शीर्ष नेतृत्व को लेकर कांग्रेस में उठ रहे सवाल, जरूरी फैसले लेने में कौन कर रहा है देरी!
- क्या परिवारवाद के मोह में हैं पार्टी
- लोक विरुद्ध निर्णय का अर्थ क्या है
- अकेले क्या कर लेंगी प्रियंका गांधी
विस्तार
कांग्रेस के मौजूदा राज्यसभा सांसद, कई राज्यों के सफल पर भारी रहे नेता को भी कांग्रेस का मौजूदा हाव भाव समझ में नहीं आ रहा है। सभी का सवाल है कि कांग्रेस का क्या होगा? क्या पार्टी अब अपने वजूद को दिल्ली की तरह दूसरे दलों का कंधा खोजकर बचाएगी?
दिल्ली के प्रदेश अध्यक्ष सुभाष चोपड़ा ने हार की जिम्मेदारी लेकर कांग्रेस अध्यक्ष को अपना इस्तीफा भेज दिया है, पार्टी की स्थिति को लेकर उनकी पीड़ा झलकती है। पार्टी की एक पदाधिकारी मंगलवार शाम को दिल्ली चुनाव का नतीजा आने के बाद बहुत क्षुब्ध थीं।
उनकी पीड़ा थी कि दिल्ली में 15 साल राज किया, दो लोकसभा चुनाव में सात-सात सीटें ले आए और सात साल बाद (2013 से) हमारे 60 से अधिक प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई?। हम बिहार,उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र हर जगह पिछड़ते जा रहे हैं?
कौन ले रहा है फैसले?
पार्टी में संगठन का विभाग देख चुके वरिष्ठ नेता का कहना है कि पार्टी की रीतियां, नीतियां हमेशा शीर्ष नेतृत्व की इच्छा को देखकर चलती हैं। चाहे कांग्रेस, भाजपा हो या कोई क्षेत्रीय दल। इसलिए सवाल नेतृत्व पर ही उठता है। आखिर वह कौन है जो समय पर निर्णय नहीं लेता, समय का रुख, जनता का मूड भांप नहीं पाता? या समय निकल जाने के बाद बहुत देर से लेता है? वरिष्ठ नेता ने पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि निर्णायक व्यक्ति ही इस तरह की और हर स्थिति के लिए जिम्मेदार होता है। इसलिए वह किसी और से अब शिकायत या चर्चा नहीं कर सकते।
अकेले क्या कर लेंगी प्रियंका गांधी?
क्या प्रियंका गांधी ही कांग्रेस को बचाएंगी? सवाल उठते ही नेता जी भड़क गए। तल्ख लहजे में कहा, अकेले क्या कर लेंगी प्रियंका गांधी? सूत्र का कहना है कि वह ऊर्जावान, तेज तर्रार नेता हैं, लेकिन टूटते, कमजोर होते संगठन में उनकी स्थिति रेगिस्तान में अकेले दौड़ रहे व्यक्ति जैसी है। वह उत्तर प्रदेश में कड़ी मेहनत कर रही हैं, लेकिन उन्हें भी आठ-नौ साल बाद राजनीति में लाया गया। समय निकल गया तब।
क्यों हो रही है कांग्रेस की दुर्गति
दर्जन भर बड़े नेताओं की राय के अनुसार देश की सबसे पुरानी पार्टी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। इसमें परिवारवाद का मर्ज भी लगातार बढ़ रहा है। पार्टी मुद्दों पर समझ बनाने में असफल हो रही है। वफादार, जुझारू नेताओं की पहचान, युवा नेतृत्व को कमान देने में समय पर निर्णय का अभाव है। इसके कारण निर्णायक निर्णय लेने में बहुत अधिक विलंब हो रहा है। निर्णय न ले पाने की जटिलता के कारण कांग्रेस क्षेत्रीय वर्चस्व में पिछड़ रही है और इसका असर राष्ट्रीय स्तर पर दिखाई दे रहा है।
राजस्थान के एक बड़े नेता का कहना है कि अगली पंक्ति के नेता भी असहाय स्थिति में हों तो इसे क्या कहेंगे? यही है वर्तमान स्थिति। इससे निकलना जरूरी है। उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुछ भी हो जो प्रधानमंत्री मोदी और अन्य जो राजनीति में सफल हैं, वह निर्णय तो ले रहे हैं। जहां नहीं ले पा रहे हैं, वहां उन्हें खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। दिल्ली का चुनाव ही ले लीजिए।