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हिमालय दिवस: 'पर्वतराज' पर लगभग सवा करोड़ लोग निर्भर... हिमालय नहीं बचा तो कौन बचेगा?
अवधेश कुमार गुप्त, (उत्तर प्रदेश राज्य गंगा समिति के सदस्य)
Published by: ज्योति भास्कर
Updated Tue, 09 Sep 2025 05:53 AM IST
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हिमालय (फाइल)
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अमर उजाला
विस्तार
पहाड़ पर जल प्रलय से मैदानी इलाकों में हाहाकार है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ़ की विनाशलीला बहुतों ने अपने जीवनकाल में पहली दफा देखी। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में सभी नदियां अपने तटबंध तोड़कर रिहायशी इलाकों में घुस आई हैं। हिमाचल में 5,600 किलोमीटर से ज्यादा सड़कें क्षतिग्रस्त हुई हैं और 1,300 से ज्यादा सड़कें बंद हैं। उत्तराखंड में 2,600 से अधिक सड़कें ध्वस्त हुई हैं। जम्मू-कश्मीर में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की 3,100 से अधिक सड़कें बह गई हैं।
मौसम विज्ञान की भाषा में, 100 मिलीमीटर प्रति घंटाे की बारिश को बादल फटना कहते हैं। हिमालय में बादल फटने के मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन और मानवीय हस्तक्षेप हैं। हिमालय पर पहले भी बारिश होती थी और बादल फटते थे, पर बादल फटने की इतनी ज्यादा घटनाएं और तबाही आम तौर पर नहीं दिखती थी। चाहे 2013 की केदारनाथ आपदा रही हो या फिर बाद की अनेक घटनाएं। इनके पीछे बड़ी वजह पहाड़ों, विशेषकर जल धाराओं के निकट बढ़ती मानवीय गतिविधियां हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में अनियोजित निर्माण, वनों की कटाई और प्राकृतिक जल निकासी मार्गों में अवरोध इन घटनाओं को भयावह बना रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में आपदाओं के लिए पेड़ों की अवैध कटाई को जिम्मेदार ठहराया है।
पहाड़ क्या, धरती का हर कोना वैश्विक जलवायु परिवर्तन, अति मानवीय गतिविधियों व अनियंत्रित विकास से विनाश की ओर बढ़ रहा है। हिमालय दुनिया के प्रमुख जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक व अहम पारिस्थितिकी भंडार है। यहां की वनस्पति और जंतु जगत को न बचाया गया, तो पूरा पारिस्थितिक तंत्र अस्थिर हो जाएगा। एशिया के सवा सौ करोड़ लोग भोजन, पानी व दवाओं के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिमालय पर पर निर्भर हैं। दशकों से विकास के बहाने अविवेकपूर्ण खनन व निर्माण के कारण न सिर्फ आपदाएं बढ़ीं हैं, बल्कि उनसे होने वाला नुकसान भीषण हुआ है। इसका सबसे बड़ा अपराधी चीन है। चीन तिब्बत में सैन्य और बुनियादी ढांचा, सड़कें व बांध बनाकर पारिस्थितिकी को नष्ट कर चुका है। वह ब्रह्मपुत्र नदी पर सबसे बड़ा जलविद्युत बांध बनाने जा रहा है। हिमालय को ड्रैगन के विस्तारवाद की भूख से बचाना होगा। अन्यथा भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
यातायात सुगम होने व जीवन शैली बदलने से पहाड़ों पर पर्यटक तेजी से बढ़ हैं। हिमाचल प्रदेश में 2003 में करीब 55 लाख पर्यटक आए थे, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 2.63 करोड़ हो गया।उत्तराखंड में 2018 में 3.68 करोड़ पर्यटक आए थे, जबकि पिछले साल यह संख्या 5.96 करोड़ हो गई। बढ़ते पर्यटकों की सुविधा और आकर्षण के लिए शहर बढ़ रहे हैं। पेड़ काटे जा रहे हैं। विकास की अंधी दौड़ में पर्यावरण पीछे छूट गया। इसे रोकने के लिए पर्यटन को नियंत्रित करना ही होगा। भूटान जैसे देशों ने इसे कर दिखाया है। उसने पर्यावरण की कीमत पर पर्यटन को बढ़ने नहीं दिया। भूटान ने पर्यावरण संरक्षण के लिए सख्त नीतियां अपनाई हैं। विकास योजनाओं और पर्यटन उद्योग के विकास में पर्यावरण को केंद्र में रखा है। इसलिए वहां अपेक्षाकृत कम नुकसान होता है।
वर्ष 1961 से 2011 तक 50 साल में हिमालय की आबादी 250 फीसदी बढ़ी है। भारतीय हिमालय क्षेत्र में 2011 से 2021 के बीच शहरी विकास की दर 40 फीसदी से अधिक थी। इसका दुष्परिणाम यह है कि हाल के कुछ वर्षों में वन क्षेत्र एक हजार वर्ग किलोमीटर घट गया है। पहाड़ पर वाहनों की धमाचौकड़ी का सीधा असर ग्लेशियर व नदियों पर पड़ रहा है। मंडी और हर्षिल जैसी घटनाएं सिर्फ प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं। ये हमारी तैयारियों की कमी, इन्सानी लालच और जलवायु परिवर्तन की अनदेखी के गंभीर परिणामों की दुखद तस्वीरें हैं।
आपदा प्रबंधन प्रणालियों को मजबूत करना बेहद जरूरी है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर सहयोग बढ़ाने की रणनीति पर काम करना होगा। यूरोप के जर्मनी, बेल्जियम, नीदरलैंड, स्पेन और ऑस्ट्रिया में पर्वतीय क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएं बहुत होती हैं, लेकिन वहां नुकसान कम होता है। बादल फटने को रोकना संभव नहीं है, क्योंकि यह एक प्राकृतिक मौसमी घटना है। इन देशों ने आपदा प्रबंधन तंत्र उन्नत बनाया है और आधारभूत ढांचा मजबूत किया है। डेनमार्क ने आधारभूत ढांचे को विकसित करने से पहले रिस्क असेसमेंट किया है, उसके अनुसार विकास योजनाएं बनाई हैं। पार्कों का डिजाइन इस तरह बनाया है कि बाढ़ के पानी को इकट्ठा किया जा सके। सरकार को वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 जैसे कानून और कड़े तथा प्रभावी बनाने चाहिए। प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर सतत विकास की दिशा में कदम बढ़ाना ही समझदारी है। हर व्यक्ति को अपनी भूमिका समझनी होगी। तभी हम इस प्रकार की आपदाओं से होने वाले नुकसान को कम कर सकते हैं और भविष्य को सुरक्षित बना सकते हैं।