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जमीनी स्तर पर पेसा कानून की अनदेखी : ग्रामसभाओं को सशक्त बनाएं, आदिवासी क्षेत्रों में जबरन विस्थापन रोका जाए
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गांव
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विस्तार
हाल में मध्य प्रदेश के राज्यपाल के ‘जनजातीय सेल’ द्वारा ‘पेसा’ कानून के मसौदे को विभिन्न विभागों को भेजकर उनकी सहमति प्राप्त करने की खबर छपी है। केवल वन विभाग ने इस पर कोई स्पष्टता नहीं की और उसी दिन प्रदेश के वनमंत्री द्वारा अपने गृह जिले में तेंदू पत्ता के संग्रहण एवं व्यापार का अधिकार ग्रामसभाओं को देने से इनकार करने की खबर भी छपी है। तो क्या ‘पेसा कानून’ लघु-वनोपजों पर आदिवासियों के अधिकार की अनदेखी करता है?
लघु-वनोपज आदिवासी क्षेत्रों के लिए आय का प्रमुख स्रोत है, जिसको लेकर संविधान संशोधन के उपरांत प्रावधान किए गए हैं। वन क्षेत्रों पर ‘पंचायत उपबंध (अधिसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम–1996’ (पेसा) के अन्तर्गत लघु-वनोपज का स्वामित्व ग्रामसभा को प्रदान करने का प्रावधान है। ‘वन अधिकार कानून–2006’ में ग्रामसभा को वन-प्रबंधन का अधिकार देने का उल्लेख है। संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों के वन प्रबंधन में ग्रामसभा का अधिकार सुनिचित करने के लिए ‘भारतीय वन कानून – 1927’ में आवश्यक संशोधन के लिए केंद्र सरकार का ध्यान आकृष्ट करवाया गया है।
वन विभाग द्वारा वन प्रबंधन ‘भारतीय वन कानून–1927’ के अनुसार किया जाता है, जो कि वन को केवल राजस्व प्राप्ति का साधन मानता है। ‘पेसा कानून’ के मसौदे में भूमि अधिग्रहण के पूर्व ‘परामर्श’ का उल्लेख किया गया है, जबकि ‘परामर्श’ की जगह ‘सहमति’ और उनके द्वारा पारित प्रस्ताव को बाध्यकारी बनाया जाना चाहिए, ताकि आदिवासी क्षेत्रों में जबरन विस्थापन रोका जा सके। आदिवासी क्षेत्रों में फर्जी ग्रामसभा या प्रशासन तंत्र द्वारा दबाव डालकर या प्रलोभन देकर परियोजना के पक्ष में सहमति लेने की अनैतिक कार्रवाइयां सुर्खियां बटोर चुकी हैं।
गांव में शांति बहाली और विवाद निपटाने का अधिकार ग्रामसभा का होगा, परंतु ‘ग्राम न्यायालय कानून’ द्वारा विवाद निपटाने के अधिकारों पर अतिक्रमण किया जा रहा है। ‘पेसा कानून’ के मसौदे में कहा गया है कि यदि कपट पूर्वक जमीन पर कब्जा किया गया है, तो उसे दिलाने का अधिकार ग्रामसभा को होगा। यह अधिकार ‘पेसा कानून’ आने के बाद ‘मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता–1959’ में संशोधन करके दे दिया गया है।
संशोधन के अनुसार, यदि ग्रामसभा अनुसूचित क्षेत्र में यह पाती है कि आदिम जनजाति के किसी सदस्य की भूमि पर कोई गैर-जनजाति का व्यक्ति कब्जा कर रहा है, तो ग्रामसभा ऐसी भूमि का कब्जा दिलाएगी। यदि ग्रामसभा आदिम जनजाति के पीड़ित को कब्जा दिलाने में विफल रहती है, तो वह मामले को उपखंड अधिकारी (एसडीएम) की ओर निर्देशित कर भेजेगी, जो तीन महीनों के अंदर पीड़ित व्यक्ति को जमीन का कब्जा दिलाएगा।
शराब की नई दुकान खोलनी है या पुरानी दुकान का स्थान परिवर्तन किया जाता है, तो मंजूरी ग्रामसभा देगी। इसी प्रकार ‘पेसा कानून’ के अनुरूप ‘मध्य प्रदेश साहूकार अधिनियम–1934’ में व्यापक बदलाव किया गया है, परंतु जिला-स्तर के अधिकारी / कर्मचारी इनको लागू करने पर ध्यान नहीं देते। गौरतलब है कि ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग’ की 14वीं रिपोर्ट (2018-19) में दिए गए सुझाव और अवलोकन पर कार्रवाई करते हुए भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा 29 अप्रैल, 2022 को राज्यपाल के सभी प्रमुख सचिवों व सचिवों को पत्र लिखकर दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं।
उसमें लिखा गया है कि राज्यपाल को ‘पांचवीं अनुसूची’ के क्षेत्रों में लागू होने वाले कानून, विनियमन, अधिसूचना का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना चाहिए। उन्हें यह अधिकार संविधान से मिला हुआ है। क्या वाकई राज्यपाल इस शक्ति का इस्तेमाल करते हैं? संविधान के अनुच्छेद-244 में व्यवस्था है कि किसी भी कानून को ‘पांचवीं अनुसूची’ वाले क्षेत्रों में लागू करने के पूर्व राज्यपाल उसे ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ को भेजकर अनुसूचित जनजातियों पर उसके दुष्प्रभाव का आकलन करवाएंगे और तदनुसार कानून में फेरबदल के बाद उसे लागू किया जाएगा। आमतौर पर इस सांविधानिक व्यवस्था की अनदेखी ही की जाती है। (सप्रेस)