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यूक्रेन संकट: दुनिया ने 2000 के बाद कहां-कहां युद्ध की विभीषिका देखी? यूक्रेन के मामले में दो महाशक्तियों की भूमिका कैसे बदल गई?
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सार
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रूस के खार्किव में घुसे रूसी सैनिक
- फोटो :
सोशल मीडिया
विस्तार
दुनिया को जिसकी आशंका थी वह सच साबित हुई। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने आखिरकार गुरुवार को यूक्रेन के खिलाफ एलान-ए-जंग कर दिया है। पुतिन ने कहा है कि अगर यूक्रेन पीछे नहीं हटता है तो जंग होकर रहेगी। उन्होंने यूक्रेनी सेना को धमकी देते हुए कहा कि जल्द से जल्द हथियार डाल दें नहीं तो युद्ध को टाला नहीं जा सकता है। पुतिन ने आगे कहा कि अगर कोई दूसरा देश बीच में आता है तो उसके खिलाफ भी जवाबी कार्रवाई होगी।दुनिया पहले भी कई युद्ध की विभीषिका झेल चुकी है। अब तक अलग-अलग देशों में हुए कई युद्धों से लाखों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। ऐसे में रूस के इस हमले से हजारों लोगों की मौत होने और बड़ी संख्या में लोगों के विस्थापित होने का भय बना हुआ है। रूस के हमले से खाद्य संकट भी पैदा हो सकता है। इससे न केवल अनाज की सप्लाई, बल्कि इसके उत्पादन पर भी असर पड़ेगा, जिससे दुनिया भर में अनाज की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो सकती है। वहीं कच्चे तेल की कीमतों के और बढ़ने की आशंका है।
ऐसा पहली बार नहीं है कि दुनिया को दो देशों के बीच एक बार फिर जंग का माहौल देखना पड़ेगा, जिसकी वजह से मानवीय संकट गहरा होने की आशंका जताई जा रही है। इस रिपोर्ट में इस बात पर नजर डालते हैं कि 2000 के बाद से दुनिया कहां-कहां जंग देख चुकी है और इसका नतीजा क्या रहा?
तालिबान
- फोटो :
पीटीआई
अफगानिस्तान 2001 से 2021
इस युद्ध को 2001 से 2014 तक अमेरिका द्वारा ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम और 2015 से 2021 तक ऑपरेशन फ्रीडम के कोडनाम से जाना गया। हालांकि मुख्य तौर पर इसे अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध कहा जाता है। अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बाहर करने के लिए अक्टूबर, 2001 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था। अमेरिका का आरोप था कि अफगानिस्तान में तालिबान हुकूमत ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा से जुड़े दूसरे आतंकवादी संगठनों को पनाह दे रहा है।
यह युद्ध करीब 20 साल तक चला। 20 साल के युद्ध के बाद, यहां से अमेरिका को लौटना पड़ा और तालिबान ने पिछले साल अगस्त में अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम कर ली है। यह संघर्ष अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध बन गया था। इसमें अमेरिका के करीब 978 अरब डॉलर खर्च हुए और 2,300 से अधिक लोगों की जान चली गई।
इस युद्ध को 2001 से 2014 तक अमेरिका द्वारा ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम और 2015 से 2021 तक ऑपरेशन फ्रीडम के कोडनाम से जाना गया। हालांकि मुख्य तौर पर इसे अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध कहा जाता है। अमेरिका ने तालिबान को सत्ता से बाहर करने के लिए अक्टूबर, 2001 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था। अमेरिका का आरोप था कि अफगानिस्तान में तालिबान हुकूमत ओसामा बिन लादेन और अल-कायदा से जुड़े दूसरे आतंकवादी संगठनों को पनाह दे रहा है।
यह युद्ध करीब 20 साल तक चला। 20 साल के युद्ध के बाद, यहां से अमेरिका को लौटना पड़ा और तालिबान ने पिछले साल अगस्त में अफगानिस्तान में अपनी सत्ता कायम कर ली है। यह संघर्ष अमेरिका का सबसे लंबा युद्ध बन गया था। इसमें अमेरिका के करीब 978 अरब डॉलर खर्च हुए और 2,300 से अधिक लोगों की जान चली गई।
सद्दाम हुसैन
- फोटो :
social Media
इराक युद्ध 2003
2003 में इराक पर अमरीका और सहयोगी देशों ने हमला किया था और सद्दाम हुसैन का शासन खत्म कर दिया था। 20 मार्च 2003 की शाम ढलते ढलते अमेरिका और ब्रिटेन की फौज इराक में घुस गई। यह युद्ध करीब 2010 तक चला। इस युद्ध की बड़ी कीमत इराक के आम लोगों ने चुकाई।
इराक पर अमेरिका की कहानी की नींव 1980 में इराक के ईरान के साथ युद्ध छेड़ने के साथ ही पड़ गई थी। बीसवीं सदी के सबसे लंबे और परंपरागत युद्ध को खाड़ी युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में शुरू में इराक ने बढ़त ली लेकिन बाद में इरान उस पर हावी हो गया। एक अनुमान के अनुसार इस युद्ध में करीब पांच लाख लोगों की जान गई। इस युद्ध में कुवैत ने इराक का समर्थन किया और इराक को बड़ी धनराशि मुहैया कराई। युद्ध जब खत्म हुआ तो इराक कर्ज में डूब चुका था और उसने कुवैत से कर्ज माफी के लिए कहा। जब कुवैत ने ऐसा नहीं किया तो इराक ने कुवैत पर हमला बोल दिया। दो दिनों के भीतर इराक ने पूरे कुवैत पर कब्जा कर लिया। इराक पर हुए इस आक्रमण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी बौखलाया और और संयुक्त राष्ट्र से इजाजत लेकर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया।
सद्दाम की मौत के बाद खाड़ी युद्ध खत्म हुआ
नौ मार्च 2003 से शुरू हुआ यह सिलसिला एक मई 2003 तक चला। 2003 में सद्दाम हुसैन को फांसी में लटकाए जाने के बाद खाड़ी युद्ध समाप्त हुआ। युद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका ने घोषणा किया कि इराकी जनता को सद्दाम हुसैन के तानाशाही शासन से मुक्ति मिल गई है। हालांकि सद्दाम के बाद इराक में अराजकता फैल गई। विभिन्न समूहों के अपसी टकराव के चलते देश में अल-कायदा को अपना नेटवर्क स्थापित करने में सहायता मिली। जिसके बाद देश में अनगिनत हत्याओं और तोड़फोड़ का दौर शुरू हुआ।
पश्चिमी इराक में कट्टरपंथी सुन्नी आतंकवादियों ने वहां के हालात का लाभ उठाते हुए अप्रैल 2013 में इराक इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया ने अपनी कार्रवाई शुरू की। जनवरी 2014 में आईएसआईएस ने इराक के कई इलाकों पर कब्जा कर लिया था। हालांकि अमेरिकी और इराकी सेनाओं ने 2015 तक इराक के अधिकांश इलाकों से आईएसआईएस को खदेड़ दिया है। लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अभी भी संगठन सीरिया के कुछ इलाकों पर काबिज है।
2003 में इराक पर अमरीका और सहयोगी देशों ने हमला किया था और सद्दाम हुसैन का शासन खत्म कर दिया था। 20 मार्च 2003 की शाम ढलते ढलते अमेरिका और ब्रिटेन की फौज इराक में घुस गई। यह युद्ध करीब 2010 तक चला। इस युद्ध की बड़ी कीमत इराक के आम लोगों ने चुकाई।
इराक पर अमेरिका की कहानी की नींव 1980 में इराक के ईरान के साथ युद्ध छेड़ने के साथ ही पड़ गई थी। बीसवीं सदी के सबसे लंबे और परंपरागत युद्ध को खाड़ी युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में शुरू में इराक ने बढ़त ली लेकिन बाद में इरान उस पर हावी हो गया। एक अनुमान के अनुसार इस युद्ध में करीब पांच लाख लोगों की जान गई। इस युद्ध में कुवैत ने इराक का समर्थन किया और इराक को बड़ी धनराशि मुहैया कराई। युद्ध जब खत्म हुआ तो इराक कर्ज में डूब चुका था और उसने कुवैत से कर्ज माफी के लिए कहा। जब कुवैत ने ऐसा नहीं किया तो इराक ने कुवैत पर हमला बोल दिया। दो दिनों के भीतर इराक ने पूरे कुवैत पर कब्जा कर लिया। इराक पर हुए इस आक्रमण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी बौखलाया और और संयुक्त राष्ट्र से इजाजत लेकर अमेरिका ने इराक पर हमला कर दिया।
सद्दाम की मौत के बाद खाड़ी युद्ध खत्म हुआ
नौ मार्च 2003 से शुरू हुआ यह सिलसिला एक मई 2003 तक चला। 2003 में सद्दाम हुसैन को फांसी में लटकाए जाने के बाद खाड़ी युद्ध समाप्त हुआ। युद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका ने घोषणा किया कि इराकी जनता को सद्दाम हुसैन के तानाशाही शासन से मुक्ति मिल गई है। हालांकि सद्दाम के बाद इराक में अराजकता फैल गई। विभिन्न समूहों के अपसी टकराव के चलते देश में अल-कायदा को अपना नेटवर्क स्थापित करने में सहायता मिली। जिसके बाद देश में अनगिनत हत्याओं और तोड़फोड़ का दौर शुरू हुआ।
पश्चिमी इराक में कट्टरपंथी सुन्नी आतंकवादियों ने वहां के हालात का लाभ उठाते हुए अप्रैल 2013 में इराक इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड सीरिया ने अपनी कार्रवाई शुरू की। जनवरी 2014 में आईएसआईएस ने इराक के कई इलाकों पर कब्जा कर लिया था। हालांकि अमेरिकी और इराकी सेनाओं ने 2015 तक इराक के अधिकांश इलाकों से आईएसआईएस को खदेड़ दिया है। लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक अभी भी संगठन सीरिया के कुछ इलाकों पर काबिज है।
लीबिया युद्ध
- फोटो :
Social Media
लिबिया युद्ध 2011
उत्तरी अफ्रीका में बसे कच्चे तेल के बड़े भंडार वाले देश लीबिया की जनता में वहां के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी का शासन पश्चिमी देशों को खटक रहा था, क्योंकि उसने पूरे देश पर सेना के माध्यम से नियंत्रण बना लिया था। सत्ता संभालते ही गद्दाफी ने लीबिया में अमेरिकी और ब्रिटिश सैन्य ठिकानों को बंद करा दिया। दिसंबर 1969 में सेना के कुछ अधिकारियों द्वारा असफल तख्तापलट के प्रयत्नों को देखते हुए उसने अपने राजनैतिक विरोधियों की हत्या करवानी शुरू कर दी। गद्दाफी ने लीबिया को पश्चिमी देशों से दूर करके खुद को मध्य-पूर्व अफ्रीका की ओर आगे बढ़ाया। गद्दाफी की इन हरकतों को देख ब्रिटेन और फ्रांस ने अमेरिका को लीबिया पर हमले के लिए मनाया।
मार्च 2011 में नाटो सेना ने लीबिया पर धावा बोल दिया। इस हमले में सबसे आगे था फ्रांस। उसके पीछे था ब्रिटेन और अमेरिका। पश्चिमी देशों के हमले के पीछे की दो मुख्य वजहें थी। पहला, गद्दाफी को सत्ता से हटाना. दूसरा लीबिया में नई व्यवस्था बनाकर उसे पटरी पर लाना। ताकि लीबिया में भी वैसी अराजकता न फैल जाए जैसी स्थिति इराक में हो गई थी। युद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 2012 में 60 साल बाद लीबिया में चुनाव हुए। हालांकि कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि मुआम्मर गद्दाफी की मौत के बाद परस्पर विरोधी गुटों के बीच हो रही लड़ाई में देश बंटा हुआ है। लीबिया में यह गृह युद्ध अब तक चल रहा है। देश दो टुकडों में बंट गया है। पश्चिम के हिस्से में संयुक्त राष्ट्र के समर्थन से सरकार चल रही है।
उत्तरी अफ्रीका में बसे कच्चे तेल के बड़े भंडार वाले देश लीबिया की जनता में वहां के तानाशाह मुअम्मर गद्दाफी का शासन पश्चिमी देशों को खटक रहा था, क्योंकि उसने पूरे देश पर सेना के माध्यम से नियंत्रण बना लिया था। सत्ता संभालते ही गद्दाफी ने लीबिया में अमेरिकी और ब्रिटिश सैन्य ठिकानों को बंद करा दिया। दिसंबर 1969 में सेना के कुछ अधिकारियों द्वारा असफल तख्तापलट के प्रयत्नों को देखते हुए उसने अपने राजनैतिक विरोधियों की हत्या करवानी शुरू कर दी। गद्दाफी ने लीबिया को पश्चिमी देशों से दूर करके खुद को मध्य-पूर्व अफ्रीका की ओर आगे बढ़ाया। गद्दाफी की इन हरकतों को देख ब्रिटेन और फ्रांस ने अमेरिका को लीबिया पर हमले के लिए मनाया।
मार्च 2011 में नाटो सेना ने लीबिया पर धावा बोल दिया। इस हमले में सबसे आगे था फ्रांस। उसके पीछे था ब्रिटेन और अमेरिका। पश्चिमी देशों के हमले के पीछे की दो मुख्य वजहें थी। पहला, गद्दाफी को सत्ता से हटाना. दूसरा लीबिया में नई व्यवस्था बनाकर उसे पटरी पर लाना। ताकि लीबिया में भी वैसी अराजकता न फैल जाए जैसी स्थिति इराक में हो गई थी। युद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई 2012 में 60 साल बाद लीबिया में चुनाव हुए। हालांकि कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि मुआम्मर गद्दाफी की मौत के बाद परस्पर विरोधी गुटों के बीच हो रही लड़ाई में देश बंटा हुआ है। लीबिया में यह गृह युद्ध अब तक चल रहा है। देश दो टुकडों में बंट गया है। पश्चिम के हिस्से में संयुक्त राष्ट्र के समर्थन से सरकार चल रही है।
सीरिया के अलेप्पो के एक गांव में चिकित्सा केंद्र के बाहर अपने बच्चों के साथ एक महिला (फाइल फोटो)
- फोटो :
UN Hindi News
सीरियाई गृहयुद्ध 2011
सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद के खिलाफ करीब 11 साल पहले शुरू हुई शांतिपूर्ण बगावत पूरी तरह से गृहयुद्ध में तब्दील हो चुकी है। अनुमान है कि इस गृहयुद्ध में पिछले 11 सालों में पांच लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लगभग चार लाख मौतें तो रजिस्टर्ड हैं लेकिन दो लाख से ज्यादा लोगों का कुछ अता-पता नहीं है। सीरियाई नागरिकों के बीच भारी बेरोजगारी, व्यापक भ्रष्टाचार, राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव और राष्ट्रपति बशर अल-असद के दमन के प्रति निराशा को गृहयुद्ध की वजह माना जाता है।
बशर अल-असद 2000 में अपने पिता हाफेज अल असद की जगह सत्ता पर काबिज हुए। इस बीच अरब के कई देशों में सत्ता के खिलाफ बगावत शुरू हो चुकी थी। इसी से प्रेरित होकर यहां के नागरिकों ने बशर अल-असद के तानाशाही रवैए से आजिज होकर लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन शुरू कर दिया। इसका आगाज मार्च 2011 में सीरिया के दक्षिणी शहर दाराआ से हुआ। सरकार को यह असहमति रास नहीं आई और उसने आंदोलन को दबाने के लिए क्रूरता की। वक्त के साथ आंदोलन लगातार तेज होता गया। अब तक विद्रोही हथियार उठा चुके थे और अपने इलाकों से सरकारी सुरक्षाबलों को निकालना शुरू कर दिया था।
सरकार ने विद्रोह को कुचलने की कोशिश की
सरकार ने विद्रोहियों के इस कदम को ‘विदेश समर्थित आतंकवाद' कहा और इसे कुचलने की हर संभव कोशिश की गई। दोनों पक्षों के बीच हिंसा लगातार बढ़ती गई। 2012 आते आते सीरिया पूरी तरह से गृहयुद्ध की चपेट में आ चुका था। सैकड़ों विद्रोही गुटों ने एक समानांतर व्यवस्था स्थापित कर ली ताकि सीरिया पर उनका नियंत्रण कायम हो सके। इस गृहयुद्ध में दूसरे देशों की एंट्री हो गई इसमें ईरान, रूस, सऊदी अरब और अमरीकी का सीधा दखल बढ़ा।
यूके स्थित मॉनिटरिंग ग्रुप सीरियन ऑब्जर्वेटरी फॉर ह्यूमन राइट्स ने दिसंबर 2020 तक 387,118 मौतें दर्ज की थी। इनमें 116,911 सीरिया के नागरिक थे। इस आंकड़े में वो 205,300 लोग शामिल नहीं हैं, जो लापता हैं और मृत समझे जाते हैं। यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2021 तक एक करोड़ से ज्यादा लोगों को सीरिया में किसी न किसी तरह की मानवीय मदद की जरूरत थी। लड़ाई अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। सीरिया के अधिकतर बड़े शहरों पर अब सीरियाई सेना का नियंत्रण है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक देश के बड़े हिस्से अभी भी विद्रोहियों के कब्जे में हैं।
सीरिया में राष्ट्रपति बशर अल-असद के खिलाफ करीब 11 साल पहले शुरू हुई शांतिपूर्ण बगावत पूरी तरह से गृहयुद्ध में तब्दील हो चुकी है। अनुमान है कि इस गृहयुद्ध में पिछले 11 सालों में पांच लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लगभग चार लाख मौतें तो रजिस्टर्ड हैं लेकिन दो लाख से ज्यादा लोगों का कुछ अता-पता नहीं है। सीरियाई नागरिकों के बीच भारी बेरोजगारी, व्यापक भ्रष्टाचार, राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव और राष्ट्रपति बशर अल-असद के दमन के प्रति निराशा को गृहयुद्ध की वजह माना जाता है।
बशर अल-असद 2000 में अपने पिता हाफेज अल असद की जगह सत्ता पर काबिज हुए। इस बीच अरब के कई देशों में सत्ता के खिलाफ बगावत शुरू हो चुकी थी। इसी से प्रेरित होकर यहां के नागरिकों ने बशर अल-असद के तानाशाही रवैए से आजिज होकर लोकतंत्र के समर्थन में आंदोलन शुरू कर दिया। इसका आगाज मार्च 2011 में सीरिया के दक्षिणी शहर दाराआ से हुआ। सरकार को यह असहमति रास नहीं आई और उसने आंदोलन को दबाने के लिए क्रूरता की। वक्त के साथ आंदोलन लगातार तेज होता गया। अब तक विद्रोही हथियार उठा चुके थे और अपने इलाकों से सरकारी सुरक्षाबलों को निकालना शुरू कर दिया था।
सरकार ने विद्रोह को कुचलने की कोशिश की
सरकार ने विद्रोहियों के इस कदम को ‘विदेश समर्थित आतंकवाद' कहा और इसे कुचलने की हर संभव कोशिश की गई। दोनों पक्षों के बीच हिंसा लगातार बढ़ती गई। 2012 आते आते सीरिया पूरी तरह से गृहयुद्ध की चपेट में आ चुका था। सैकड़ों विद्रोही गुटों ने एक समानांतर व्यवस्था स्थापित कर ली ताकि सीरिया पर उनका नियंत्रण कायम हो सके। इस गृहयुद्ध में दूसरे देशों की एंट्री हो गई इसमें ईरान, रूस, सऊदी अरब और अमरीकी का सीधा दखल बढ़ा।
यूके स्थित मॉनिटरिंग ग्रुप सीरियन ऑब्जर्वेटरी फॉर ह्यूमन राइट्स ने दिसंबर 2020 तक 387,118 मौतें दर्ज की थी। इनमें 116,911 सीरिया के नागरिक थे। इस आंकड़े में वो 205,300 लोग शामिल नहीं हैं, जो लापता हैं और मृत समझे जाते हैं। यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जनवरी 2021 तक एक करोड़ से ज्यादा लोगों को सीरिया में किसी न किसी तरह की मानवीय मदद की जरूरत थी। लड़ाई अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। सीरिया के अधिकतर बड़े शहरों पर अब सीरियाई सेना का नियंत्रण है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक देश के बड़े हिस्से अभी भी विद्रोहियों के कब्जे में हैं।
यूक्रेन की सेना (फाइल)
- फोटो :
पीटीआई
इन युद्धों और यूक्रेन संकट में क्या फर्क है?
2000 के बाद हुए कई युद्धों और अभी यूक्रेन पर हुए रूस के हमले में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इसमें अमेरिका और रूस जैसी दो महाशक्तियां की भूमिका बदल गई है। जैसे मौजूदा हालात में जिस रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है और जो यूक्रेन का दुश्मन नंबर वन गया है, वही रूस सीरियाई गृहयुद्ध में सरकार का हमदर्द था। रूस ने असद का खुलकर साथ दिया था। रूसी मदद के कारण ही विद्रोहियों के कब्जे वाले एलप्पो में असद सरकार को फिर से नियंत्रण कायम करने में मदद मिली।
दूसरी तरफ इस युद्ध में अमेरिका यूक्रेन का साथ दे रहा है। अमेरिका और पूरी नाटो की सेना यूक्रेन के साथ खड़ी है जिसमें 30 सदस्य देश शामिल है। जबकि इससे पहले अफगानिस्तान और इराक पर हुए हमले में अमेरिका आगे रहा। लेकिन लीबिया पर हुए हमले में अमेरिका थोड़ा पीछे रहा।
2000 के बाद हुए कई युद्धों और अभी यूक्रेन पर हुए रूस के हमले में सबसे बड़ा फर्क यह है कि इसमें अमेरिका और रूस जैसी दो महाशक्तियां की भूमिका बदल गई है। जैसे मौजूदा हालात में जिस रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है और जो यूक्रेन का दुश्मन नंबर वन गया है, वही रूस सीरियाई गृहयुद्ध में सरकार का हमदर्द था। रूस ने असद का खुलकर साथ दिया था। रूसी मदद के कारण ही विद्रोहियों के कब्जे वाले एलप्पो में असद सरकार को फिर से नियंत्रण कायम करने में मदद मिली।
दूसरी तरफ इस युद्ध में अमेरिका यूक्रेन का साथ दे रहा है। अमेरिका और पूरी नाटो की सेना यूक्रेन के साथ खड़ी है जिसमें 30 सदस्य देश शामिल है। जबकि इससे पहले अफगानिस्तान और इराक पर हुए हमले में अमेरिका आगे रहा। लेकिन लीबिया पर हुए हमले में अमेरिका थोड़ा पीछे रहा।