Samvad 2024: अमर उजाला के मंच से जोश, जज्बा और जुनून का गुरु मंत्र दे गए रियल चैंपियन, बताया हुनर का राज
Amar Ujala Samvad 2024: भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी मुरलीकांत पेटकर, भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी देवेंद्र झाझरिया और भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी डॉ. दीपा मलिक के साथ वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष ने पैरा खेलों की संभावनाओं के साथ उनकी यात्रा पर चर्चा की।
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अमर उजाला के वैचारिक संगम संवाद कार्यक्रम में देश के जाने-माने खिलाड़ियों ने खेलों के हर पहलुओं पर खुलकर बात की। इतना ही नहीं देश के रियल चैंपियन ने सभा में मौजूद लोगों को गुरु मंत्र भी दिया। जोश, जज्बा और जुनून विषय पर आधारित सत्र में भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी मुरलीकांत पेटकर, भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी देवेंद्र झाझरिया और भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी डॉ. दीपा मलिक के साथ वरिष्ठ पत्रकार उत्कर्ष ने पैरा खेलों की संभावनाओं के साथ उनकी यात्रा पर चर्चा की।
जिंदगी का पहला गोल्ड मेडल था एक पैसा
देश को साल 1972 में 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी में पहला पैरालंपिक स्वर्ण पदक दिलाने वाले पद्मश्री मुरलीकांत पेटकर ने अपने अनुभव साझा किए। कहा, जिंदगी का पहला गोल्ड मेडल वह था, जब उन्होंने अपने गांव में कुश्ती मुकाबले को जीतकर एक पैसे का सिक्का अपने नाम किया था। कई चुनौतियाें काे पार पाकर चैंपियन बने मुरलीकांत पेटकर ने कहा, बचपन से जिद थी कि किसी एक खेल में देश का प्रतिनिधित्व कर गोल्ड मेडल जीतूं। सेना के इलेक्ट्रॉनिक्स और मैकेनिकल इंजीनियर्स (ईएमई) कोर में क्राफ्ट्समैन के पद पर रहे मुरलीकांत की जिंदगी में साल 1965 में एक बड़ा मोड़ आया। बताया, इस साल भारत-पाक के बीच हुई जंग में पेटकर को नौ गोलियां लगी और एक गोली उनकी रीढ़ की हड्डी में आज भी है। इसके चलते वह घुटने से नीचे पैरालाइज हो गए।
करीब एक साल तक कोमा में रहने के बाद दो साल तक बिस्तर पर रहे मुरलीकांत ने हार नहीं मानी और ठीक होने के बाद कुश्ती और बॉक्सिंग में हाथ आजमाया। दिव्यांग होने के चलते अक्सर लोग कहते थे, चंदू तुझसे नहीं हो पाएगा और वह चंदू शब्द बहुत चुभता था, लेकिन बचपन से देश को मेडल दिलाने का सपना लिए मुरलीकांत ने हार नहीं मानी और बॉक्सिंग में अपने मुक्के का दम दिखाकर 13 देशों के मुक्केबाजों को धूल चटाई। बॉक्सिंग का अपना 14वां अंतरराष्ट्रीय मुकाबला हारने के बाद मुरलीकांत ने तैराकी शुरू की और पैरा ओलंपिक में देश का पहला स्वर्ण पदक दिलाया। इस दौरान उन्होंने हाल ही में देशभर के सिनेमाघरों में रिलीज हुई फिल्म चंदू चैंपियन के भी कई किस्से साझा किए। फिल्म निर्माता कबीर खान के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अभिनेता कार्तिक आर्यन ने मुरलीकांत की भूमिका निभाई थी।
छाती पर मेडल और पद्मश्री लगा युवाओं को कर रहे प्रेरित
छाती पर लगे मेडल और पद्मश्री के बारे में बात करते हुए कहा, मैं हर कार्यक्रम में अपने मेडल और पद्मश्री अपनी छाती पर इसलिए लगाता हूं, ताकि देश के युवा खेलों के प्रति जागरूक हों और अपने परिवार व देश का नाम रोशन करें।
मां के गहने बेचकर खेला, सोना जीतकर चुकाई कीमत
भाला फेंक में विश्व में देश का परचम लहराने वाले भारतीय पैरालंपिक खिलाड़ी पद्मश्री से सम्मानित देवेंद्र झाझरिया को आज भी वह किस्सा दर्द देता है, जब वह मां के गहने बेचकर साल 2004 में एथेंस ओलंपिक में खेलने गए थे। हिम्मत और जज्बे का दूसरा नाम देवेंद्र झाझरिया ने नौ वर्ष की उम्र में अपना एक हाथ गंवा दिया था।
कई चुनौतियों को पार कर भाला फेंक में अलग पहचान बनाने का सपना लिए देवेंद्र झाझरिया ने 10वीं कक्षा में ही जिलास्तरीय एथलेटिक्स टूर्नामेंट में पहली बार स्वर्ण पदक जीता था। उन्होंने पैरा ओलंपिक के बाद इंचियोन दक्षिण कोरिया पैरा एशियन गेम्स में रजत और चीन के ग्वाऊ च्युयानलिंग में कांस्य पदक जीतकर विश्वभर में भारत को गौरवान्वित किया। उन्होंने बताया, साल 2004 में एथेंस ओलंपिक में देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए पहले सिस्टम से लड़ाई लड़ी।
लेकिन सरकार की ओर से आर्थिक मदद न मिलने के बाद पिता ने मां के गहने बेचकर एक लाख रुपये चुकाए और देवेंद्र ने देश के लिए गोल्ड जीता। उन्होंने कहा, देश के लिए पदक जीतने की खुशी शब्दों में बयां नहीं की जा सकती। देश का झंडा जब ऊंचा उठता है और विदेशी धरती पर जब राष्ट्रगान गूंजता है तो यह पल हर देशवासी के रोंगटे खड़े करने वाला होता है।
धारणा बदलने के लिए खेलों से बड़ा कोई माध्यम नहीं : दीपा
अमर उजाला संवाद में पैरालंपिक पदक विजेता डॉ. दीपा मलिक ने अपने अनुभवों से जोश भरा। कहा, दिव्यांग होने के बाद जिद थी, देश के लिए कुछ करना है। उससे भी ज्यादा जिम्मेदारी थी दिव्यांगता के प्रति लोगों की मानसिकता को बदलना।
कहा, लोगों की धारणा को बदलने के लिए खेलों से बड़ा कोई माध्यम नहीं है। डॉ. दीपा मलिक ने वर्ष 2009 में शॉटपुट में अपना पहला कांस्य पदक जीता था, जबकि ठीक एक साल बाद उन्होंने ऐसा कमाल किया कि इंग्लैंड में शॉटपुट, डिस्कस थ्रो और जेवलिन तीनों में स्वर्ण पदक जीतकर देश को गौरवान्वित किया। बताया, दिव्यांग होने के बाद 36 साल की उम्र में खेलना शुरू किया।
इस दौरान अपने आसपास के लोगों से कई ताने भी सुनने को मिले, लेकिन जिद और जज्बा ऐसा था कि कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। हालांकि, खेल के लिए अपने शरीर को तैयार करने के लिए लंबा वक्त लगा और 12 सालों की तपस्या के बाद देश के लिए पहला मेडल जीता। कहा, 20 साल तक बीमारी से गुजरने के बाद भी लोगों की मानसिकता नहीं बदल सकी।
लेकिन, जब देश के लिए मेडल जीता तो कल तक जिस शरीर को लोग दिव्यांग बता रहे थे, आज वहीं मुझे देख गौरवान्वित होते हैं। इतना ही नहीं जब देश के लिए पहला मेडल जीता तो एयरपोर्ट पर करीब 40 गाड़ियां आईं, तो समझ आया खेलों के माध्यम से लोगों की धारणा को बदला जा सकता है। अपनी विकलांगता श्रेणी (एफ-53) में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने वाली पहली भारतीय महिला हैं।
उनको वर्ष 2012 में अर्जुन पुरस्कार, 2017 में खेल के लिए पद्मश्री और वर्ष 2019 में मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार मिल चुका है। वर्ष 2008-09 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी और स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया।
प्रदेश दिव्यांग बच्चों के लिए बने मैदान
पैरालंपिक खिलाड़ी डॉ. दीपा मलिक ने कहा, देहरादून में 280 दिव्यांग बच्चे हैं। ऐसे में इनके लिए खेलने के लिए एक ऐसा मैदान तैयार किया जाए, जहां उन्हें खेलने के लिए सुगम्य परिसर मिल सके। इसके अलावा दिव्यांग खिलाड़ियों के लिए कैंप का भी आयोजन किया जाए, ताकि उत्तराखंड के दिव्यांग खिलाड़ी देश का प्रतिनिधित्व कर हर देशवासियों को गौरवान्वित करें।