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मस्ती 4 Review: कॉमेडी के नाम पर मस्ती नहीं, मुसीबत परोसी गई... फिल्म से बचने के लिए वीजा लेना पड़ेगा
सार
Mastiii 4 Movie Review: रितेश देशमुख, आफताब शिवदासानी और विवेक ओबेरॉय की फिल्म मस्ती 4 सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। फिल्म में इस बार डबल मस्ती और धमाल देखने को मिल रहा है। कैसी है फिल्म, यहां पढ़ें रिव्यू।
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मस्ती 4 फिल्म रिव्यू
- फोटो : अमर उजाला
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Movie Review
मस्ती 4
कलाकार
रितेश देशमुख
,
विवेक ओबेरॉय
,
आफताब शिवदासानी
,
तुषार कपूर
,
अरशद वारसी
,
नर्गिस फाखरी
,
अमर झुनझुनवाला
और
शिखा आहलूवालिया
लेखक
मिलाप जावेरी
और
फारुख धोंदी
निर्देशक
मिलाप जावेरी
निर्माता
अशोक ठकेरिया
,
इंद्र कुमार
,
एकता आर. कपूर
,
शोभा कपूर
,
विवेक ओबेरॉय
,
उमेश के.आर. बंसल
,
अमर झुनझुनवाला
और
शिखा आहलूवालिया
रिलीज
21 नवंबर 2025
रेटिंग
1/5
विस्तार
साल 2004 में आई पहली मस्ती को ऑडियंस ने पसंद किया था। उसकी सफलता के बाद दो और पार्ट बनाए गए – ग्रैंड मस्ती और ग्रेट ग्रैंड मस्ती। अब इसी फ्रैंचाइज़ी का चौथा हिस्सा सामने आया है- मस्ती 4। इस फिल्म को मजेदार वापसी बताया गया था, लेकिन फिल्म शुरू होते ही साफ महसूस होता है कि यहां से ज्यादा उम्मीद करना गलत होगा। शुरुआत से ही कहानी बिखरी हुई लगती है। जो हंसी दिखाने की कोशिश की गई है, वह थकी हुई और पुरानी महसूस होती है। हर सीन इतना ढीला है कि ऑडियंस का ध्यान बार–बार भटक जाता है। कई बार तो लगता है कि फिल्म देखना ही गलती हो गई।
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कहानी
फिल्म की शुरुआत तीन दोस्तों से होती है – मीत (विवेक ओबेरॉय), अमर (रितेश देशमुख) और प्रेम (आफताब शिवदासानी)। तीनों शादीशुदा हैं, लेकिन अपनी शादी से खुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि उनकी जिंदगी अब फीकी और उबाऊ हो चुकी है। इसी बीच उनका दोस्त कामराज (अरशद वारसी) आता है। वह बताता है कि उसकी पत्नी (नरगिस फाखरी) उसे लव वीजा देती है – मतलब चाहे तो वह किसी भी लड़की के साथ एक हफ्ता बिता सकता है। यह सुनकर तीनों दोस्तों को यह बात बहुत अच्छी लगती है और वे भी अपनी-अपनी पत्नियों से यही अनुमति मांगते हैं। कुछ झगड़ों के बाद उनकी पत्नियां मान भी जाती हैं। लेकिन जब ये दोस्त घूमकर लौटते हैं, तो उन्हें बड़ा झटका मिलता है। उनकी पत्नियां भी उनसे लव वीजा मांगती हैं और उन्हें भी मंज़ूरी मिल जाती है। यानी अब पत्नियां छुट्टी पर जाने वाली हैं… और यहीं से असली परेशानी शुरू होती है।
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एक्टिंग
फिल्म में कई जाने–पहचाने कलाकार हैं, लेकिन उनके एक्टिंग में जान नहीं दिखती। रितेश देशमुख, विवेक ओबेराय और आफताब शिवदासानी अपनी भूमिकाओं में तो दिखाई देते हैं, पर उनकी कॉमेडी असर नहीं छोड़ती। डायलॉग बोलते समय जो ऊर्जा चाहिए, वह गायब लगती है। कई बार हंसी लाने की कोशिश होती है, लेकिन ऑडियंस मुस्कुराते भी नहीं।
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तुषार कपूर बिहार पुलिस के अफसर के रूप में नजर आते हैं, मगर न बोली सही लगती है और न एक्टिंग मजबूत लगता है। अरशद वारसी और नर्गिस फाखरी के छोटे रोल आते हैं और बिना असर छोड़े खत्म भी हो जाते हैं। इतने सारे कलाकार होने के बावजूद कोई भी याद नहीं रह जाता – यही फिल्म की सबसे बड़ी कमी है। महिला पात्रों को सिर्फ दिखावे के लिए रखा गया है। अधिकतर समय वे बिकनी पहने हुए दिखाई देती हैं और उनके किरदार में कोई गहराई नहीं है। ऐसा महसूस होता है कि उन्हें केवल कैमरे के लिए इस्तेमाल किया गया है, कहानी के लिए नहीं। वे किसी पात्र के बजाय सिर्फ एक वस्तु की तरह लगती हैं।
डायरेक्शन
मिलाप जावेरी का निर्देशन फिल्म को सबसे कमजोर बना देता है। पूरी फिल्म देखकर यही सवाल उठता है कि इसे बनाने की जरुरत ही क्या थी। कहानी अधूरी लगती है, सीन खिंचे हुए हैं और कॉमेडी की जगह अजीब बातें दिखाई जाती हैं। ऐसा महसूस होता है कि बस पुराने नाम का सहारा लेकर फिल्म बना दी गई, लेकिन उसमें ना समझदारी है ना एंटरटेनमेंट। निर्देशक की पकड़ शुरुआत से ही ढीली दिखाई देती है। फिल्म न दिशा पकड़ती है और न ऑडियंस को जोड़े रखती है। हंसाने की जगह बोर कर देती है। कई जगह लगता है कि अगर इतनी कमजोर फिल्म बननी थी, तो इसे शुरू ही क्यों किया गया।
म्यूजिक
फिल्म के गीत भी निराश करते हैं। इतनी बड़ी फ्रेंचाइज होने के बावजूद म्यूजिक में कोई आकर्षण नहीं है। गाने आते हैं और निकल जाते हैं, पर याद कुछ नहीं रहता। अगर कोई पूछे कि फिल्म में कौन सा गाना अच्छा था, तो जवाब देना मुश्किल हो जाएगा।
देखें या छोड़ दें?
बिल्कुल छोड़ दें। अगर आपके पास ढाई घंटे खाली हैं तो आप सो जाएं, टहल लें या मोबाइल की स्क्रीन साफ कर लें। ‘मस्ती 4’ देखने से कुछ हासिल नहीं होगा। अपने धैर्य की परीक्षा लेनी हो तो सिनेमाघर तक जा सकते हैं।