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अमर उजाला के शब्द सम्मान में बोले थे प्रणब दा - सभ्यता के वजूद को बचाने के लिये ‘लेखनी’ की पवित्रता को बरकरार रखना होगा
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, नई दिल्ली
Published by: Priyesh Mishra
Updated Mon, 31 Aug 2020 07:32 PM IST
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शब्द सम्मान
- फोटो : अमर उजाला
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पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अब हमारे बीच नहीं हैं। कई दिनों से अस्पताल में भर्ती रहने के बाद सोमवार को वह हमेशा के लिए हमें छोड़कर चले गए। दो साल पहले प्रणब दा अमर उजाला के पहले शब्द सम्मान समारोह के मुख्य अतिथि थे। इस दौरान उन्होंने अपने अनुभव साझा किए थे।
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साल 2018 के पहले शब्द सम्मान प्रणब दा के हाथों ही वितरित किए गए थे। कार्यक्रम 31 जनवरी 2019 को दिल्ली के तीन मूर्ति सभागार में आयोजित किया गया था। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने ‘अमर उजाला फांउडेशन’ के पहले शब्द सम्मान समारोह को संबोधित करते हुए ‘शब्दों’ और ‘लेखनी’ के महत्व का जिक्र करते हुए कहा था ‘‘वास्तव में सभ्यता के वजूद के लिए लेखनी और लेखन की पवित्रता को बरकरार रखना होगा।’’
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उन्होंने साहित्य या अन्य क्षेत्रों में लेखनी को दबाने के प्रयासों को नाकाम बनाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा था, ‘‘मैं लिखे और बोले गए उन शब्दों की ताकत का उल्लेख करना चाहूंगा जो सदियों से सहस्त्रों विचारों के प्रकटीकरण का माध्यम बने हैं। इन शब्दों और लेखनी की पवित्रता को बरकरार रखना हमारा दायित्व है।’’
इस अवसर पर मुखर्जी ने हिंदी साहित्य में जीवन पर्यन्त उल्लेखनीय योगदान के लिए वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह को सर्वोच्च शब्द सम्मान ‘आकाशदीप’ से सम्मानित किया था। इसके अलावा कन्नड़ लेखक गिरीश कर्नाड को हिंदी से इतर भारतीय भाषा श्रेणी में आकाशदीप सम्मान से नवाजा गया
इनके अलावा श्रेष्ठ कृति सम्मान श्रेणी में कथाकार मनीष वैद्य के कहानी संग्रह ‘फुगाटी का जूता’, कवि आर चेतनक्रांति को कविता संग्रह ‘वीरता पर विचलन’ के लिये, कथाकार अनिल यादव के उपन्यास ‘सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है’ के लिये, अनुवाद श्रेणी में गोरख थोरात को मराठी कविता संग्रह के हिंदी अनुवाद ‘देखणी’ के लिये और उदयीमान साहित्यकार के रूप में प्रवीण कुमार के पहले कथा संग्रह छबीला ‘रंगबाज का शहर’ के लिये शब्द सम्मान से नवाजा गया था।
इस मौके पर शब्द सम्मान के निर्णायक मंडल के सदस्य विश्वनाथ त्रिपाठी, मंगलेश डबराल, सुधीश पचौरी और ज्ञानरंजन भी मौजूद थे। पूर्व राष्ट्रपति मुखर्जी ने प्रिंट मीडिया द्वारा ‘लोकतंत्र के सचेतक’ की अपनी मूल भूमिका से इतर साहित्य के प्रोत्साहन की दिशा में कारगर पहल करने की सराहना की थी।