Success Story: कभी सड़कों पर मांगता था भीख, पढ़ने के लिए पहुंचा कैंब्रिज

'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए..'
दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां मैं उस आदमी के लिए नहीं लिख रहा हूं जो मेरी आज की कहानी का नायक है बल्कि ये पंक्तियां उस व्यक्ति के लिए हैं जिन्होंने आज की हमारी कहानी के नायक को उस मुकाम तक पहुंचाने में मदद की। खैर आते हैं मुद्दे की बात पर।
'भिखारी' वो प्रजाति जिसे देख कर हमारे देश का अभिजात्य वर्ग अपनी घिन्न भरी नजरें सजा लेता है बिना ये जाने कि क्या सच में इस व्यक्ति या महिला या बच्चे की कोई मजबूरी है!
'जयवेल' आंध्रप्रदेश के नेल्लोर जिले में पैदा हुआ लड़का, जिसकी कहानी किसी फिल्म के हीरो से कम नहीं है। जयवेल का जन्म आंध्रप्रदेश के एक बेहद ही गरीब परिवार में हुआ था। 80 के दशक में आंध्रप्रदेश में आए सूखे की वजह से जयवेल के परिवार वाले रोजी रोटी की जुगाड़ में चेन्नई आ गए।
जयवेल के साथ-साथ और भी कई परिवार के लोग अपना घर बार छोड़ चेन्नई आ गए थे। इस उम्मीद से कि शायद परदेश में ही पेट भरने का शायद कुछ इंतजाम हो जाए लेकिन यहां के हालात और भी बुरे थे।
चेन्नई में परिवार के पास ना तो खाने के लिए खाना ही था और ना ही सर छिपाने के लिए कोई छत। मजबूरी क्या नहीं करवाती, पूरा परिवार वहीं भीख मांग कर अपना पेट भरने लगा, जयवेल भी अपने परिवार वालों के साथ भीख मांगता और पेट भरता था। रात में सोने के लिए आसमान की छत और तारों की चादर के साथ इस धरा का बिस्तर होता था।
अभी तक जो था वो सिर्फ ट्रेलर था

अभी तक जो था वो सिर्फ ट्रेलर था, संघर्ष ने असली पिक्चर की शुरुआत भी नहीं की थी। जयवेल के पिता का देहांत हो गया, पिता के देहांत के बाद मां को शराब की लत लग गई। दिनभर भीख मांग कर जो 10-5 जमा होते मां उस पैसे के शराब पी जाती थीं। मां जबरन भीख मंगवाने का काम करती, एक कमीज थी जो अक्सरहां गंदी दिखती थी।
लेकिन जिंदगी जब संघर्षों की कहानी लिखती है तब उस संघर्ष के बीच से कुछ तेज सा निकलता है, धारदार, चमत्कारी सी छवि लिए। एक दिन भीख मांगने के दौरान जयवेल की मुलाकात उमा मुथुरमन से हुई, जो एक सामाजिक कार्यकर्त्ता थीं। उमा और उनके पति अपने चैरिटेबल ट्रस्ट के लिए भीख मांगने वाले बच्चों पर कुछ डाटा जुटा रही थीं।
स्वयं चैरिटेबल ट्रस्ट नाम की ये संस्था असहाय, गरीब बच्चों के लिए शिक्षा मुहैय्या करवाती थी। जयवेल को उमा अपने साथ ले गईं। उन्होंने जय को पढ़ाने और आगे बढ़ाने का फैसला लिया।
शुरूआती दौर में जयवेल को पढ़ाई-लिखाई का कुछ मतलब समझ नहीं आ रहा था, सिवाय इसके कि खेलने कूदने को मिलेगा। लेकिन शुरूआती दिनों के बाद जय का पढ़ाई-लिखाई में मन लगने लगा। सबसे पहला बड़ा टर्न आया 12वीं के बाद जब जयवेल ने शानदार रिजल्ट दिया।
17 लाख का लोन उठाया

स्वयं चैरिटेबल ट्रस्ट ने जयवेल के दाखिले के लिए तकरीबन 17 लाख का लोन उठाया और उसके सपने को पंख दे दी। आज जयवेल ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं वो भी रेसिंग कार के परफॉरमेंस में इजाफे के लिए किए जाने वाले जरूरी उपाय उनका स्पेशलाईजेशन है।
लौटने के बाद जयवेल वापिस स्वयं ट्रस्ट के साथ अपने जैसे और दूसरे बच्चों के लिए काम करना चाहते हैं। लेकिन इससे पहले वो अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहते हैं।
किस्मत के हाथ होते हैं लेकिन शायद उन्हें दिशा का ज्ञान नहीं होता तब जरूरत होती है उमा जी जैसे लोगों की जो इसे सही दिशा दिखा देते हैं और तैयार होता है जयवेल जैसा एक होनहार, सुदर्शन बच्चा।