Amar Singh Chamkila Review: मर्मगाथा उस ‘बच्चे’ की जो बड़ा होकर बच्चन से आगे निकल गया, समझिए क्या है इम्तियाज!
दुबई वाले ‘मामाजी’ के रूप में मशहूर सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर हरीश मिश्रा का एक जुमला बहुत हिट रहा है, ‘ये बड़ा होकर अमिताभ बच्चन बनेगा!’ अब कहावत बन चुके इस जुमले को मैंने हकीकत में बदलते देखा फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ में। ये कहानी उस दौर की है जब अमिताभ बच्चन नाम का कलाकार हिंदी सिनेमा के आसमान पर छा चुका था। देश विदेश में उसके शोज हो रहे थे। कनाडा में उसका शो हाउसफुल हुआ तो आयोजकों को हॉल में 137 कुर्सियां अलग से लगानी पड़ीं। और, उसी हफ्ते अमर सिंह चमकीला का जब उसी हॉल में उन्हीं आयोजकों की मार्फत शो हुआ तो जानते हैं कितनी कुर्सियां अलग से लगानी पड़ी थीं, 1024, जी हां, एक हजार चौबीस। अमर सिंह चमकीला ने अमिताभ बच्चन से लोकप्रियता में बड़ा होकर दिखाया था। और, फिर एक दिन गोलियां चली। अमरजीत मर गया। उसकी दूसरी बीवी अमरजोत भी मर गई। लेकिन, उसका नाम अब तक जिंदा है। और, आगे भी जिंदा ही रहेगा। कलाकार मरते नहीं हैं। मारने वालों का कोई जिक्र तक नहीं करता।
फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ शिद्दत से सिनेमा बनाने वाले एक कलाकार की शिद्दत से गाने बनाने वाले एक कलाकार को दिल से दी गई श्रद्धांजलि है। उस कलाकार को जिसका असली नाम धनीराम था। अमर सिंह के नाम से उसने जुराबें बनाने वाली फैक्ट्री में नौकरी की। उस जमाने के मशहूर गायक (सुरिंदर शिंदा) के यहां ऑफिस बॉय की नौकरी की। उनके लिए तमाम हिट गाने लिखे और एक दिन मालिक एक मंचीय कार्यक्रम में देरी से पहुंचा तो आयोजक ने नौकर को मौका दे दिया। मालिक आलसी होते हैं तो नौकरों के भाग्य ऐसे ही जागते हैं। अमर सिंह तो खैर प्रतिभाशाली भी था। वह पंजाबी लोकसंगीत का उस दौर का ‘अनुराग कश्यप’ बना जब भोजपुरी में अच्छी फिल्में भी बन रही थीं और संगीत भी उसका आज जैसा नहीं था। कहानी ये एक ऐसे बच्चे की है जिसके घर में महिलाओं को शारीरिक अंगों की स्थितियों का चित्रण करने की पूरी आजादी थी। कुछ ‘आजादी’ उसने भी हासिल की, महिलाओं को पुरुषों के साथ अलग अलग स्थितियों में देखने की। बच्चा किशोर हो रहा था। शरीर उसका भी मचल रहा था, बस जो कुछ था, वह उसने गानों में उड़ेल दिया। घर की बरातों के दुल्हन लाने के लिए निकलने के बाद नकटौरों में जो कुछ महिलाएं चोरी-छिपे गाती-करती थीं, उस पर अमर सिंह ने अपने संगीत का चमकीला मुलम्मा चढ़ाया और बाजार में हिट हो गया।
ये बात तो सच है कि चमकीला अगर किसी ऊंची जाति का होता तो उस पर न सिर्फ अब तक दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी होतीं बल्कि उस पर फिल्म भी न जाने कब बन गई होती। लेकिन, एक दलित की हत्या की तफ्तीश भी आज तक पूरी नहीं हो सकी। किसी को पता नहीं कि अमर सिंह चमकीला को किसने मार दिया? और क्यों मार दिया? खाड़कुओं ने उसे धमकी दी। उससे वसूली भी की। पुलिस ने उसे धमकी दी। एनकाउंटर का डर भी दिखाया। कनाडा गया तो वहां की संगत ने भी वही किया और उसने वहीं सबके सामने गाड़ी में बैठते ही बीड़ी सुलगा ली। चमकीला को ये लग गया था कि उसकी गायकी के चलते जिन गायकों की दुकान बंद हो चुकी है, या तो वे, या फिर खाड़कू या फिर पुलिस उसे किसी न किसी दिन मार ही देगी। और, जब किसी इंसान के दिल से मरने का खौफ निकल जाए, तो फिर तो उसे बड़े होकर अमिताभ बच्चन बनना ही है। हेयर स्टाइल तो अमर सिंह ने शुरू में ही अमिताभ बच्चन जैसा कर लिया था। विजय वह कनाडा पहुंचकर बना।
निर्देशक इम्तियाज अली ने फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ में खुद को भी पाया है। सिनेमा और प्रोजेक्ट का इम्तियाज भी इम्तियाज को समझ आ गया है। इम्तियाज अली कभी कारोबारी सिनेकार नहीं बन सकते। उन्हें एक निर्देशक ही बने रहना चाहिए। पैसे, कौड़ी और कला का इम्तियाज समझते हुए। वह कलाकार के दर्द को पहचाने वाले फिल्मकार हैं। वह इंसान के भीतर घुटती चीखों को आवाज देने वाले फिल्मकार हैं। फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ इसी इम्तियाज को समझाने वाली फिल्म है। कैसे कोई पत्रकार खुन्नस खाकर कोई नैरेटिव बना दे तो एक कलाकार का करियर ही नहीं जीवन भी खत्म हो सकता है, ये इस फिल्म से समझा जा सकता है। कैसे घरों की दादियां, माताएं, बेटियां और बहनें अपने मन की भावनाएं अकेले में, समूह में और पीढ़ियों का अंतर छोड़कर एक साथ ठुमके लगाकर प्रकट करती रही हैं, ये इस फिल्म से समझा जा सकता है। और, इस फिल्म से ये भी समझा जा सकता है कि खुद से ऊपर समाज, समाज से ऊपर कानून और कानून से ऊपर धर्म का नैरेटिव कितना घातक होता है!
अमर सिंह चमकीला फिल्म के एक दृश्य में जब अपनी जाति बताता है और अपने हुनर का हौसला भी बताता है तो इसे देखते समय रोएं खड़े हो जाते हैं। रोएं खड़े कर देने वाले दृश्य फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ में और भी हैं। जैसे अपना इंटरव्यू लेने वाली महिला पत्रकार से अमर सिंह कहता है, ‘सच और गलत में फर्क करने की हर किसी की औकात नहीं होती’ या फिर जब वह अपनी पत्नी से कहता है, ‘मुरीद ही इन दिनों धमकियां देने आते हैं...!’ ये सारे दृश्य दिलजीत दोसांझ ने अमर सिंह चमकीला बनकर जीये हैं। फिल्म देखते समय एक बार भी नहीं लगता कि परदे पर जो है वह इस दौर का मशहूर गायक दिलजीत दोसांझ है। दिलजीत ने अमर सिंह चमकीला के किरदार में वाकई दिल जीत लिए हैं। ये सच है कि बाल कटाने को लेकर उनकी ट्रोलिंग भी हो रही है। ये भी सच है कि इसी कहानी पर वह पहले एक फिल्म ‘जोड़ी’ कर चुके हैं, लेकिन सच ये भी है कि बायोपिक के घटते आकर्षण के दौर में रिलीज हुई फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ दिलजीत के इस कालजयी अभिनय के कारण ही एक मस्ट वॉच फिल्म है।
फिल्म ‘अमर सिंह चमकीला’ अपने जिन दूसरे कारणों से एक जरूर देखे जाने लायक फिल्म है, वह है इसका संगीत। ‘इश्क मिटाए हाय हाय’ तो आपने अब तक सुन ही लिया होगा। नहीं सुना है तो सीधे फिल्म देखते हुए ही सुनिए। मोहित चौहान, इरशाद कामिल और ए आर रहमान की तिकड़ी का कोई तोड़ नहीं है। ये फिल्म एक तरह से रहमान की हिंदी सिनेमा में वापसी की फिल्म भी है। उनके संगीत में जब जब लोकसंगीत आया है, उन्होंने कमाल किया है। रहमान को पूरब दिल से चाहता है। भागते वो पश्चिम की तरफ रहते हैं। फिल्म का उपसंहार अरिजीत की आवाज में ‘मैंनू विदा करो’ सुनते समय आंखें भर आएं, ये लाजिमी है। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी कमाल है। एडिटिंग और पैकेजिंग और भी अच्छी है। बस पंजाबी गानों के वक्त उनका हिंदी अनुवाद सबटाइटल्स के रूप में नीचे और ड्राइंग की तरह परदे पर लिखकर आना खटकता है। फिल्म पूरी तरह से इम्तियाज, दिलजीत और रहमान की है। इरशाद कामिल अरसे बाद अपनी लय में लौटे हैं। और, इसमें परिणीति, अंजुम बत्रा पूरी टीम ने काबिले तारीफ काम किया है।