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CTA: 'चीन की आक्रामक नीतियों ने खत्म की पारंपरिक भारत–तिब्बत सीमा, संवाद से ही समाधान संभव', सीटीए का बयान
एजेंसी, बंगलूरू।
Published by: निर्मल कांत
Updated Sun, 21 Dec 2025 06:53 AM IST
सार
CTA: केंद्रीय तिब्बती प्रशासन ने बंगलूरू में तिब्बत के इतिहास, संस्कृति और तिब्बत–चीन संघर्ष पर जनसंपर्क कार्यक्रम आयोजित किए। कार्यक्रम में भारत–तिब्बत संबंध, तिब्बती पठार का रणनीतिक और पारिस्थितिक महत्व, और चीन के कब्जे के प्रभावों पर चर्चा हुई। वक्ताओं ने तिब्बत–चीन विवाद के समाधान के लिए शांतिपूर्ण संवाद और पर्यावरण संरक्षण पर जोर दिया।
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केंद्रीय तिब्बत प्रशासन
- फोटो : एक्स/तेनजिन कुंगा
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विस्तार
केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) के सूचना एवं अंतरराष्ट्रीय संबंध विभाग (डीआईआईआर) ने दक्षिण भारत अभियान के तहत बंगलूरू में तिब्बत जनसंपर्क कार्यक्रमों की एक शृंखला आयोजित की। इसका उद्देश्य तिब्बत के इतिहास, संस्कृति और तिब्बत–चीन संघर्ष के बारे में जागरूकता बढ़ाना था।
डीआईआईआर के अतिरिक्त सचिव और प्रवक्ता तेनजिन लेख्शे ने 'भारत–तिब्बत–चीन संबंध: प्राचीन इतिहास से समकालीन विश्व तक' विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने भारत-तिब्बत के सभ्यतागत संबंधों, तिब्बती पठार के रणनीतिक महत्व और 1950–51 में चीन के तिब्बत पर कब्जे के प्रभावों के बारे में बताया।
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उन्होंने कहा कि चीन की आक्रामक नीतियों ने पारंपरिक भारत–तिब्बत सीमा को खत्म कर दिया और भारत–चीन तनाव बढ़ा। उन्होंने यह भी बताया कि पंचशील जैसे समझौतों में तिब्बत की संप्रभुता को नजरअंदाज किया गया। उन्होंने मध्य मार्ग नीति पर जोर देते हुए कहा कि तिब्बत–चीन विवाद का समाधान केवल शांतिपूर्ण संवाद से ही संभव है।
सीटीए के तिब्बत नीति संस्थान में रिसर्च फेलो धोंदुप वांगमो ने तिब्बती पठार: उसका महत्व और पर्यावरणीय चुनौतियां विषय पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि तिब्बत एशिया के लिए पारिस्थितिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है और 1959 के बाद चीन की खनन, बांध निर्माण और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से भारी पर्यावरणीय नुकसान हुआ है।
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वांगमो ने कहा कि इन गतिविधियों से नदियों का प्रवाह बिगड़ा, बाढ़ और भूस्खलन बढ़े, जैव विविधता को नुकसान पहुंचा और तिब्बती समुदायों को विस्थापन झेलना पड़ा। उन्होंने इसे चीनी कब्जे और शोषण का परिणाम बताया।
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उन्होंने कहा कि चीन की आक्रामक नीतियों ने पारंपरिक भारत–तिब्बत सीमा को खत्म कर दिया और भारत–चीन तनाव बढ़ा। उन्होंने यह भी बताया कि पंचशील जैसे समझौतों में तिब्बत की संप्रभुता को नजरअंदाज किया गया। उन्होंने मध्य मार्ग नीति पर जोर देते हुए कहा कि तिब्बत–चीन विवाद का समाधान केवल शांतिपूर्ण संवाद से ही संभव है।
सीटीए के तिब्बत नीति संस्थान में रिसर्च फेलो धोंदुप वांगमो ने तिब्बती पठार: उसका महत्व और पर्यावरणीय चुनौतियां विषय पर अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि तिब्बत एशिया के लिए पारिस्थितिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है और 1959 के बाद चीन की खनन, बांध निर्माण और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं से भारी पर्यावरणीय नुकसान हुआ है।
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वांगमो ने कहा कि इन गतिविधियों से नदियों का प्रवाह बिगड़ा, बाढ़ और भूस्खलन बढ़े, जैव विविधता को नुकसान पहुंचा और तिब्बती समुदायों को विस्थापन झेलना पड़ा। उन्होंने इसे चीनी कब्जे और शोषण का परिणाम बताया।
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