-दो बातें बता दिए हैं, अपने बारे में, आत्मा के, शिव के बारे में- 'अहं निर्विकल्पो निराकाररूप:।' चेतना की वो स्थिति जिसमें उसके लिए बहुत सारे संकल्प-विकल्प बचते नहीं, उसको शिवत्व कहते हैं। शिव से नहीं सम्बन्ध रखें। अगर मुझसे पूछें, क्या सीखें इस महाशिवरात्रि पर, तो मैं कहूंगा शिवत्व पर ध्यान दें, शिव पर नहीं। क्योंकि जब आप शिव पर ध्यान देने लगते हैं तो आप शिव को एक व्यक्तित्व बना देते हैं।

आप शिव को अपने मानसिक मकड़जाल का एक पात्र बना लेते हैं। यह शिव के प्रति अन्याय है, अपमान है - मत करिए! और शिवत्व का अर्थ होता है- शुद्ध चेतना। आपका प्रयोजन शिवत्व से होना चाहिए। शिव किसी विषय का, व्यक्ति का, वस्तु का नाम-सा प्रतीत होता है, इसीलिए बहुत उपयोगी नहीं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूप:
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।।


जो सर्वत्र है, जो किसी भी इंद्रिय के पकड़ में नहीं आ सकता, लेकिन जिससे सब इंद्रियों का अस्तित्व है, उसको शिव कहते हैं। 'सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्ध:'। जिसके लिए न मुक्ति है, न बंधन है, जिसके लिए प्रकृति बस प्रकृति मात्र है, जो समता में जीता है, जिसके लिए ममत्व नहीं है, ऐसी चेतना को शिवत्व कहते हैं। 'चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्'।

'निराकाररूप:।' अब आप बताइए, आप कौनसा रूप पूजने जा रहे हैं? 'निराकाररूप:' — अरूप हैं और निराकार हैं। ऐसी चेतना जो सब रूपों को भलीभांति समझ लें, वो शिव चेतना है। ऐसी चेतना जो सब आकारों का रहस्य जान ले, वो शिव चेतना है। 

निर्विकल्प होने का अर्थ है — एक ही तो है जो रास्ता चला जा सकता है, और एक ही तो काम है जो करा जा सकता है। एक ही द्वार है जिसमें प्रवेश हो सकता है, बाकी द्वार मुझे दिखाई देते नहीं। बाकी रास्ते भी मुझे दिखाई देते नहीं, तो मैं उनको ठुकराऊं भी कैसे! यह निर्विकल्पता है।

जो किसी एक स्थान से बहुत प्रयोजन न रखे, सर्वव्यापक जिसकी चेतना हो जाए; जो सर्वत्रता से मतलब रखे, स्थानीयता से नहीं। जो किसी एक जगह को विशेष न माने। किसी एक जगह को विशेष मानना, क्या है यह? यह एक स्थानीय चेतना है, लोकली कान्सन्ट्रैटेड कान्शसियस। जो बोल रही है, 'फ़लानी जगह जो है वो बड़ी पवित्र है। और जो फ़लानी जगह जाएगा, वहां से वो बड़े वरदान पाकर के आएगा। फलानी जगह को अभिमंत्रित किया गया है, विशेषकर उसको पवित्र या कान्सिक्रेट किया गया है।' जहां ऐसी बात हो रही हो, समझ लो उस जगह का शिव से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं। जिसकी चेतना अभी ऐसी है जो एक जगह को विशेष समझे, एक दिन को विशेष समझे, समझ लो शिव से बहुत दूर है अभी। शिव से अभी विशेष दूर है।

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आचार्य प्रशांत एक वेदांत मर्मज्ञ, दार्शनिक, समाज सुधारक, स्तंभकार और राष्ट्रीय स्तर पर बेस्टसेलिंग लेखक हैं। 150 से अधिक पुस्तकों के लेखक होने के अलावा, वे यूट्यूब पर 55 मिलियन सब्सक्राइबर्स के साथ दुनिया के सबसे अधिक फॉलो किए जाने वाले आध्यात्मिक शिक्षक भी हैं। वे आईआईटी-दिल्ली और आईआईएम-अहमदाबाद के पूर्व छात्र और एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी हैं।
 

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें blog@auw.co.in पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।

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