The Bhootnii Review: बच्चों जैसी कहानी पर बनी बड़ों की बचकानी फिल्म, संजू बाबा के प्रोडक्शन हाउस की ठंडी बोहनी

होने को तो ये फिल्म गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों की एक बेहतरीन घोस्टबस्टर फिल्म हो सकती थी, लेकिन इसे बनाने वालों ने इस कहानी के असल डीएनए को समझा ही नहीं। कॉलेज कैंपस से भूतों की भगाने की इस कहानी को इसे लिखने वालों ने कैंपस लव स्टोरी में बदलने की कोशिश की। घोस्टबस्टर का हॉलीवुड फॉर्मूला भी लाए। तमाम भूतों को भगाने के बाद एक सुंदर सी भूतनी लाए। ऐसी भूतनी एक ही है इस पूरे जहान में, इसका दावा ठोकने के लिए उसके पहले ‘द’ भी लगाए, लेकिन मामला जमा नहीं। एक तो अपने संजू बाबा को दो बार बीए करके बाबा बनने वाला आइडिया जिसने भी दिया, बहुत ही गोबर आइडिया है।

संजय दत्त की प्रोडक्शन कंपनी की फिल्म
हाल ही में अभिनेता हर्षवर्धन राणे की फिल्म ‘सनम तेरी कसम’ को फिर से रिलीज करके सुर्खियों में आए निर्माता दीपक मुकुट की संजय दत्त की कंपनी के साथ बनाई अगली फिल्म है, ‘द भूतनी’। मान्यता दत्त फिल्म की को प्रोड्यूसर हैं। संजय दत्त के पिता सुनील दत्त ने कभी हिंदी सिनेमा को चोटी पर ले जाने वाली फिल्में अपनी कंपनी अजंता आर्ट्स के बैनर तले बनाई थीं। इस बैनर तले वे फिल्में बनाते, सरहदों पर फौजियों का मनोरंजन करने के लिए सितारों को सैर पर ले जाते, नए हुनरमंद तलाशते और भी तमाम काम सिनेमा के लिए करते। तीन साल पहले संजय दत्त ने थ्री डाइमेंशन मोशन पिक्चर्स नाम की फिल्म कंपनी बनाई। तब संजय दत्त ने कहा था कि वह हिंदी सिनेमा में वैसी फिल्में बनाना चाहते हैं जैसी फिल्में हॉलीवुड में डेंजल वाशिंगटन, केविन कोस्टनर और मेल गिब्सन बना रहे हैं। काश, संजू बाबा ने डेंजल वाशिंगटन की ‘इक्वलाइजर’ सीरीज की फिल्में देख ली होतीं।

थ्री डाइमेंशन मोशन पिक्चर्स की पहली फिल्म ‘द भूतनी’ तीन साल पहले ‘वर्जिन ट्री’ के नाम से शुरू हुई थी। जैसा कि संजय दत्त का एलान था, ये फिल्म उनकी हीरोगिरी को फिर से बड़े परदे पर सजाने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन 65 साल का हो चुका उनका शरीर उनके इरादों का साथ देता नजर नहीं आता। वह घोस्टबस्टर के किरदार में दर्शकों को प्रभावित करने की कोशिश पूरी करते हैं, लेकिन जिस स्कूल या कॉलेज में उन्हें बुलाया गया है, वहां पढ़ाई छोड़ बाकी सारा काम होता है। वह खुद भी इसी कैंपस से निकले हैं। भूतों को भगाने का बिजनेस करते हैं। साथ में एक गाड़ी चलती है जिसमें बैठे लोग भूतों की शिनाख्त करते रहते हैं। एक इंटर्न है जो डांट खाने के लिए साथ चलता रहता है। कहानी कैंपस के एक ऐसे पेड़ की है जिस पर कहते हैं कि वैलेंटाइंस डे के दिन आत्मा आती है और सच्ची मोहब्बत करने वालों को मिला भी देती है। लेकिन, इस पेड़ का एक जुड़वा पेड़ भी है कैंपस में जहां एक भूतनी का डेरा है। सनी सिंह और पलक तिवारी की जोड़ी यहां कैंपस लव स्टोरी सजाने के लिए है। मौनी रॉय दोनों की लव स्टोरी में विलेन या वैंप, जो भी वह हैं, बनकर आती हैं।

फिल्म ‘द भूतनी’ अपने विचार के स्तर पर ही मात खा जाती है। कैंपस लव स्टोरी देखने अब कौन आता है थियेटर में? और ऐसा कैंपस जिसमें सिर्फ भूतों की ही बातें चलती रहती हों। पूरी फिल्म में किसी क्लासरूम के या किसी अध्यापक के क्लास मे पढ़ाते हुए दर्शन नहीं होते। बच्चे सजावट में लगे रहते हैं। मास्टर मीटिंग में लगे रहते हैं। अपना हीरो और उसके दोस्त कुछ ऐसा गाना गाते रहते हैं, जिसके अंत में डॉट, डॉट, डॉट करके गालियों का फिल इन द ब्लैंक्स छोड़ा गया है। फिल्म इसी के बाद न बच्चों की रही और न बड़ों की। बीच की जिस जनरेशन के लिए ये गाना बना है, वे सब सुबह नौ बजे के शो में मुझे मिले फिल्म ‘थंडरबोल्ट्स’ देखते हुए। बिना किसी जमीनी शोध या इंसानी रिसर्च के फिल्में बनाना नुकसान का सौदा है। हिंदी फिल्में बनाने वालों को कुछ तो सैंपल साइज समझकर अपनी कहानियों पर फिल्म बनाने से पहले फीडबैक लेना चाहिए। हॉलीवुड की इतनी सी नकल हिंदी सिनेमा को बहुत फायदा पहुंचा सकती है।

कहानी जलेबी की तरह गोल गोल घूमती रहती है। दर्शक अपने हिसाब से इसमें इसका मतलब समझते रहते हैं। लेखकों और निर्देशक की तरफ से कोई कोशिश नहीं की जाती ये ध्यान रखने की कि वे ये फिल्म अपने लिए नहीं दर्शकों के लिए बना रहे हैं। सनी सिंह और पलक तिवारी के किरदारों के बीच की मोहब्बत पनपने नहीं पाती और जिसका नाम दर्शक मोहब्बत समझते रहते हैं वह अंत में करिश्मा निकलती है और उसके साथ संजय दत्त के किरदार की ‘हिस्ट्री’ भी निकल आती है। भला हो बाबा के हाथ पर बने टैटू का नहीं तो समझ ही नहीं आता कि चालीस साल पहले संजू बाबा दिखते कैसे थे? वंकुश अरोड़ा औऱ सिद्धांत सचदेव की न कहानी में दम है, न पटकथा में और इसके संवाद भी दूध का दही करने जैसे ही हैं।

कथा, पटकथा, निर्देशन के अलावा फिल्म ‘द भूतनी’ संगीत में भी जीरो है। बताया गया कि फिल्म के कोरियोग्राफर गणेश आचार्य हैं, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप कोई गाना फिल्म में है नहीं। संतोष थुंडियल ने जरूर अपने कैमरे की नजर से फिल्म को सुंदर बनाए रखने की कोशिश की है। अमर मोहिले का बैकग्राउंड म्यूजिक भी काम कर जाता, अगर फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स और विजुअल इफेक्ट्स कायदे के होते। बच्चों के किसी वीडियो गेम जैसा है पूरा नजारा। फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइन बहुत ही औसत है। ढीले ढाले संपादन के साथ बनी फिल्म ‘द भूतनी’ को देखने की एक ही वजह है और वह संजय दत्त भी यहां न अपने किरदार के साथ न्याय कर पाते हैं और न ही उनका किरदार ही दमदार तरीके से निखर पाया है। पलक तिवारी और सनी सिंह का काम औसत दर्जे का है। हां, मौनी रॉय ने भूतनी बनने में मेहनत बहुत की है लेकिन, उनको अभिनय की अभी बहुत सारी पाठशालाओं में हाजिरी लगाना जरूरी है।