Phule Movie Review: आजादी में दलितों के योगदान को बयां करती भावुक फिल्म, ब्राह्मणों से मिले साथ का भी खुलासा

महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्री फुले की जीवनी पर बनी फिल्म ‘फुले’ चूंकि एक पूर्णत: व्यावसायिक फिल्म नहीं है लिहाजा इसमें आम हिंदी फिल्मों जैसा गाना, बजाना और धूम धड़ाका नहीं है। ये सिर्फ सच्ची घटनाओं को सहारा बनाकर आगे बढ़ती है। इसमें ‘केसरी 2’ जैसी कल्पनाओं का अतिरेक भी नहीं है। ये देश में पहली बार हुए पीडीए के प्रयोग की कहानी है। पीडीए का प्रयोग इन दिनों उत्तर भारत की सियासत में खूब हो रहा है। फुले ने यही काम आजादी से पहले किया। पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के एका के बूते आजादी की लड़ाई लड़ने की बात उन्होंने कही और इसके लिए जरूरी थी समाज में समानता और शिक्षा के अधिकार की लड़ाई। फुले बहुत सारे स्कूलों में पढ़ाए नहीं जाते। अधिकतर आबादी को पता ही नहीं कि जब महाराष्ट्र और गुजरात एक ही सूबे थे और बॉम्बे कहलाते थे, तब के महाराजा ने देश में पहली बार किसी को आधिकारिक रूप से महात्मा की उपाधि दी। जी हां, मोहनदास करमचंद गांधी के महात्मा गांधी बनने से भी पहले।

अभिनेता से निर्देशक बने अनंत (नारायण) महादेवन ने कैमरे के आगे और पीछे अपनी जवानी के दिनों में खूब कूद फांद की। केरल में जन्मे, महाराष्ट्र में मशहूर हुए अनंत को बायोपिक बनाने में आनंद ‘मी सिंधुताई सपकाल’ से आना शुरू हुआ। कम लोग ही जानते होंगे लेकिन केरल के मशहूर अंतरिक्ष वैज्ञानिक नंबी नारायणन पर बनी फिल्म ‘रॉकेट्री’ भी पहले वह ही निर्देशित करने वाले थे। उनकी बनाई ‘गौर हरी दास्तान’ भारतीय सिनेमा की धरोहर है। उनकी एक और फिल्म ‘माई घाट’ अब भी रिलीज की कतार में हैं। फिल्म ‘फुले’ उनकी साधना है। साधना इसलिए क्योंकि इसमें विघ्न कम नहीं हुए हैं। यह समाज के दबे कुचले उस वर्ग की कहानी है जिसे पहली बार ‘दलित’ कहकर फुले ने ही पुकारा। फुले दरअसल ज्योतिराव की जाति नहीं है। फूलों के किसान परिवार में जन्मे ज्योतिराव के पिता ने ये सरनेम अपने नाम के साथ राजा से मिली जमीन पर खेती करने के साथ रखा। गेंदा फूल फिल्म के शुरू से आखिर तक रहता है। पीले चटख रंगों वाला। समाज के संभ्रांत परिवार के घरों को सजाने वाला। देवताओं पर चढ़कर इतराने वाला। और, जो इसे उगाता है, उसकी परछाई तक से देवताओं की पूजा करने, करवाने वाले कतराते हैं।

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रही बात फिल्म के तकनीकी विस्तार की तो, अभिनय के मामले में प्रतीक गांधी और पत्रलेखा ने अपना सबकुछ इस फिल्म में झोंक देने की कोशिश की है। युवा ज्योतिबा के मुकाबले बुजुर्ग ज्योतिबा के किरदार में प्रतीक का काम प्रशंसनीय है। उनको अपनी एक खास मैनरिज्म का खतरा शुरू से रहा है, वह कुछ-कुछ पंकज त्रिपाठी वाली कमजोरी में भी अटके दिखते हैं जिसमें हर संवाद वह बस एक ही ढर्रे में बोल जाते हैं। हालांकि, जैसे जैसे फिल्म आगे बढ़ती है प्रतीक का अभिनय किरदार के साथ समरस होता जाता है। पत्रलेखा ने अपने चेहरे के साथ जो भी प्रयोग किए हैं, वे इस फिल्म के सहज प्रवाह में शुरुआती दृश्यों में बड़ी बाधा बनते हैं। उनको सावित्री बाई के किरदार में स्वीकारने में समय लगता है। हिंदी भी उनकी स्पष्ट नहीं है, प्रतीक के मुकाबले मराठी भी उन्होंने कम ही बोली है। फिर भी, दोनों ने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने लायक काम किया है। हां, ऐसी काल विशेष की कहानियों में किरदारों में कलाकारों का खो जाना बहुत जरूरी है। फिल्म के सहायक कलाकारों में विनय पाठक और एलेक्स ओ नील का काम अत्यंत प्रभावी है। मोनाली ठाकुर का गाया और कौसर मुनीर का लिखा गाना ‘साथी’ फिल्म को भावुक बनाने में बहुत मदद करता है। ओपनिंग क्रेडिट्स में फिल्म की सिनेमैटोग्राफर सुनीता राडिया का नाम शायद नहीं दिखा, लेकिन, काम उनका भी बोलता है। रौनक फडनिस ने संपादन में फिल्म को चुस्त रखा है। दो घंटे 10 मिनट की ये फिल्म पूरे देश के स्कूलों में मुफ्त दिखाई जानी चाहिए और अगर ऐसा न हो तो कम से कम इसे जीएसटी से तो आजाद कर ही देना चाहिए।