कामयाबी: वैज्ञानिकों ने खोजा एक ऐसा आई ड्रॉप, हमेशा के लिए हट जाएगा नजर का चश्मा और बढ़ेगी रौशनी
- विशेषज्ञों ने एक कारगर आई ड्रॉप के बारे में जानकारी दी है। दावा किया जा रहा है कि ये न सिर्फ आपकी दृष्टि को बेहतर बना सकती हैं बल्कि लंबे समय तक आपकी रोशनी को ठीक रखने में भी सहायक है जिससे नजर के चश्मे की जरूरत भी खत्म होती है।

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End Of Reading Glasses?: गड़बड़ लाइफस्टाइल और आहार में पौष्टिकता की कमी ने हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य को प्रभावित किया है, आंखों की सेहत पर भी इसका असर देखा जा रहा है। इसके अलावा मोबाइल-लैपटॉप की स्क्रीन से लगातार चिपके रहना, घंटों तक टीवी देखते रहना, बाहर खेलने की बजाय घर में बैठे रहना और धूप की कमी, ये सभी स्थितियां मिलकर हमारी आंखों को कमजोर बना रही हैं। लिहाजा, जहां पहले 40-45 की उम्र में नजदीक या दूर देखने में परेशानी आती थी, वहीं अब 5 साल से कम उम्र के बच्चों को भी नजर का चश्मा लग रहा है।

पार्क में खेलते बच्चों से लेकर क्लास में बैठे युवाओं तक, हर तीसरे-चौथे इंसान की आंखों पर चश्मा या कॉन्टैक्ट लेंस नजर आ ही जाता है। सवाल ये उठता है कि आखिर आंखों की ये बढ़ती दिक्कतें अचानक इतनी आम क्यों हो गईं? क्या अभी भी कुछ उपाय करके हम इनसे छुटकारा पा सकते हैं? जवाब है- शायद हां, वो भी बहुत जल्द।
वैज्ञानिकों की एक टीम ने ऐसे आई ड्रॉप की खोज कर ली है जिसकी मदद से आपके नजर के चश्मे की जरूरत हमेशा के लिए खत्म होने वाली है।

आंखों की रोशनी बढ़ाने वाला आई ड्रॉप
जिन चश्मों के बिना हमारे लिए रोजमर्रा के काम करना मुश्किल होता है, वही चश्मे जल्द ही बीते दिनों की बात हो सकते हैं।
विशेषज्ञों ने एक ऐसे आई ड्रॉप के बारे में जानकारी दी है, जिसे दिन में कुछ बार प्रयोग में लाना होता है। दावा किया जा रहा है कि ये न सिर्फ आपकी दृष्टि को बेहतर बना सकती है बल्कि लंबे समय तक आपकी रोशनी को ठीक रखने में भी सहायक है जिससे नजर के चश्मे की जरूरत भी खत्म हो सकती है।
यूरोपियन सोसाइटी ऑफ कैटरेक्ट एंड रिफ्रैक्टिव सर्जन्स की 43वीं कांग्रेस में इसके निष्कर्ष को प्रस्तुत किया गया है।

प्रेसबायोपिया वालों के लिए हो सकता है वरदान
उम्र बढ़ने के साथ नजदीक की वस्तुओं को ठीक तरीके से देख पाना और किताबें पढ़ना मुश्किल हो जाता है। यह मुख्यरूप से प्रेसबायोपिया नामक समस्या के कारण होता है। शोधकर्ता यह पता लगाना चाहते थे कि क्या चश्मे या सर्जरी के अलावा कोई और विकल्प उपलब्ध है, जो इसमें मददगार हो सकते हैं?
इसके लिए टीम ने 766 मरीजों को शामिल किया और उन्हें ये आई ड्रॉप दिया गया। कुछ ही महीनों में रोगियों की आंखों की रोशनी में सुधार हुआ और अब वो बिना चश्मे के भी आई टेस्ट के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले बोर्ड की तीन-चार लाइनें आसानी से पढ़ सकते थे।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?
विशेषज्ञों ने बताया कि इस आईड्रॉप में पिलोकार्पिन का इस्तेमाल किया गया है। दवा का ये फॉर्मूला पुतलियों और सिलिअरी मांसपेशी को सिकोड़ती है, जो अलग-अलग दूरी पर वस्तुओं को देखने की आंखों की क्षमता को नियंत्रित करती है। इसके अलावा इसमें डाइक्लोफेनाक का भी इस्तेमाल किया गया है, जो पिलोकार्पिन के कारण होने वाली सूजन और असुविधा को कम करती है।
मरीजों को दिन में दो बार ये आई ड्रॉप्स दी गई। शोधकर्ताओं ने ड्रॉप्स के पहले इस्तेमाल के एक घंटे बाद मरीज बिना चश्मे के कितनी अच्छी तरह पढ़ा सकते थे, इसका आकलन किया।
अर्जेंटीना में प्रेसबायोपिया रोग के अनुसंधान केंद्र की निदेशक डॉ. जियोवाना बेनोजा कहती हैं, नजर के चश्मे या सर्जरी जैसे मौजूदा समाधानों की सीमाएं हैं, जिनमें असुविधा और संभावित जोखिम-जटिलताएं होती हैं। ये आई ड्रॉप नई उम्मीदें दे रही है। पहली ड्रॉप्स लेने के एक घंटे बाद, मरीजों में औसतन 3.45 जैगर लाइनों का सुधार हुआ। पूरे उपचार से मरीजों में हर दूरी की चीजों को देखने की क्षमता में सुधार हुआ। मरीजों की दृष्टि में सुधार दो साल से अधिक समय तक भी बना रहा, जिससे स्पष्ट होता है कि इस दवा के इस्तेमाल से नजर के चश्मे की जरूरतों को कम करना अब बहुत मुश्किल नहीं रहा है।

बिना सर्जरी-बिना चश्मे के देखना होगा आसान
विशेषज्ञों की टीम ने कहा, महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उपचार का उद्देश्य आंखों की सर्जरी को बिल्कुल कम करना नहीं है, बल्कि उन रोगियों के लिए यह काफी प्रभावी तरीका हो सकता है जिन्हें सुरक्षित, प्रभावी तरीकों की जरूरत होती है और वो चश्मे से छुटकारा पाना चाहते हैं।
अब आंखों के डॉक्टर्स के पास प्रेसबायोपिया की देखभाल के लिए चश्मे और सर्जरी से आगे बढ़कर भी एक कारगर तरीका है। अगर इसके परिणाम सभी आयुवर्ग और अलग-अलग परिस्थितियों के लोगों पर अच्छे रहते हैं तो ये नजर के चश्मे से मुक्ति पाने की दिशा में एक बेहतरीन कदम हो सकता है।
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स्रोत
Dose-Dependent Efficacy And Safety Of Pilocarpine-Diclofenac Eye Drops For Presbyopia: A Real-World Single-Center Study
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