अमर उजाला से खास बातचीत में यामी ने बताया कि हक उनके लिए सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक एहसास है। एक ऐसी औरत की आवाज, जिसने अपने हक के लिए लड़ने की हिम्मत दिखाई। बातचीत में यामी ने अपने किरदार के सफर, अपने काम के नजरिए और एक मां के रूप में बदली जिंदगी पर खुलकर बात की।
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यामी गौतम
- फोटो : इंस्टाग्राम
हक सुनते ही एक गहराई वाला एहसास होता है। आपके लिए यह फिल्म क्या मायने रखती है?
हक मेरे लिए सिर्फ एक फिल्म नहीं है, यह दिल से जुड़ा हुआ अनुभव है। इसमें दो लोग हैं, जो एक रिश्ते में बंधे हैं, जहां प्यार है, भरोसा है और कहीं न कहीं दर्द भी है। जब हम किसी से नाराज होते हैं या किसी रिश्ते में कोई बात अधूरी रह जाती है, तो सबसे पहले ख्याल आता है कि इतना तो मेरा हक बनता है। यही इस फिल्म की भावना है। जहां रिश्ता होता है, वहां उम्मीद होती है और जहां उम्मीद होती है, वहीं हक होता है। इसलिए मुझे यह टाइटल बहुत सटीक लगा क्योंकि यह अपने आप में पूरी कहानी कह देता है।
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यामी गौतम
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इस किरदार को निभाना कितना मुश्किल था?
यह किरदार निभाना आसान नहीं था। यह सिर्फ एक महिला की नहीं, बल्कि कई महिलाओं की कहानी है। कई बार लगता है कि हम किरदार को निभा रहे हैं, लेकिन धीरे-धीरे वही किरदार हमें बदल देता है। मैंने स्क्रिप्ट कई बार पढ़ी, क्योंकि हर बार उसमें कुछ नया महसूस होता था। कभी कोई खामोशी अलग लगती थी, कभी कोई बात और गहराई से समझ में आती थी।
रात के दो बजे भी अगर कोई ख्याल आता था तो मैं उसे लिख लेती थी या वॉइस नोट बना लेती थी। डायरेक्टर को सुबह मेरे मैसेज मिलते थे और वो मुस्कुराकर कहते थे, 'ये रात में क्या लिखा आपने?' और मैं कहती थी, ‘पता नहीं, बस दिल से निकला।’ यह किरदार उतना ही कोमल है जितना मजबूत। उसने मुझे सिखाया कि हक लेना सिर्फ बोलने से नहीं, बल्कि उसे महसूस करने और समझने से आता है।
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इतनी सच्ची कहानी को पर्दे पर लाना कितना चुनौतीपूर्ण था?
बहुत चुनौतीपूर्ण था। हमने शुरुआत से ही तय किया था कि हक किसी पर आरोप लगाने या किसी को गलत साबित करने की कहानी नहीं होगी। यह एक इंसान की यात्रा है और इसे सम्मान के साथ दिखाना जरूरी था। यह कोई बायोपिक नहीं है, लेकिन यह सच्ची भावनाओं से प्रेरित है। फिल्म में कुछ सच्चाई है, कुछ कल्पना है। हमने दोनों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है ताकि कहानी ईमानदार लगे। हमारी कोशिश थी कि फिल्म का हर पल सच्चा महसूस हो।
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आपने अपने प्रोसेस की बात की कि आपको लिखना और अपने विचार साझा करना पसंद है। क्या यह आदत हाल ही में शुरू हुई या हमेशा से रही है?
यह आदत हमेशा से रही है। शायद ‘विकी डोनर’ के समय से ही। लिखना मेरे लिए सिर्फ एक आदत नहीं है, बल्कि सोच को साफ करने का तरीका है। जब आप लिखते हैं, तो कई बार वो बातें बाहर आ जाती हैं जो शायद आप जुबान से कह नहीं पाते।
बीच-बीच में कुछ फिल्में ऐसी भी थीं जहां दिल से थोड़ी दुविधा थी कि करना चाहिए या नहीं, लेकिन उस समय के हिसाब से जो सही लगा, वही किया। पर जितनी भी फिल्में ऐसी रही हैं जिन्हें लोगों ने पसंद किया या जिन पर मुझे खुद गर्व है ...‘काबिल’, ‘उरी’, ‘बाला’, ‘थर्स डे’, ‘धूमधाम’, ‘लॉस्ट’, ‘आर्टिकल 370’ या अब ‘हक’ उन सब में मेरा यही प्रोसेस रहा है।
मैं स्क्रिप्ट बार-बार पढ़ती हूं, नोट्स बनाती हूं, कभी-कभी अपने विचार डायरेक्टर के साथ साझा करती हूं। अगर रात में भी कोई ख्याल आता है तो उसे तुरंत लिख लेती हूं या रिकॉर्ड कर लेती हूं ताकि वो कहीं खो न जाए। मेरे लिए ये तैयारी का नहीं, बल्कि किरदार के साथ एक रिश्ता बनाने का हिस्सा है।