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Bihar: कांग्रेस-आरजेडी में 'डीएम' सीटों को लेकर मची है खींचतान,क्यों 2020 की गलती दोहराने से बच रहे है राहुल?

डिजिटल ब्यूरो, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: राहुल कुमार Updated Thu, 16 Oct 2025 05:16 PM IST
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सार

महागठबंधन में सीट शेयरिंग अधर में है। कांग्रेस 60 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद पर पकड़ी हुई। जबकि आरजेडी 58 सीटों से ज्यादा देने के मूड में नहीं है। दरअसल, बिहार में कांग्रेस दलित-मुस्लिम (डीएम) समीकरण वाली सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है।

Bihar: Congress-RJD tussle over DM seats, why is Rahul Gandhi avoiding repeating  mistake of 2020?
तेजस्वी यादव और राहुल गांधी - फोटो : अमर उजाला ग्राफिक्स
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विस्तार
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बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण की 121 सीटों के नामांकन में सिर्फ एक दिन का वक्त बचा है, लेकिन अभी तक महागठबंधन में सीट शेयरिंग अधर में है। कांग्रेस 60 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने की जिद पर पकड़ी हुई। जबकि आरजेडी 58 सीटों से ज्यादा देने के मूड में नहीं है। दरअसल, बिहार में कांग्रेस दलित-मुस्लिम (डीएम) समीकरण वाली सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है। इसलिए पार्टी सीमांचल क्षेत्र में ज्यादा सीटों की डिमांड कर रही है। आरजेडी कांग्रेस की इसी मांग को पूरा करने के मूड में नहीं है। क्योंकि आरजेडी जानती है कि अगर आज उसने कांग्रेस को अपनी जमीन पर पैर पसारने का मौका दिया तो फिर भविष्य में उसकी राह कठिन हो जाएगी। इन्हीं समीकरणों को ध्यान में रखते हुए राहुल गांधी ने चुनाव ठीक पहले बिहार में एसआईआर का मुद्दा जोर शोर के साथ उठाया। कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि चुनाव आयोग और केंद्र सरकार मिलकर मतदाता सूचियों से अल्पसंख्यकों और दलितों के नाम हटा रही है। राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा भी इसी मुद्दे पर फोकस रख निकाली गई थी। ताकि मतदाताओं को संदेश जाए कि कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी जो उनके साथ हर वक्त खड़ी रहती है।

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राज्य में चुनाव की एलान से पहले एसआईआर के मुद्दे ने खूब जोर पकड़ा। इससे महागठबंधन में यह संदेश गया कि कांग्रेस अकेले ही चुनावी मैदान में न उतर जाए। इसी बात को बिहार कांग्रेस नेताओं के बयानों ने भी पुख्ता किया था कि, बिहार में कांग्रेस नए रंग-रूप और नए अवतार में नजर आएगी। इसी के बाद से यह कयास लगाए जा रहे थे कि इस बार महागठबंधन में कांग्रेस बराबरी के मूड में नजर आएगी। लेकिन जैसे ही केंद्रीय चुनाव आयोग ने आंकड़े जारी किए और यह स्पष्ट हुआ कि वोटरों के नाम हटाए जाने की प्रक्रिया सामान्य थी, इसके बाद से ही यह मुद्दा ठंडा पड़ गया।
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इसी के बाद आरजेडी ने कांग्रेस पर दबाव की राजनीति करना शुरू कर दी। राहुल की यात्रा के बाद तेजस्वी यादव भी अपनी एक यात्रा लेकर निकल पड़े। तेजस्वी ने अपनी यात्रा के दौरान बिहार की जनता से जुड़े मुद्दे उठाए, युवाओं से जुड़े मुद्दे और बेरोजगारी की बात करते हुए नजर आए। लेकिन एक बार भी उन्होंने कांग्रेस के एसआईआर के मुद्दे को दमदारी से नहीं उठाया। इसी के बाद से कांग्रेस को यह अहसास हो गया कि आरजेडी के साथ उसका परंपरागत वोट बैंक यादव, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग मजबूती के साथ खड़ा हुआ है। जबकि कांग्रेस का प्रभाव केवल चुनिंदा परंपरागत सीटों और सीमांचल पर बचा है। इसी कारण सीट शेयरिंग को लेकर आरजेडी ने सख्त रुख अपनाया हुआ है।

नाम न छापने के अनुरोध पर एक कांग्रेस नेता कहते है कि,कांग्रेस और आरजेडी की जैसी दोस्ती बाहर नजर आती है। असल में तस्वीर बिल्कुल उससे उल्ट है। दोनों दलों के बीच आज भी लड़ाई सीट से ज्यादा सियासी जमीन पर मजबूत करने की है। लेकिन कांग्रेस को भी यह पता है कि जमीन पर उसकी स्थिति बिल्कुल खत्म है। बिहार में पार्टी का संगठन बचा नहीं है। कई सीटों पर कांग्रेस के अकेले चुनाव लड़ने ताकत तक नहीं है। कई सीटों पर उसके पास मजबूत स्थानीय चेहरा या बूथ लेवल नेटवर्क नहीं तक नहीं है। ऐसे में जाहिर है कि उसके पास आरजेडी के शरण में जाने के अलावा और कोई चारा नहीं है। प्रशांत किशोर की पार्टी जनसुराज के बढ़ते प्रभाव के बाद से कांग्रेस के लिए यह चुनाव अस्तित्व का सवाल बन गया है। क्योंकि आरजेडी को आज भी उम्मीद है कि उसका कोर वोटर स्थिर रहेगा, लेकिन कांग्रेस के पास न तो स्पष्ट जातीय आधार है, न ही संगठन है और न ही कोई करिश्माई चेहरा।

क्यों चाहती है कांग्रेस मजबूत सीटें?
2020 के विधानसभा चुनावों की तुलना में इस बार बिहार में आरजेडी के साथ कांग्रेस के अलावा वामदल, वीआईपी पार्टी समेत अन्य छोटे दलों ने भी हाथ मिलाया है। इसका सीधा असर कांग्रेस पर पड़ा है। नए सहयोगियों के आने से आरजेडी के पास विकल्प बढ़ गए, जबकि कांग्रेस के पास मोल भाव की गुंजाइश घट गई है। 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जो 70 सीटें आरजेडी ने दी थीं। इनमें से 45 सीटें एनडीए के मजबूत गढ़ की सीटें थीं, जिन्हें कांग्रेस और आरजेडी लंबे समय से नहीं जीत सकी है। इनमें 23 सीटें ऐसी थीं, जिस पर कांग्रेस के विधायक थे। जबकि आरजेडी ने उन सीटों पर चुनाव लड़ा था, जिस पर एम-वाई समीकरण मजबूत स्थिति में था। इसलिए कांग्रेस इस बार 2020 के चुनाव वाली गलती नहीं दोहराना चाह रही है।

2020 की तुलना में कांग्रेस पसंदीदा सीट और जिताउ सीट की मांग पर अड़ी हुई है। वह अपने मौजूदा सभी 19 विधायकों के लिए सीटें चाहती हैं। इसके अलावा उन सीटों पर भी चुनाव लड़ना चाहती है यहां वह दूसरे स्थान पर रही थी। कांग्रेस की चाह ऐसी सीटों की जहां वह आसानी से चुनाव जीत सके। इसलिए वह आरजेडी की मर्जी के बजाए अपनी पसंद की सीटों की मांग करते हुए दिख रही है। जबकि आरजेडी इस बात पर तैयार नहीं हैं। आरजेडी ने कांग्रेस नेतृत्व से साफ कहा है कि कांग्रेस जिस सीट पर जीती थी और दूसरे नंबर पर थी, उस पर लड़ लेगी, लेकिन उसे पसंद की सीटें पर वह हरदम तैयार नहीं है।

क्योंकि कांग्रेस ऐसी सीटों की मांग कर रही है जहां मुस्लिम-दलित वोट बैंक है। इसका फायदा पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में मिला है। इसलिए कांग्रेस ने मुस्लिम बहुल सीमांचल और दलित बहुल वाले इलाके की सीटों का चयन किया है। कांग्रेस के चार में से तीन सांसद सीमांचल क्षेत्र से हैं। कटिहार से तारिक अनवर, किशनगंज से डॉ. मो. जावेद और पूर्णिया से पप्पू यादव सांसद हैं।

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