Chhorii 2 Movie Review: सोहा अली खान की कैमरे के सामने दमदार वापसी, बाकी दोनों छोरियां भी दमदार कम नहीं हैं


चार साल पहले अमेजन प्राइम पर ही रिलीज हुई फिल्म ‘छोरी’ के सीक्वल के तौर पर बनी फिल्म ‘छोरी 2’ की पृष्ठभूमि पहली फिल्म वाली है। किरदार कुछ नए हैं और कुछ पुराने भी। कहानी शहर से शुरू होकर गांव जाती है। उन्हीं गन्ने के खेतों में जिनके रास्ते भूल भुलैया जैसे हैं। पुलिस अभी वहां की सुस्त सी है। ड्रोन जैसी किसी चीज का उन्होंने नाम नहीं सुना है। मामला बच्चियों को पैदा होते ही मार देने का है सो बोली राजस्थान और हरियाणा की लोकभाषा सरीखी रखी गई है। फिल्म में एक डायलेक्ट कोच है लेकिन उन्हें भी कहा ही गया होगा कि बहुत ज्यादा ईमानदारी से काम करने की जरूरत नहीं है क्योंकि मारवाड़ी या हरियाणवी हर हिंदी भाषी समझ ही लेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। तो खड़ी बोली मिश्रित मारवाड़ी मिश्रित हरियाणवी बोलने वाली एक दासी मां इस बार कहानी के केंद्र में है। वह प्रधान जी की लुगाई रही है। प्रधान जी ‘आदि मानव’जैसे बताए जाते हैं, कुंआरी कन्याओं से उनको यौवन मिलता है। कैसे? इसकी पूरी प्रक्रिया फिल्म में दिखाई गई है। नई पीढ़ी ‘आदि मानव’ शब्द सुनकर चौंक न जाए, इसलिए फिल्म की हीरोइन साक्षी को अपनी कक्षा में ‘केव मैन’ पर पाठ पढ़ाते शुरू में ही दिखा दिया जाता है। सिनेमा की भाषा में इसे सेटअप और पेबैक कहते हैं। साक्षी की बच्ची बड़ी हो चुकी है। कहानी ‘छोरी’ की कहानी से सात साल बाद के समय में शुरू होती है।



विशाल फुरिया ने फिल्म ‘छोरी 2’ के लिए कहानी अच्छी बुनी लेकिन, इसका डर फैलाने के लिए जो फॉर्मूले इसके इर्द गिने बुने वे न सिर्फ बहुत लंबे हो गए हैं, बल्कि हॉरर फिल्मों के शौकीनों के लिए बहुत जाने पहचाने हो गए हैं। साक्षी के पति के किरदार में सौरभ गोयल की वापसी असरदार है। दिवगंत आत्माओं के साक्षी के साथ मिलकर शैतान का मुकाबला करने वाला क्लाइमेक्स भी अच्छा बन पड़ा है, लेकिन वहां तक आने के लिए दर्शकों में जो धैर्य चाहिए, वही इस फिल्म का असली लिटमस टेस्ट है। एक अच्छी शुरुआत के बाद फिल्म बीच में आकर बहुत बोझिल होने लगती है। सुरंगों में कभी ईशानी का मां को ढूंढना, कभी मां का ईशानी को ढूंढना, फिर राजबीर का साक्षी को ढूंढना और साक्षी के मददगार पुलिसवाले का भी इन सुरंगों में भटकते रहना, कहीं कहीं बहुत दोहराव वाला लगने लगता है। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक भी बहुत असरदार नहीं है। ग्रामीण अंचलों की ऐसी कहानियों में वहां के लोकसंगीत को जरूर मौका देना चाहिए। अंशुल चौबे ने अपने निर्देशक का जरूर कैमरा लेकर कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया है, लेकिन समग्र रूप में फिल्म में ऐसी कोई असरदार बात नहीं है, जो यादगार बन जाए। चेहरे के जरिये किसी इंसान की आत्मा खींच लेने वाला हैरी पॉटर सीरीज की फिल्मों जैसा सीन रचने से भी विशाल फुरिया को बचना चाहिए था।