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अकेलापन खामोश महामारी, हर घंटे 100 मौतें: युवाओं पर अधिक असर, सोशल मीडिया की दोस्ती भी बेअसर; मोबाइल भी खतरनाक
अमर उजाला नेटवर्क
Published by: शुभम कुमार
Updated Thu, 03 Jul 2025 07:47 AM IST
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सार
मोबाइल, वीडियो कॉल और ऑनलाइन दुनिया ने भले ही लोगों को जोड़ने के साधन दिए हों, लेकिन भावनात्मक गहराई कहीं खोती जा रही है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि हर छठा व्यक्ति खुद को अकेला महसूस करता है। यह अकेलापन अब सिर्फ भाव नहीं, मौत की बड़ी वजह बन चुका है, हर साल 8.7 लाख लोग इसकी भेंट चढ़ रहे हैं। युवाओं और बुजुर्गों में इसका असर सबसे ज्यादा है। यह संकट मानसिक स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा, रोजगार और अर्थव्यवस्था तक को प्रभावित कर रहा है। साफ शब्दों में कहा जाए तो आभासी जुड़ाव के इस युग में सच्चा साथ कहीं पीछे छूटता जा रहा है।

अकेलापन
- फोटो : freepik

विस्तार
आज के दौर में तकनीकी साधनों के माध्यम से लोगों से जुड़ाव पहले से कहीं ज्यादा आसान हो गया है। मोबाइल फोन, वीडियो कॉल, ऑनलाइन संदेश और वर्चुअल बैठकें अब आम हो गई हैं, लेकिन इन सबके बावजूद एक सच्चाई और भी गहरी होती जा रही है, वह है अकेलापन।
दुनिया में हर छठा व्यक्ति खुद को सामाजिक रूप से अकेला महसूस कर रहा है। यह अकेलापन केवल मानसिक पीड़ा नहीं है, बल्कि यह हर वर्ष आठ लाख सत्तर हजार से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है, यानी हर घंटे सौ से अधिक लोगों की मृत्यु इसके कारण हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सोशल कनेक्शन कमीशन की रिपोर्ट में इस संकट को उजागर किया गया है।
इसके अनुसार देखा जाए तो आभासी दुनिया ने इंसानों को आपस में जोड़ने के अभूतपूर्व साधन तो दिए हैं, लेकिन इसी चमक-धमक के भीतर एक सच्चाई भी छिपी है। यह जुड़ाव अक्सर सतही होता है और भावनात्मक गहराई से रहित। रिपोर्ट के सह-अध्यक्ष डॉ. विवेक मूर्ति का कहना है कि यह अकेलापन न केवल लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है बल्कि शिक्षा, रोजगार और अर्थव्यवस्था पर भी गहरा असर डाल रहा है।
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युवा हो रहे ज्यादा प्रभावित
रिपोर्ट के अनुसार अकेलापन और सामाजिक अलगाव की परिभाषा में फर्क है। अकेलापन वह पीड़ा है जो तब महसूस होती है जब किसी व्यक्ति को अपेक्षित सामाजिक जुड़ाव नहीं मिलता, जबकि सामाजिक अलगाव तब होता है जब व्यक्ति के पास संबंधों का ही अभाव होता है। यह समस्या समाज के हर वर्ग को प्रभावित कर रही है, लेकिन युवाओं, बुजुर्गों और गरीब देशों में रहने वाले लोगों में इसका प्रभाव सबसे अधिक देखा जा रहा है।
मोबाइल पर अधिक समय बिताना भी खतरनाक
रिपोर्ट के अनुसार इस समस्या के अनेक कारण हैं। स्वास्थ्य की स्थिति, कम आय, कम शिक्षा, अकेले रहना, कमजोर सामुदायिक ढांचा, उपेक्षित सरकारी नीतियां, और बढ़ती डिजिटल निर्भरता। खास तौर पर युवाओं में अत्यधिक मोबाइल और स्क्रीन समय और नकारात्मक ऑनलाइन व्यवहार मानसिक तनाव को और बढ़ा रहे हैं। जबकि सामाजिक जुड़ाव जीवन को लंबा, स्वस्थ और खुशहाल बनाता है। वहीं अकेलापन स्ट्रोक, हृदय रोग, मधुमेह, स्मृति की समस्या और समय से पहले मृत्यु का खतरा बढ़ा देता है।
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सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं मिलता सहारा
सोशल मीडिया पर हजारों दोस्त, चैट लिस्ट में ढेरों नाम और हर पल मिलने वाले संदेश, असल जिंदगी के उस सन्नाटे को नहीं भर पाते जो दिल और दिमाग में धीरे-धीरे घर कर जाता है। आभासी रिश्तों में तात्कालिक प्रतिक्रिया तो मिलती है, लेकिन वह अपनापन और सहारा नहीं, जिसकी इंसान को वास्तव में ज़रूरत होती है। यह दुनिया जितनी आकर्षक दिखती है, उतनी ही एकाकी और कृत्रिम भी हो सकती है, जहां मुस्कानें इमोजी बन जाती हैं और दुख टाइपिंग... के कुछ शब्दों में में खो जाता है, प्रत्यक्ष तौर पर ढांढस बंधाने वाले इक्का दुक्का लोग ही होते हैं।
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इसके अनुसार देखा जाए तो आभासी दुनिया ने इंसानों को आपस में जोड़ने के अभूतपूर्व साधन तो दिए हैं, लेकिन इसी चमक-धमक के भीतर एक सच्चाई भी छिपी है। यह जुड़ाव अक्सर सतही होता है और भावनात्मक गहराई से रहित। रिपोर्ट के सह-अध्यक्ष डॉ. विवेक मूर्ति का कहना है कि यह अकेलापन न केवल लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है बल्कि शिक्षा, रोजगार और अर्थव्यवस्था पर भी गहरा असर डाल रहा है।
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युवा हो रहे ज्यादा प्रभावित
रिपोर्ट के अनुसार अकेलापन और सामाजिक अलगाव की परिभाषा में फर्क है। अकेलापन वह पीड़ा है जो तब महसूस होती है जब किसी व्यक्ति को अपेक्षित सामाजिक जुड़ाव नहीं मिलता, जबकि सामाजिक अलगाव तब होता है जब व्यक्ति के पास संबंधों का ही अभाव होता है। यह समस्या समाज के हर वर्ग को प्रभावित कर रही है, लेकिन युवाओं, बुजुर्गों और गरीब देशों में रहने वाले लोगों में इसका प्रभाव सबसे अधिक देखा जा रहा है।
मोबाइल पर अधिक समय बिताना भी खतरनाक
रिपोर्ट के अनुसार इस समस्या के अनेक कारण हैं। स्वास्थ्य की स्थिति, कम आय, कम शिक्षा, अकेले रहना, कमजोर सामुदायिक ढांचा, उपेक्षित सरकारी नीतियां, और बढ़ती डिजिटल निर्भरता। खास तौर पर युवाओं में अत्यधिक मोबाइल और स्क्रीन समय और नकारात्मक ऑनलाइन व्यवहार मानसिक तनाव को और बढ़ा रहे हैं। जबकि सामाजिक जुड़ाव जीवन को लंबा, स्वस्थ और खुशहाल बनाता है। वहीं अकेलापन स्ट्रोक, हृदय रोग, मधुमेह, स्मृति की समस्या और समय से पहले मृत्यु का खतरा बढ़ा देता है।
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सोशल मीडिया की दोस्ती में नहीं मिलता सहारा
सोशल मीडिया पर हजारों दोस्त, चैट लिस्ट में ढेरों नाम और हर पल मिलने वाले संदेश, असल जिंदगी के उस सन्नाटे को नहीं भर पाते जो दिल और दिमाग में धीरे-धीरे घर कर जाता है। आभासी रिश्तों में तात्कालिक प्रतिक्रिया तो मिलती है, लेकिन वह अपनापन और सहारा नहीं, जिसकी इंसान को वास्तव में ज़रूरत होती है। यह दुनिया जितनी आकर्षक दिखती है, उतनी ही एकाकी और कृत्रिम भी हो सकती है, जहां मुस्कानें इमोजी बन जाती हैं और दुख टाइपिंग... के कुछ शब्दों में में खो जाता है, प्रत्यक्ष तौर पर ढांढस बंधाने वाले इक्का दुक्का लोग ही होते हैं।