Akhanda 2 Movie Review: बेकार डायलॉग, ओवर द टॉप एक्टिंग और तीन घंटे की थकाऊ फिल्म; केवल प्रोडक्शन वैल्यू अच्छा
Akhanda 2 Movie Review: कई अटकलों के बाद, फिल्म 'अखंडा 2' अब रिलीज हो चुकी है। नंदमुरी बालकृष्ण की यह फिल्म पहले से ही चर्चा में थी। जानते है फिल्म कैसी है? यहां पढ़िए रिव्यू
विस्तार
फिल्म 'अखंडा 2' का निर्देशन बोयापती श्रीनू ने किया है, जो बालकृष्ण के साथ पहले भी कई बड़े एक्शन ड्रामे कर चुके हैं। इस बार भी उन्होंने एक बड़ी और भारी फिल्म बनाने की कोशिश की है, लेकिन नतीजा वैसा नहीं निकलता जैसा उम्मीद थी। फिल्म में संयुक्ता मेनन, आधी पिनिसेट्टी, हर्षाली मल्होत्रा, जगपति बाबू, कबीर दुहन सिंह और सस्वता चटर्जी जैसे कई कलाकार जुड़े हैं। फिल्म को राम अचंता, गोपी अचंता और ईशान सक्सेना ने बड़े पैमाने पर बनाया है और इसे 14 रील्स प्लस और IVY एंटरटेनमेंट ने प्रोड्यूस किया है।
कहानी
फिल्म की शुरुआत एक पड़ोसी देश की साज़िश से होती है। उनका इरादा भारत को नुकसान पहुंचाने का है और उन्हें लगता है कि अगर वे सनातन धर्म पर हमला कर दें, तो भारत कमजोर हो जाएगा। इसी वजह से वे महाकुंभ मेले में जैविक हमला करने की योजना बनाते हैं। यह सेटअप बड़ा है, लेकिन फिल्म इसे उतना असरदार तरीके से नहीं दिखा पाती।
हमला होते ही देश मुश्किल में आ जाता है और DRDO को इसका हल ढूंढने की जिम्मेदारी दी जाती है। इसी दौरान यह काम गलती से एक 16 साल की लड़की जननी (हर्षाली मल्होत्रा) के हाथ लग जाता है। वह बेहद होशियार दिखाई गई है और वायरस का इलाज भी बना लेती है। लेकिन उसके बाद वही दुश्मनों का सबसे बड़ा निशाना बन जाती है। इस हिस्से में भी कहानी जल्दबाजी में चलती है और कई बातें ठीक से समझाई नहीं जातीं। यहीं पर उसके मामाजी अखंडा (नंदमुरी बालकृष्ण) की एंट्री होती है। उन्होंने जननी से वादा किया था कि हमेशा उसके साथ रहेंगे और वे उसे बचाने के लिए लौट आते हैं। लेकिन इसके बाद कहानी कई दिशाओं में भागने लगती है - कहीं सेना, कहीं काला-जादू, कहीं अलौकिक ताकतें। कई बार लगता है कि फिल्म में कुछ भी बिना सोच-समझ के जोड़ दिया गया है। कई सीन ऐसे हैं जो आपस में जुड़े ही नहीं लगते।
एक्टिंग
नंदमुरी बालकृष्ण अपनी पूरी कोशिश करते हैं और कुछ जगह उनका अभिनय ठीक लगता है। उनके डायलॉग फैंस को पसंद आएँगे, खासकर सनातन धर्म और भारत पर बोले गए डायलॉग। लेकिन कई दृश्यों में उनकी आवाज़ और एक्सप्रेशन जरूरत से ज़्यादा हो जाते हैं, जिससे सीन थोड़ा भारी लगने लगता है। हर्षाली मल्होत्रा (जननी) इस रोल में सही नहीं लगतीं। यह किरदार बहुत महत्वपूर्ण था, लेकिन उनकी स्क्रीन प्रेज़ेंस उतनी मजबूत नहीं है कि ऑडियंस उनसे जुड़ पाए। किसी और अभिनेत्री को लिया जाता तो शायद यह किरदार ज़्यादा प्रभाव डालता। संयुक्ता मेनन, आधी पिनिसेट्टी, जगपति बाबू, कबीर दुहन सिंह, सस्वता चटर्जी - सब फिल्म में हैं, पर उनके रोल बहुत छोटे और कमज़ोर हैं। न लिखावट मजबूत है, न स्क्रीन टाइम। इसलिए इतने बड़े कलाकार होने के बावजूद कोई भी प्रभाव नहीं छोड़ पाता।
डायरेक्शन
फिल्म का निर्देशन बोयापती श्रीनू ने किया है। उनकी पहचान बड़े एक्शन, जोरदार बैकग्राउंड म्यूज़िक और तेज़ कैमरा मूवमेंट से है। इस फिल्म में भी उन्होंने वही सब इस्तेमाल किया है। लेकिन इस बार यह चीजें कहानी को सुधारने में मदद नहीं करतीं। स्क्रीनप्ले बहुत बिखरा हुआ है। कई सीन का कोई मतलब नहीं निकलता। फिल्म तेज़ चलती है, लेकिन दिशा नहीं दिखती। एक पल में राजनीति, दूसरे पल में अलौकिक चीजें, तीसरे पल में काला-जादू - यह सब बातों को उलझा देता है। ऐसा लगता है कि फिल्म सिर्फ एक्शन और शोर पर ही टिकी है, कहानी पर नहीं। हां, फिल्म के सेट और प्रोडक्शन वैल्यू अच्छे दिखते हैं...राम प्रसाद और संतोष डेटके की सिनेमैटोग्राफी ठीक है। काम सामान्य है, लेकिन उन्होंने लद्दाख की लोकेशन्स को अच्छे से दिखाया है।
राइटिंग
राइटिंग फिल्म की सबसे कमजोर बात है। कहानी शुरू से ही कमजोर है और आगे जाकर और भी टूटती जाती है। किरदार अधूरे हैं और कई घटनाए बस अचानक होती रहती हैं। सबसे बड़ी निराशा डायलॉग देते हैं। कई लाइनें सुनकर अजीब लगता है, जैसे - How dare you to disturb my God’s order, Their flag is smiling. We should make it cry ... ये डायलॉग फिल्म को मजबूत बनाने के बजाय और कमजोर कर देते हैं। न इमोशन पैदा करते हैं, न असर छोड़ते हैं।
देखें या नहीं?
अखंडा 2 तीन घंटे की बहुत थकाऊ फिल्म है। कहानी शुरू से ही कमजोर लगती है। पटकथा कहीं भी पकड़ नहीं बनाती। डायलॉगबेहद खराब हैं और कई जगह अटपटे लगते हैं। बालकृष्ण की हर समय की तेज़ आवाज़ और ओवरएक्टिंग देखने का आनंद कम कर देती है। फिल्म का स्क्रीनप्ले दिशा खो देता है। घटनाएँ आपस में जुड़ती नहीं हैं। VFX उम्मीद से काफी कमजोर है और कई दृश्यों में अधूरा सा लगता है। फिल्म में तर्क नहीं के बराबर है। ऑडियंस जितना समझने की कोशिश करता है, उतना ही उलझन बढ़ती है। पूरे अनुभव में थमन का बैकग्राउंड म्यूज़िक ही कुछ राहत देता है। कुल मिलाकर यह फिल्म उम्मीदों पर खरी नहीं उतरती और देखने लायक बहुत कम है। हां, शायद सिर्फ़ नंदमुरी बालकृष्ण और बोयापती श्रीनू के पक्के फैन ही पसंद कर पाएंगे। बाकी ऑडियंस को यह फिल्म ज्यादा प्रभावित नहीं करती।