Satya Rani Chadha : मिलिए सत्य रानी चड्ढा से, एक मां जिसने अपनी बेटी की दहेज हत्या को आंदोलन में बदल दिया
Satya Rani Chadha : 1979 में दिल्ली की एक मां, सत्य रानी चड्ढा ने अपनी 20 वर्षीय गर्भवती बेटी शशि बाला की दर्दनाक मौत को चुपचाप स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने दुख को हथियार बनाया और उस समय जब दहेज को अपराध भी नहीं माना जाता था, उन्होंने एक ऐसा आंदोलन छेड़ा जिसने भारतीय समाज और कानून की तस्वीर बदल दी।

विस्तार
Satya Rani Chadha : हाल में निक्की नाम की एक महिला की आग लगने से मौत हो गई। शुरूआती वीडियो सामने आने के बाद ये आरोप लगे कि पति और सास ने दहेज की लालच में निक्की को जिंदा जलाकर मार डाला, हालांकि अब इस प्रकरण में कई अन्य पहलू सामने आ रहे हैं। मामले की जांच पड़ताल जारी है। लेकिन इस घटना के बाद एक बार फिर दहेज उत्पीड़न के मुद्दे ने आग पकड़ी। सवाल उठा कि इतने सख्त कानून होने के बाद क्या अब भी बेटियां दहेज लोभियों के लालच की बलि चढ़ती हैं? क्या अब भी भारत में बेटी के माता पिता पर अपनी दहेज रूपी अवैध मांगों को लेकर दबाव बनाया जाता है?

हां, बेशक समाज से दहेज नाम का ये काला धब्बा आज तक न हट पाया हो लेकिन अब लोगों में एक डर जरूर है। पर एक दौर वो था, जब दहेज हत्या की परिभाषा ही व्याखित नहीं थी। एक 20 साल की बेटी को शादी के एक साल के अंदर ही दहेज के लालच में मार दिया जाता है लेकिन कोई कानूनी प्रक्रिया न होने के कारण आरोपी पति बच जाता है। हालांकि उस बेटी की मां ईंट से ईंट बजा देती है, अपनी बेटी को इंसाफ दिलाने के लिए। 34 साल तक आंदोलन, कानूनी लड़ाई, सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाने के साथ ही हर ओर दहेज विरोधी कानून की पेरवी करती हैं।
असर होता है, दहेज विरोधी कानून बनता है। लाखों बेटियों को एक सुरक्षित वातावरण मिलता है, वो डर कम होता है, जिसमें दहेज के लिए बेटी जला दी जाती थीं। हालांकि इन सब के बावजूद उस मां और उसकी मृत्य बेटी को न्याय नहीं मिलता। ये कहानी है सत्य रानी चड्ढा की।
भारत में दहेज प्रथा सदियों से स्त्रियों की सबसे बड़ी दुश्मन रही है। यह प्रथा न केवल बेटियों की खुशियों को निगल गई, बल्कि अनगिनत माताओं की गोद भी उजाड़ चुकी है। लेकिन 1979 में दिल्ली की एक मां, सत्य रानी चड्ढा ने अपनी 20 वर्षीय गर्भवती बेटी शशि बाला की दर्दनाक मौत को चुपचाप स्वीकार करने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने दुख को हथियार बनाया और उस समय जब दहेज को अपराध भी नहीं माना जाता था, उन्होंने एक ऐसा आंदोलन छेड़ा जिसने भारतीय समाज और कानून की तस्वीर बदल दी।
दहेज की आग में बेटी की मौत, लेकिन मां ने हार नहीं मानी
1979 में जब शशि बाला को उसके पति और ससुराल वालों ने जिंदा जला दिया, तब समाज और कानून दोनों ने इसे रसोई हादसा करार दिया। शादी को एक साल से कम हुआ था और अपराध सिर्फ इतना था कि दहेज की मांग पूरी नहीं हुई। सत्य रानी का दिल टूटा, लेकिन उन्होंने तय किया कि उनकी बेटी की मौत को व्यर्थ नहीं जाने देंगी।
अदालतों और सड़कों पर 34 साल लंबी जंग
सत्य रानी ने न्यायालय से लेकर सड़कों तक अपनी लड़ाई जारी रखी। वे संसद के बाहर खड़ी हुईं, रैलियाँ निकालीं और दूसरे पीड़ित परिवारों को जोड़ा। उनका केस सुप्रीम कोर्ट तक गया लेकिन उस दौर में दहेज की परिभाषा सीमित थी, इसलिए आरोपी बच निकला। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी।
शाहजहां आपा के साथ मिलकर की ‘शक्ति शालिनी’ की स्थापना
1987 में शाहजहां आपा, जिनकी बेटी भी दहेज हिंसा की शिकार हुई थी, के साथ मिलकर सत्य रानी ने ‘शक्ति शालिनी’ संगठन बनाया। यह संगठन पीड़ित महिलाओं के लिए आश्रय, कानूनी मदद और आत्मनिर्भरता का सहारा बना। इसने हजारों औरतों की जिंदगी बचाई।
उनके संघर्ष से बने कानून
सत्य रानी की निरंतर कोशिशों का नतीजा था कि भारत में पहली बार दहेज हत्या और क्रूरता के खिलाफ कड़े कानून बने। जिसमें शामिल है,
- IPC 498A: पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता
- IPC 304B: दहेज मृत्यु
- साक्ष्य अधिनियम 113A/ 113B - आत्महत्या या दहेज हत्या की स्थिति में जिम्मेदारी साबित करना।
इन कानूनों ने लाखों बेटियों को न्याय और सुरक्षा का सहारा दिया।
अधूरी रही अपनी बेटी की न्याय की लड़ाई
सत्य रानी की बेटी शशि बाला को कभी न्याय नहीं मिला। 34 साल बाद आरोपी दोषी तो ठहराया गया लेकिन गिरफ्तारी से पहले ही गायब हो गया। यह भारतीय न्याय व्यवस्था की विडंबना थी। फिर भी सत्य रानी की जंग ने हजारों परिवारों को हिम्मत दी। आज उनकी विरासत हर उस महिला के लिए शक्ति है, जो अन्याय के खिलाफ खड़ी होती है।
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