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Bihar Election: रोजगार, घुसपैठ, सांस्कृतिक पहचान और पलायन, सीमांचल का वोटर 'सुरक्षा' और 'अस्मिता' के बीच फंसा

Rajkishor राजकिशोर
Updated Sat, 08 Nov 2025 04:09 AM IST
सार

सीमांचल का सियासी यलगार...रोजगार, घुसपैठ सांस्कृतिक पहचान-पलायन जैसे मुद्दों ने उलझाया
 

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Issues like employment, infiltration, cultural identity and migration have entangled Seemanchal region Bihar
मखाना किसान (फाइल फोटो) - फोटो : अमर उजाला प्रिंट
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विस्तार
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सीमांचल अब बिहार की राजनीति का सिर्फ भूगोल नहीं रहा। यह वह युद्धभूमि बन चुका है जहां आर्थिक विकास बनाम सांस्कृतिक पहचान की निर्णायक लड़ाई लड़ी जा रही है। 2025 का यह चुनाव मखाना की मिठास, घुसपैठ के डर, और वोटर अधिकार की हुंकार के साथ एक तीखे त्रिकोण में फंस चुका है, जहा एनडीए, महागठबंधन और एआईएमआईएम तीनों अपनी-अपनी पिच पर डटे है। पूर्णिया और आस-पास के जिलों में घूमते ही एक बात तो समझ आती है कि सीमांचल की मिट्टी तो नरम है पर यहां राजनीतिक फैसले बेहद सख्त होते हैं। सबसे बड़ी बात मतदान हमेशा बिहार के बाकी हिस्सों से अधिक होता है।

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सीमांचल की चुनावी हवा में पहली बार कृषि अर्थव्यवस्था ने जातीय समीकरणों को सीधी चुनौती दी है। सीमांचल-मिथिलांचल का मखाना अब मात्र सुपरफूड नहीं, बल्कि राजनीतिक सुपर-फॉर्मूला बन चुका है। नरेंद्र मोदी ने मखाना बोर्ड, मक्का प्रोसेसिंग क्लस्टर और बिहार न्यूट्री-बास्केट के जरिए सीमांचल के किसानों को नई पहचान दी है। यह सिर्फ योजना नहीं, बल्कि वह राजनीतिक सूत्र है, जिसके जरिये एनडीए ने पारंपरिक एमवाई (मुस्लिम-यादव) आधार पर प्रहार किया है।
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इसके जवाब में, राहुल गांधी ने खेत में उतरकर मजदूरों की रोजी-रोटी और प्रवास की मजबूरी पर सवाल उठाए। उन्होने मखाना की मेहनत को सीधे रोजगार और सरकारी मदद से जोड़ा, ताकि यह मुद्दा सिर्फ उत्पादन नहीं, बल्कि वितरण और न्याय का बन जाए। इस राजनीति ने मखाना के मुद्दे को सिर्फ खेती-किसानी ही नहीं, बल्कि पलायन, गरीबी और बिहार की अर्थव्यवस्था से जोड़ दिया। यह वह मोड़ है जहां आर्थिक हितों ने जातीय समीकरणों को पहली बार खुलकर चुनौती दी है। मखाना बनाम जाति की यह जंग सीमांचल की सबसे ताज़ा राजनीतिक हलचल है।

ध्रुवीकरण की धुरी, मोदी-शाह-योगी
सीमांचल की चुनावी पिच की दिशा तब तेजी से बदली, जब घुसपैठ और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे हावी हो गए। पहले चरण में विकास और सुशासन पर फोकस करती रहे एनडीए के शीर्ष नेताओं ने अपनी-अपनी शैली में इस मुद्दे को जनता की पहचान से जोड़कर यहां का सबसे ज्वलंत मुद्दे को हवा दे दी।

पीएम मोदी सीमांचल में हो रही रैलियो में अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ, सीमा की असुरक्षा व मदरसा मॉनिटरिंग को उठा रहे हैं। उनका सीधा संदेश था कि सीमा असुरक्षित तो बिहार असुरक्षित। पीएम ने यहां राम मंदिर का मुद्दा भी उठाया, उसे कौन नहीं बनने दे रहा था, यह भी याद दिलाया।

गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि घुसपैठ बढ़ी तो बिहार की धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत तक खतरा पहुंच सकता है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने अपने फायरब्रांड अंदाज में इसे और तीखा किया। उन्होंने कहा कि एनडीए सत्ता में आई घुसपैठियों को बाहर कर उनकी संपत्तियां जब्त कर गरीबों को बांटी जाएंगी। बुलडोजर न्याय का संदर्भ देते हुए कहा कि जो लूटेगा, उसका सब कुछ जाएगा।

महागठबंधन-ओवैसी का पलटवार
महागठबंधन व एआईएमआईएम ने अलग-अलग तरह से पलटवार किया है। राहुल-तेजस्वी की जोड़ी ने एनडीए की बहस को ध्रुवीकरण की राजनीति बताकर खारिज किया। राजद व कांग्रेस दोनों की कोशिश है कि इस मुद्दे पर भाजपा की पिच पर न जाया जाए। उन्होंने अपने नेताओं को भी इस बारे में ज्यादा न बोलने की ताकीद की है, लेकिन जमीन पर यह मुद्दा तूल पकड़ता दिख रहा है। महागठबंधन के नेता मुस्लिमों को यह समझाने में जुटे हैं कि सुरक्षा की आड़ में उनके नागरिक अधिकार छीने जा रहे है। तेजस्वी ने स्पष्ट किया है कि उनका मुद्दा विकास, रोजगार और कृषि आधारित उद्योग है, न कि बुर्का या घुसपैठ।

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एआईएमएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी इस मुद्दे पर काफी हमलावर हैं। पिछले चुनाव में इस इलाके में 5 सीट जीतकर अपनी ताकत दिखा चुके ओवैसी ने कहा कि यहां घुसपैठिया कोई नहीं, बराबर के नागरिक हैं। ओवैसी पूछ रहे हैं कि जब हर जाति का अपना नेता हो सकता है, तो मुसलमानों का क्यों नहीं? वह राजद-कांग्रेस पर मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगाते है।

झंडे बदले, चेहरे वही... भितरघात का डर
सीमांचल में नेताओं के चेहरे नहीं बदले, केवल उनके झंडे बदले है। इस झंडा परिवर्तन ने हर पार्टी के उम्मीदवार के मन में एक गहरा डर बैठा दिया है-कहीं मेरी पुरानी टीम ही मुझे न डुबो दे। पूर्णिया के दिग्गज नेता आलोक रंजन, जो कल तक कमल के मजबूत सिपाही थे, आज तीर (जदयू) के उम्मीदवार हैं, लेकिन भाजपा मंडल अध्यक्षों का बड़ा वर्ग उनके लिए खुले तौर पर प्रचार नहीं कर रहा। किशनगंज में कांग्रेस से लालटेन (राजद) की रोशनी में आए सज्जाद हाशमी को अब कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं के निष्क्रिय विरोध का सामना करना पड़ रहा है, जो हाथ की पुरानी निष्ठा को नहीं छोड़ पाए हैं। दल-बदल के कारण भितरघात की चिंता यहां केवल अफवाह नहीं, बल्कि चुनावी यथार्थ है, जिसने कई सीटों के परिणामों को अनिश्चित बना दिया है।

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सीमांचल का सार : छह परतों का निर्णायक संग्राम

  1. सुरक्षा बनाम अधिकार: एनडीए की घुसपैठ रोको और बुलडोजर न्याय की तीखी पिच महागठबंधन के वोटर अधिकार बचाओ के मुद्दे से सीधी टकरा रही है। इससे मतदाता सुरक्षा और अस्मिता के बीच संतुलन खोज रहा है।
  2. अर्थशास्त्र बनाम जाति: मखाना बोर्ड और कृषि विकास से तैयार हुए आर्थिक हित, पारंपरिक जातीय समीकरणों को चुनौती दे रहे हैं और रोटी-रोजी का सवाल पहचान पर भारी पड़ रहा है।
  3. विकास बनाम विवशता: नए हाइवे, पुल और औद्योगिक पार्कों का वादा और झलक युवाओं के सामने घर में ही रोजगार मिलने की संभावनाओं और स्थानीय रोजगार की कमी की गंभीर विवशता के बीच झूल रहा है।
  4. भितरघात बनाम दल-बदल की रणनीति: भितरघात का गहरा डर है, क्योंकि नेताओं के दल बदलने से हर उम्मीदवार के मन में अपनी ही पुरानी टीम से धोखा मिलने का डर है।
  5. सांस्कृतिक संकेत बनाम विकास का दावा: एनडीए द्वारा दिए गए सांस्कृतिक-सुरक्षा संकेत (पहचान की चिंता) और विकास कार्यों के जमीनी प्रमाणों के बीच मतदाता मूल्यांकन कर रहा है।
  6. ओवैसी का नेतृत्व बनाम वोट बैंक: ओवैसी का आक्रामक अल्पसंख्यक नेतृत्व खड़ा करने का प्रयास महागठबंधन के पारंपरिक वोट बैंक को बचाने के लिए बड़ी चुनौती खड़ा कर रहा है।

आखिर में यही कि मखाना की खुशबू और घुसपैठ का डर, ये दो विपरीत ध्रुव सीमांचल के मतदाता को बांट रहे हैं, और अंतिम परिणाम इसी जटिल संतुलन पर निर्भर करेगा।

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