समृद्धि के लिए डाटा सुरक्षा जरूरी, जानिए क्या हैं इसके मायने
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मई 2010 में आधार की शुरुआत के वक्त 'डाटा सुरक्षा, सुरक्षा और गोपनीयता मानदंडों के लिए कानूनी ढांचे' की सिफारिश करने के लिए सचिवों की एक समिति की स्थापना की गई थी। संक्षिप्त नोट में कहा गया था: 'विभिन्न सरकारी और निजी एजेंसियों द्वारा एकत्रित किए जा रहे व्यक्तिगत डाटा की सुरक्षा और संरक्षण कानून में खामी के कारण सवालों के घेरे में है, क्योंकि भारत में कोई डाटा सुरक्षा कानून नहीं है। भारत को इन मुद्दों पर व्यापक और व्यवस्थित तरीके से सोचना शुरू करना होगा।' वर्ष 2020 में एक दशक से ज्यादा समय बीतने के बाद- जब एक अरब आधार नामांकन हो चुके हैं, कई समितियों और आयोगों के बाद निजता पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है और एक श्वेत पत्र जारी हो चुका है- भारत डेटा की सुरक्षा और व्यक्तिगत जानकारी की गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए एक फ्रेमवर्क का इंतजार कर रहा है। हां, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की एक धारा 43 ए है, जो सुनिश्चित करती है कि निजी संस्थाएं क्षतिपूर्ति और मुआवजे के भुगतान के लिए उत्तरदायी हैं। हालांकि, डेटा की परिभाषाएं संकीर्ण हैं और प्रावधान व्यापक नहीं हैं। निवारण प्रणाली की अपर्याप्तता और डिजिटल दुनिया में डेटा प्रवाह की जटिलताओं ने हालात को बदतर बना दिया है।
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सरकार अगर निजी डेटा संरक्षण अधिनिययम, 2019 को संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में पारित करवाने में तेजी लाती है, तो इसमें बदलाव हो सकता है। यह विधेयक दिसंबर, 2019 में संसद में पेश किया गया था और तबसे संसद की संयुक्त समिति के पास लंबित है। पचास खरब डॉलर जीडीपी की आकांक्षा पालने वाला देश डिजिटल दुनिया में यथास्थितिवाद को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। विकास और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए भारत को डेटा सुरक्षा कानून की आवश्यकता है। श्वेत पत्र तैयार करने वाली समिति के अध्यक्ष जस्टिस बी एन श्रीकृष्णन ऑर्वेलियन स्टेट (स्वतंत्र समाज के कल्याण के लिए विनाशकारी) का डर जताते हुए कहते हैं कि यह विधेयक अपने आप में समस्याग्रस्त है, विशेष रूप से राज्यों को मिली व्यापक स्वतंत्रता के कारण। राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों के लिए डेटा को संसाधित करने की खातिर विभिन्न स्तरों पर खंड 12 में सरकार को रोकथाम, जांच एवं अभियोजन के लिए छूट प्रदान की गई है।
इसके अलावा डेटा संग्रहण के लिए जिम्मेदार व्यक्ति से लेकर सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए डाटा संसाधित करने तक में नागरिक उपयोगकर्ता की सहमति के बिना छूट में अस्पष्ट शब्दों का उपोग किया गया है। स्पष्ट रूप से, समीक्षा और अपील की प्रक्रिया में पर्याप्त रूप से आश्वस्त नहीं किया गया है और सुधार की गुंजाइश बनी हुई है। आशंकाएं जायज हैं और उम्मीद है कि संयुक्त समिति इन खंडों पर विचार करेगी। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार को विश्वसनीयता और वैधता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक बहस की अनुमति देनी चाहिए। उचित डेटा की सुरक्षा के लिए एक कानून की कमी और उसकी अनिवार्यता को संदर्भ से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशंस यूनियन के आंकड़ों के मुताबिक, 2010 में भारत में मुश्किल से नौ करोड़ इंटरनेट उपयोगकर्ता थे। वर्ष 2020 में 74 करोड़ से ज्यादा पंजीकृत इंटरनेट उपयोगकर्ता हैं। और डिजिटल इकोसिस्टम में भारतीयों का जुड़ाव उत्साहजनक है।
भारत के लोग सामाजिक जुड़ाव से लेकर सरकारी सेवाओं तक पहुंच बनाने और व्यवसाय करने तक-यानी हर चीज के लिए एप का उपयोग करते हैं। फेसबुक पर 32 करोड़ से अधिक और व्हाट्सएप पर 40 करोड़ से अधिक भारतीयों के सक्रिय होने का अनुमान है। एरिक्सन की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीयों द्वारा डाटा उपयोग 2019 में 12 जीबी प्रति माह से बढ़कर 2025 तक 25 जीबी प्रति माह हो जाएगा। यहां तक कि संकीर्ण अनुमानों के अनुसार, 12 करोड़ से अधिक भारतीय ऑनलाइन खरीदारी कर रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2016 के बाद से डिजिटल लेनदेन प्रतिदिन पांच गुणा बढ़कर 10 करोड़ से अधिक हो गया और 2025 तक 150 खरब रुपये मूल्य के लेनदेन के 1.5 अरब तक पहुंचने की उम्मीद है। इन लेनदेन और जुड़ाव में अंतर्निहित डेटा भंग किए जाने के लिहाज असुरक्षित है, क्योंकि लाभ के लिए विदेशों में भी पोर्ट किया जा रहा है। ई-केवाईसी के लिए आधार को जोड़ना, सरकार से लोगों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के माध्यम से भुतान का लाभ उठाने और स्वास्थ्य लाभ के प्रावधान के लिए प्रस्तावित डिजिटल ढांचे में सक्षम बनाते हैं।
बहस इस बात पर हो रही है कि डाटा संरक्षण के लिए कौन-सा दृष्टिकोण बेहतर है-अमेरिका या यूरोपीय संघ के अलग-अलग राज्यों में डाटा संरक्षण के अलग-अलग कानून हैं। अमेरिकी दृष्टिकोण सूचित सहमति से जुड़ा हुआ है और पीड़ित व्यक्ति डेटा उल्लंघन के लिए मुकदमा कर सकता है। इसे एक मजबूत न्यायिक प्रणाली का समर्थन हासिल है। यूरोपीय मॉडल शीर्ष स्तर पर विनियामक परिवर्तन के अनुपालन के माध्यम से गोपनीयता का विरोध करता है और सामूहिक देयता पर निर्भर है। भारतीय संदर्भ और न्यायिक प्रणाली की अपर्याप्तता को देखते हुए, जेनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन मॉडल के लिए पूर्वाग्रह समझ में आता है। जो बात मायने रखती है कि वह यह कि सरकार अनुपालन लागतों को कैसे विनियमित और कम कर सकती है, ताकि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में नवाचार को नुकसान न पहुंचे।
महामारी के बाद की दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में लोगों की छंटनी के लिए प्रौद्योगिकी को अपनाने के रुझानों में तेजी दिखने की आशंका है। आपूर्ति शृंखलाओं की पुनर्संरचना में डिजिटलीकरण की वृद्धि को देखा जा सकता है, और कुशल श्रम की आवाजाही देशों की घरेलू नीतियों द्वारा बाधित हो सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता का बढ़ता उपयोग, पनपती स्टार्ट-अप संस्कृति, कृषि बाजार का उद्घाटन, फैक्टरी और कार्यालयों में बढ़ती दूरस्थ संलग्नता ने भारत को विकास का लाभ उठाने का अवसर प्रदान किया है। 'डाटा संपन्न' अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की वास्तविकता अच्छी तरह से स्थापित है। विकास को आगे बढ़ाने के लिए धन जुटाने, डेटा का लाभ उठाने का आह्वान राजनीतिक बयानबाजी या आर्थिक सर्वेक्षण में महज अभिव्यक्ति से ज्यादा जरूरी है। यह स्थानीयकरण के बाद डाटा सुरक्षा के लिए एक कानून का रोडमैप बनाने और जनता की भलाई के लिए इसके रूपांतरण का आह्वान करता है।