Jaat Review: महावीर जयंती पर उत्तर के बलदेव का साउथ में गदर, 10 घंटे में जला दी राणातुंगा की लंका

फिल्म ‘गदर 2’ के बाद सनी देओल की अगली पिक्चर आई है। सनी देओल के दीवानों के लिए बैसाखी पर दिवाली सी होनी है। लेकिन, वहां तक पहुंचने के लिए अभी पूरा वीकएंड बाकी है। मसाला पिक्चर के दीवानों के लिए हीरो की ‘कंटान’ हीरोइन छोड़ बाकी सब है भी इसमें। और, ऊपर से करारी बात ये कि ये टोटल एक्शन फिल्म ‘सिकंदर’ जितनी बुरी नहीं है। हां, ‘जवान’ जितनी अच्छी भी नहीं है। उस स्टैंडर्ड की ये फिल्म भी नहीं है क्योंकि वहां दीपिका पादुकोण हैं। नयनतारा हैं। यहां उर्वशी रौतेला हैं। सलमान खान की ‘सिकंदर’ और शाहरुख खान की ‘जवान’ के बीच डोलती फिल्म है ‘जाट’। इस फिल्म की मूल आत्मा शाहरुख खान की फिल्म ‘जवान’ की ही है। वर्दी की शान पर फिदा रहा एक अफसर सादे कपड़ों में भ्रष्टाचार मिटाने निकला है। हाथ में जो आता है, उसे ही हथियार बना लेता है। इज्जत गंवाने वाली युवतियों को वह बहन बनाता है। धरती के लिए गिड़गिड़ाती बुजुर्ग महिला को मां बनाता है। और, परदे पर पहली बार दिखते ही वादा सा करता दिखता है, संभवामि युगे युगे...!

फिल्म के निर्देशक गोपीचंद मलिनेनी ने अगर अपनी पढ़ाई 12वीं में ही छोड़ न दी होती तो सनी देओल की फिल्म ‘जाट’ भी शाहरुख खान की ‘जवान’ जैसी सुपरहिट फिल्म बन सकती थी। गोपीचंद ने शायद सातवीं, आठवीं में भी नागरिक शास्त्र ठीक से नहीं पढ़ा। भारत में अभी संघीय व्यवस्था उस तरह लागू नहीं है जैसी कि अमेरिका में हैं। अपने राष्ट्रपति को अब भी किसी राज्य में कुछ करवाना हो तो केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिये ही करवाना होता है। और, सीबीआई की भी अपनी सीमाएं है। वह ईडी नहीं है कि जहां चाहे वहां छापा मार दे। फिल्म ‘जाट’ की कहानी उस दौर की लगती है जब मनमोहन देसाई की फिल्मों में तीन हीरो एक दुखिया को ‘डायरेक्ट’ अपना खून दे दिया करते थे और क्लाइमेक्स में अपने अपने नाम ले लेकर गाना भी गा देते थे, लेकिन मजाल कि दर्शकों को इससे कोई शिकायत हो। बस, उन दिनों भारत की साक्षरता दर करीब 35 प्रतिशत थी जो अब ग्रामीण इलाकों तक में 75 प्रतिशत के करीब पहुंच चुकी है। तो थोड़ा लॉजिक तो मांगता है। फिल्म की कहानी यूं है कि आंध्र प्रदेश के दो दर्जन तटीय गांवों में लंका से आए और प्रभाकरण जैसे दिखते एक उग्रवादी के लेफ्टिनेंट रहे आतंकी ने स्थानीय नागरिकता हासिल कर गदर काट रखा है। नाम है उसका राणातुंगा। एक मां है। एक बीवी भी। छोटे भाई की गर्मी चाय से ज्यादा केतली गर्म वाली कहावत याद दिलाती है। राणातुंगा साउथ का डॉन है। नेताओं का आशीर्वाद है। पुलिस उसके तलवे चाटती है। पैसा उसको एक इंटरनेशनल माफिया दे रहा है। क्यों दे रहा है, ये फिल्म देखकर जानें तो ठीक रहेगा। डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश में ये सब चल रहा है, और किसी को कानों कान खबर ही नहीं है।


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67 साल के हो चुके सनी देओल को बार बार स्लो मोशन में दिखाना फिल्म निर्देशक की मजबूरी है या वाकई सनी देओल एक बार में सौ कदम सीधे नहीं चल सकते, ये गोपीचंद मलिनेनी ही बता सकते हैं। लेकिन, अगर पूरी फिल्म से स्लो मोशन के शॉट्स निकाल दिए जाएं तो ये फिल्म 90 मिनट की बढ़िया एक्शन फिल्म बन सकती है। कुल मिलाकर इसमें चार एक्शन डायरेक्टर है। साउथ वाले राम लक्ष्मण हैं, पीटर हाइन भी हैं और सबने मिलकर आपस में फिल्म के कोई दो दर्जन एक्शन सीक्वेंस में से छह-छह बांट लिए दिखते हैं। अब इस फिल्म में कहानी बस इन सारे एक्शन सीन्स को जोड़ने के लिए चाहिए और ये कहानी चूंकि शीर्षासन की तरह खुलती चलती है लिहाजा दर्शकों के मन में तनाव बढ़ते रहना लाजिमी है। दर्शक सनी देओल की एंट्री आदि पर तालियां बजाएंगे या नहीं, इस पर शक हुआ तो निर्देशन ने इसका इंतजाम फिल्म में ही कर दिया है। ढाका की जेल का उसे ‘बुलडोजर’ बताया जाता है, एक बार तो यही लगता है कि फिल्म का नाम ‘जाट’ की बजाय ‘बुलडोजर’ ही बढ़िया रहता।

रेजिना कसांड्रा के रंग रूप का जमा रंग
फिल्म में सनी देओल के बाद सबसे शानदार काम जिस कलाकार ने किया है, वह हैं रेजिना कसांड्रा। वह डॉन वाले शाहरुख खान की जंगली बिल्ली जैसी हैं। राणातुंगा की पत्नी बनी हैं। खास मौकों पर शायद तमिल में ही अपने संवाद बोलती हैं, इनका अनुवाद भी परदे पर सब टाइटल्स के तौर पर नहीं आता। इतनी बला की खूबसूरत महिला का किरदार खराब करने में भी फिल्म बनाने वालों ने कोर कसर नहीं छोड़ी। वह अपने घर में घुसी महिला पुलिस कर्मियों को अपने पति के गुंडों से बलात्कार कराती है! और, पति उसका तमिल है लेकिन हिंदी फर्राटेदार बोलता है। कहीं कोई साउथ इफेक्ट नहीं। देवर विनीत कुमार सिंह बने हैं। मेन विलेन के बेस्ट साइड किक का उनका किरदार पूरी फिल्म में कोई खास असर छोड़ता नहीं है। उनके किरदार की वैल्यू थाने में लटकी 30 लाशों में बस एक गिनती और है। जगपति बाबू, मुरली शर्मा, बबलू पृथ्वीराज, मुश्ताक शेख और राम्या कृष्णन जैसे नाम भी यहां बस गिनती बढ़ाने के लिए ही हैं। नोटिस करने लायक काम फिल्म में संयमी खेर का भी है लेकिन चूंकि उनके किरदार को शुरू में ही कमजोर दिखा दिया जाता है लिहाजा उनके किरदार के साथ दर्शकों की सहानुभूति आखिर तक बनती नहीं है। और, फिल्म में रणदीप हुड्डा भी हैं। धड़ से सिर अलग कर देना उनके किरदार राणातुंगा का सबसे पसंदीदा शगल है। चर्च में जाकर गोलीबारी करना उसकी दहशत को बढ़ाता है। लेकिन, फिल्म में उसकी खलनायकी का असर फिर भी नहीं आता है।
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