शिवसेना से दोस्ती पर क्यों मजबूर हुई भाजपा, क्या खोया-क्या पाया?
- अमित शाह और उद्धव ठाकरे ने मिलकर चुनाव लड़ने का एलान किया
- नए फॉर्मूले के तहत भाजपा 25 सीटों और शिवसेना 23 सीटों पर चुनाव लड़ेगी
- अगले विधानसभा चुनाव में दोनों पार्टियां बराबर सीटों पर लड़ेंगी
- महाराष्ट्र में 48 सीटें, चुनाव के मद्देनजर भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण राज्य
विस्तार
करीब साल भर की तनातनी के बाद भाजपा और शिवसेना ने साथ आने का फैसला कर लिया। लोकसभा चुनाव से ऐन पहले अमित शाह और उद्धव ठाकरे ने मिलकर चुनाव लड़ने का एलान कर विपक्ष को मायूस कर दिया। नए फॉर्मूले के तहत भाजपा 25 सीटों और शिवसेना 23 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। महाराष्ट्र में कुल 48 सीटें हैं और इस लिहाज से ये राज्य 2019 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। यूपी जैसे बड़े राज्य में अगर नुकसान होता है तो उसकी थोड़ी बहुत भरपाई यहां से की जा सकती है।
कल तक शिवसेना पर पलटवार करने में देर नहीं लगाने वाली भाजपा के तेवर बदल कैसे गए? क्या मौजूदा सियासी समीकरणों ने भाजपा को झुकने पर मजबूर कर दिया? इसे यूं समझने की कोशिश करते हैं। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के गठबंधन ने भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल कर दी है। 2014 में भाजपा ने यहां 72 सीटों पर कब्जा जमाया था और केंद्र में अपने दम पर सरकार बनाने में सफलता हासिल की थी। लेकिन इस बार हालात अलग हैं। मायावती-अखिलेश की दोस्ती ने भाजपा के सामने सबसे बड़ा रोड़ा खड़ा कर दिया है। दोनों की दोस्ती का असर भाजपा गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में देख चुकी है। भाजपा ने तीनों उपचुनाव में ये तीन बड़ी सीटें गंवाई।
2014 में खुद नरेंद्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ा और संदेश देने की कोशिश की कि ये प्रदेश भाजपा के लिए कितना महत्वपूर्ण है। मोदी लहर ने भाजपा को बंपर सीटें दिलाईं। लेकिन वक्त गुजरने के साथ भाजपा के सामने दिक्कतें खड़ी हो गईं। एनडीए के कई साथी भाजपा से दूर होते चले गए। आंध्र प्रदेश के सीएम और टीडीपी के सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू ने एनडीए छोड़कर भाजपा को तगड़ा झटका दिया। वह विपक्षी एकता की धुरी भी बनते दिखाई देते हैं। इस बीच कई छोटे दलों ने भी भाजपा को आंखे तरेरनी शुरू कर दी।
लेकिन असल दिक्कत तब शुरू हुई जब उसके सबसे पुराने दोस्त शिवसेना ने भी खुलकर नाराजगी जाहिर करनी शुरू कर दी। लेकिन भाजपा बेफिक्र नजर आई। वह सफलता के रथ पर सवार थी। लेकिन तीन राज्यों मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में करारी हार ने भाजपा को बैकफुट पर धकेल दिया। उपर से महागठबंधन की सुगबुगाहट ने भी उसे अलर्ट कर दिया। बात चाहे ममता की कोलकाता रैली हो या दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की रैली, तकरीबन समूचे विपक्ष ने इसमें शिरकत की। कुछ मौकों पर शिवसेना भी विपक्षी दलों के साथ सुर में सुर मिलाती नजर आई।
कितने सहज थे उद्धव?
सोमवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस में अमित शाह के साथ मौजूद उद्धव ठाकरे बहुत सहज नहीं दिख रहे थे। उनका चेहरा पुराने दर्द को बयां कर रहा था। उन्होंने ज्यादा कुछ कहा भी नहीं। पुलवामा हमले का प्रमुखता से जिक्र किया। हालांकि लगता है कि वह अपनी बातें मनवाने में कामयाब रहे। शिवसेना को लोकसभा में 23 सीटें मिली हैं, 2014 में 22 मिली थीं। विधानसभा में दोनों बराबर सीटों पर लड़ेंगी। पिछला विधानसभा चुनाव दोनों ने अलग अलग लड़ा था। लड़ाई और मनमुटाव की वजह सीटों का बंटवारा ही था। तब भाजपा ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं थी, आज आधी सीटों पर राजी हो गई है। यह बताता है कि मौजूदा हालात के मद्देनजर भाजपा को झुकना पड़ा है। शायद वह समझ गई कि अगर मजबूत विपक्ष से लोहा लेना है तो अपना घर मजबूत करना ही होगा।
क्या खोया-क्या पाया
नए समझौते के तहत भाजपा और शिवसेना अगला विधानसभा चुनाव बराबर सीटों पर लड़ेंगी। बहुमत मिलने पर दोबारा रिश्ते की परीक्षा हो सकती है। जिसकी ज्यादा सीटों होंगी सीएम पद पर उसका दावा मजबूत होगा। लेकिन कम सीटें मिलने पर भी शिवसेना का रुख बदल सकता है। भाजपा को फिर नए संग्राम से गुजरना पड़ सकता है। बात फायदे की करें तो लोकसभा चुनाव में इसका लाभ मिलना तय है। दोनों पार्टियां मिलकर बड़े वोट शेयर पर कब्जा कर सकती हैं। जाहिर तौर पर इससे सीटों में इजाफा होगा। शिवसेना, भाजपा की 30 साल पुरानी दोस्त है और ये दोस्ती हमेशा फायदेमंद ही साबित होती रही है।
क्या है संदेश
बहरहाल, लोकसभा चुनाव की सरगर्मियों के बीच भाजपा-शिवसेना के बीच दोबारा हुई दोस्ती महाराष्ट्र में बाकी दलों का खेल बिगाड़ सकती है। महाराष्ट्र में अगर दोनों दल मिलकर चुनाव लड़ें तो कांग्रेस और अन्य दलों के लिए लड़ाई मुश्किल हो जाएगी। हालिया उपचुनाव में शिवसेना ने अलग चुनाव लड़ा था। भाजपा को नुकसान भी उठाना पड़ा था। शिवसेना आए दिन सामना के जरिए भाजपा और नरेंद्र मोदी को निशाना बना रही थी। इसे देखते हुए लोकसभा चुनाव में शिवसेना के विपक्षी खेमे में जाने के कयास लग रहे थे। लेकिन चुनाव से ऐन पहले बाजी पलट चुकी है। दो पुराने दोस्तों की दुश्मनी खत्म होने से विपक्षी दलों को मायूसी हाथ लगी है।