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Anand Mohan: बिहार में कितने ताकतवर हैं आनंद मोहन, उनकी रिहाई पर क्यों छिड़ा है संग्राम? जानें सियासी मायने

स्पेशल डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली Published by: हिमांशु मिश्रा Updated Thu, 27 Apr 2023 06:10 PM IST
सार
सवाल यह है कि आखिर आनंद मोहन की रिहाई पर संग्राम क्यों छिड़ा है? बिहार में आनंद मोहन कितने ताकतवर हैं? बिहार सरकार ने अचानक  कानून में बदलाव क्यों किया? आइए जानते हैं... 
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How powerful is Anand Mohan in Bihar, why is there a struggle for his release? Learn political meaning
आनंद मोहन - फोटो : अमर उजाला

विस्तार
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पूर्व सांसद और बाहुबली नेता आनंद मोहन रिहा हो गए हैं। इसको लेकर सियासत गर्म है। आनंद मोहन की रिहाई के विरोध में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) से लेकर आईएएस एसोसिएशन तक उतर आए हैं। बसपा ने इसे नीतीश सरकार का दलित विरोधी कदम बताया है। 




वहीं, भाजपा में इसे लेकर दो मत दिखाई दे रहे हैं। भाजपा के कुछ नेता रिहाई का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी ओर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जैसे नेता इसके समर्थन में हैं। सवाल यह है कि आखिर आनंद मोहन की रिहाई पर संग्राम क्यों छिड़ा है? बिहार में आनंद मोहन कितने ताकतवर हैं? बिहार सरकार ने अचानक  कानून में बदलाव क्यों किया? आइए जानते हैं... 
 

अभी क्यों चर्चा में आए आनंद मोहन? 
बात पांच दिसंबर 1994 की है। तब बिहार के गोपालगंज में जी कृष्णैया जिलाधिकारी हुआ करते थे। कृष्णैया युवा आईएएस अधिकारी थे और तेलंगाना के महबूबनगर से थे। कृष्णैया दलित थे। वह पटना से एक बैठक करके वापस गोपालगंज लौट रहे थे। इसी वक्त माफिया कौशलेंद्र शुक्ला उर्फ छोटन शुक्ला की शव यात्रा में उनकी कार फंस गई। छोटन की शव यात्रा में हजारों की भीड़ उमड़ी थी। 

 कौशलेंद्र की एक दिन पहले हत्या हो गई थी। उन दिनों राज्य में अगड़ा-पिछड़ा संघर्ष चल रहा था। एक तरफ लालू यादव थे तो दूसरी ओर आनंद मोहन थे। कौशलेंद्र शुक्ला आनंद मोहन का करीबी बताया जाता था। 

बताया जाता है कि उसके अंतिम संस्कार में अचानक भीड़ आगबबूला हो गई। भीड़ ने तत्कालीन डीएम कृष्णैया पर हमला कर दिया और पीट-पीटकर उनकी हत्या कर दी। भीड़ को उकसाने का आरोप आनंद मोहन पर लगा। 

2007 में एक अदालत ने मोहन को मौत की सजा सुनाई थी। हालांकि, एक साल बाद निचली अदालत के फैसले के खिलाफ अपील करने पर पटना उच्च न्यायालय द्वारा मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था। पिछले 15 साल से वह बिहार की सहरसा जेल में सजा काट रहे हैं। 

अब बिहार सरकार ने जेल नियमों में संशोधन कर दिया है। इस संशोधन के चलते आनंद मोहन रिहा हो गए हैं, इसी का विपक्ष के नेता विरोध कर रहे हैं। 


 

बिहार की सियासत में आनंद मोहन कितने ताकतवर? 
आनंद मोहन बिहार में सवर्णों के बड़े नेता माने जाते हैं। खासतौर पर राजपूत वर्ग में उनकी काफी अधिक लोकप्रियता है। बिहार में राजपूत वोटर्स की आबादी छह से सात प्रतिशत है। सूबे में 30 से 35 विधानसभा सीटों और छह से सात लोकसभा सीटों पर राजपूत वोटर्स निर्णायक स्थिति में हैं।

 2019 लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पांच राजपूत चेहरों को टिकट दिया था और सभी ने जीत हासिल की थी। 2020 विधानसभा चुनाव की बात करें तो इस दौरान कुल 28 राजपूत विधायक चुने गए थे। इनमें से 15 भाजपा, दो जदयू और सात राजद से थे। कांग्रेस से एक और वीआईपी के टिकट पर दो राजपूत विधायक चुने गए थे। एक निर्दलीय राजपूत प्रत्याशी ने भी जीत हासिल की थी। 
 

आनंद मोहन की रिहाई पर राजनीति क्यों हो रही है?
वरिष्ठ पत्रकार मोहन झा कहते हैं, 'बिहार में जब से जातिगत जनगणना शुरू हुई है, तब से जदयू और राजद सवर्ण जातियों के निशाने पर हैं। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को ये मालूम है कि अगर ये नाराजगी अगले साल यानी लोकसभा और फिर विधानसभा चुनाव तक जारी रहती है तो इसका नुकसान हो सकता है। यही कारण है कि नीतीश सरकार ने जेल नियम में बदलाव किया। कहा जाता है कि यह बदलाव तेजस्वी यादव के दबाव में किया गया है। इस फैसले से सवर्ण वोटर्स की नाराजगी कम करने की कोशिश हुई है।'

मोहन आगे कहते हैं, 'बिहार में करीब 20 फीसदी सवर्ण वोटर्स हैं। कई विधानसभा सीटों पर इनकी संख्या काफी अधिक है। ऐसे में आनंद मोहन के सहारे सारे राजनीतिक दल इन वोटर्स को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। आनंद मोहन के बेटे पहले से ही राजद के विधायक हैं।'
 

बिहार की राजनीति में कितना बड़ा नाम हैं आनंद मोहन? 
आनंद मोहन बिहार के सहरसा जिले के पचगछिया गांव से आते हैं। उनके दादा राम बहादुर सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी थे। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के दौरान आनंद मोहन की राजनीति में एंट्री हुई थी। उस वक्त वह महज 17 साल के थे।

 राजनीति में कदम रखने के बाद आनंद मोहन ने कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी थी। इमरजेंसी के दौरान पहली बार दो साल जेल में रहे। आनंद मोहन का नाम उन नेताओं में शामिल है जिनकी बिहार की राजनीति में 1990 के दशक में तूती बोला करती थी।

जेपी आंदोलन के जरिए ही आनंद मोहन बिहार की सियासत में आए और 1990 में सहरसा जिले की महिषी सीट से जनता दल के टिकट पर चुनाव जीते। तब बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव थे।   1993 में उन्होंने बिहार पीपल्स पार्टी बना ली। आनंद मोहन उन दिनों लालू यादव के सबसे बड़े विरोधी थे। 

उस दौर में बिहार में जाति की लड़ाई चरम पर थी। अपनी-अपनी जातियों के लिए राजनेता भी खुलकर बोलते दिखते थे। उसी दौर में आनंद मोहन लालू के घोर विरोधी के रूप में उभरे। तब आनंद मोहन पर हत्या, लूट, अपहरण, फिरौती, दबंगई समेत दर्जनों मामले दर्ज हुए। 

 अगड़ी जातियों में उनकी धमक का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 में जेल में रहते हुए ही आनंद मोहन ने शिवहर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 1998 में आनंद मोहन शिवहर लोकसभा क्षेत्र से दोबारा सांसद चुने गए थे।
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