Dhadak 2 Review: सिद्धांत चतुर्वेदी चमके, लेकिन फिल्म जातिवाद जैसे मुद्दे को पूरी गहराई से नहीं पकड़ पाई
Dhadak 2 Movie Review and Rating in Hindi: सिद्धांत चतुर्वेदी और तृप्ति डिमरी की फिल्म 'धड़क 2' रिलीज हो गई है। कैसी है फिल्म की कहानी, आइए जानते हैं।

विस्तार
हमारे समाज में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं। भले ही देश को आजाद हुए 75 साल से ज्यादा हो चुके हैं, लेकिन सोच में बदलाव आज भी अधूरा है। सिनेमा समाज का आईना होता है और जब कोई फिल्म जातिवाद जैसे गंभीर विषय को उठाती है, तो उम्मीद की जाती है कि वो ऑडियंस को सोचने पर मजबूर करे।
'धड़क 2' भी एक ऐसी ही कोशिश है। यह फिल्म तमिल क्लासिक 'परियेरुम पेरुमल' से प्रेरित है, जिसने जाति संबंधी अन्याय को प्रभावी ढंग से दिखाया था। लेकिन हिंदी में उसका असर उतना तीखा महसूस नहीं होता।

कहानी
फिल्म की कहानी नीलेश (सिद्धांत चतुर्वेदी) की है, जो एक दलित परिवार से है और वकालत की पढ़ाई कर रहा है। वह समाज में बराबरी का सपना देखता है। उसे प्यार हो जाता है विधि (तृप्ति डिमरी) से, जो ऊंची जाति से है। शुरुआत में सब कुछ अच्छा लगता है, दोस्ती, भरोसा और साथ में भविष्य के सपने। लेकिन जल्द ही जातिवादी सोच इन दोनों के बीच दीवार बन जाती है। असल टकराव तब शुरू होता है जब विधि के भाई रॉनी को इस रिश्ते के बारे में पता चलता है। इसके बाद नीलेश और विधि की जिंदगी में स्ट्रगल, अपमान और हिंसा शुरू हो जाती है। यह कहानी सुनने में कुछ-कुछ 'सैराट' जैसी लगती है। एक दलित लड़का, ऊंची जाति की लड़की और समाज का विरोध। लेकिन जहां 'सैराट' में यह स्ट्रगल सच्चाई और गहराई से दिखाया गया है, वहीं 'धड़क 2' में यह थोड़ा हल्का और कम असरदार लगता है।

अभिनय
सिद्धांत चतुर्वेदी ने नीलेश के किरदार को पूरी सच्चाई से निभाया है। उन्होंने दर्द, गुस्से और चुप्पी को संतुलित ढंग से पेश किया है जिससे ऑडियंस उनसे जुड़ जाती है। खासकर फिल्म के दूसरे हिस्से में जब वह टूटते हैं या खुद से लड़ते हैं, तब उनकी आंखें बहुत कुछ कहती हैं। तृप्ति डिमरी ने विधि के किरदार में अच्छी कोशिश की है। शुरुआत में उनका किरदार आत्मविश्वासी लगता है, लेकिन जैसे-जैसे कहानी बढ़ती है, वह थोड़ा पीछे छूटता दिखता है। स्क्रिप्ट उन्हें खुलकर कुछ करने का मौका नहीं देती।
सौरभ सचदेवा फिल्म का सबसे बड़ा सरप्राइज हैं। उन्होंने विलेन का किरदार बिना ज्यादा डायलॉग के निभाया है। उनकी आंखों में जो खामोश नफरत है, वह डर पैदा करती है। उनके सीन कम जरूर हैं, लेकिन असरदार हैं। विपिन शर्मा (नीलेश के पिता) का काम छोटा लेकिन प्रभावशाली है। जाकिर हुसैन (कॉलेज डीन) एक ऐसा सीन करते हैं जो नीलेश को लड़ने की हिम्मत देता है। सभी कलाकार अपने-अपने किरदारों में फिट बैठते हैं।

निर्देशन
शाजिया इकबाल ने 'धड़क 2' से निर्देशन की शुरुआत की है और एक अहम सामाजिक मुद्दे को ईमानदारी से दिखाने की कोशिश की है। नीलेश और उसके पिता के बीच का रिश्ता, या वह पल जब नीलेश अकेले में टूटता है; जैसे कुछ सीन प्रभावशाली हैं। हालांकि, फिल्म की शुरुआत थोड़ी धीमी लगती है। किरदारों की बैकग्राउंड समझाने में ज्यादा समय लगने से कहानी का असर थोड़ा कम हो जाता है। कुछ इमोशनल सीन, जैसे कॉलेज में नीलेश के पिता का अपमान, जरूरी होते हुए भी ऑडियंस को भीतर से नहीं झकझोर पाते।
संगीत
फिल्म का संगीत कहानी के साथ मेल खाता है। 'ये कैसा इश्क', 'दुनिया अलग', 'बस एक धड़क' और 'प्रीत रे' जैसे गाने अच्छे हैं लेकिन बहुत याद नहीं रहते। 'बावरिया' थोड़ा एनर्जी लाता है और मूड बदलता है। तनुज टिकु का बैकग्राउंड स्कोर कहानी के साथ बहता है। न ज्यादा भारी, न ही कमजोर।

कमजोरियां
जातिवाद एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सिर्फ फिल्म बनाना काफी नहीं होता। उसे गहराई और ईमानदारी के साथ पेश करना जरूरी होता है। 'धड़क 2' की कोशिश सही लगती है, लेकिन पूरी तरह असर नहीं छोड़ पाती। कई सीन में साफ लगता है कि निर्देशक और लेखक कुछ कहना चाहते हैं, वे बदलाव की बात करना चाहते हैं। लेकिन ऑडियंस तक वो बात पूरी ताकत से पहुंच नहीं पाती। ऐसा लगता है जैसे फिल्म एक जरूरी मुद्दा छूती है, लेकिन उसे गहराई से पकड़ नहीं पाती।
देखें या नहीं?
'धड़क 2' एक अच्छी कोशिश है। इसमें दमदार एक्टिंग है और एक जरूरी मुद्दा उठाया गया है। लेकिन अगर आपने पहले 'सैराट' या 'परियेरुम पेरुमल' देखी है, तो यह फिल्म आपको हल्की लग सकती है। अगर आप सिद्धांत चतुर्वेदी की शानदार परफॉर्मेंस देखना चाहते हैं या सामाजिक विषय पर सोच की शुरुआत करना चाहते हैं, तो इसे एक बार देखा जा सकता है।