Tumko Meri Kasam Review: अदा और इश्वाक की जोड़ी का नहीं जमा रंग, खुद को दोहराते नजर आए अभिनेता अनुपम खेर

विशेष फिल्म्स का अब महेश भट्ट से कोई नाता तो नहीं रहा लेकिन अपने भाई मुकेश भट्ट के साथ फिल्में बनाने के दौर में भी महेश भट्ट ने एशा देओल के ‘टैलेंट’ को तवज्जो दी है। विक्रम भट्ट ने एशा के साथ कोई बीस साल पहले ‘अनकही’ बनाई। अदा शर्मा के साथ वह ‘1920’ कोई 17 साल पहल बना चुके हैं। फिल्म ‘तुमको मेरी कसम’ में विक्रम की ये दोनों शिष्याएं हैं। महेश भट्ट हैं तो अनुपम खेर तो खैर हैं हीं। नाम में क्या रखा है, पूछने वालों को ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए और समझना चाहिए कि फिल्म के विषय से अगर फिल्म का नाम मेल न खाए तो क्या होता है? वैसे तो होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है लेकिन दर्शकों को एक मर्डर जैसी मिस्ट्री से गुजरते हुए कोर्ट रूम ड्रामा को एक रोमांटिक लव स्टोरी सरीखी फिल्म बताकर देखने की गुजारिश इसके नाम ‘तुमको मेरी कसम’ के जरिये करना बहुत नाइंसाफी है। फिल्म का नाम भ्रमित करने वाला है और उतने ही भ्रमित नजर आते हैं, इस फिल्म को बनाने वाले, अपने उद्देश्य को लेकर।

हजारों करोड़ की नेटवर्थ वाले राजस्थान के डॉ. अजय मुर्डिया को वे सारे लोग जानते-पहचानते हैं, जिनको अपने वैवाहिक जीवन में बच्चे न होने की समस्या से जरा सा भी दो चार होना पड़ा है। जेब में पांच हजार रुपये लेकर कोई 27 साल पहले उदयपुर में एक छोटी सी फर्टिलिटी क्लीनिक खोलने वाले अजय को ‘सेक्स क्लीनिक’ चलाने के नाम पर जलील भी किया गया। और, फिर वह समय भी आया जब अपनी पत्नी का साथ पाकर उन्हीं के नाम पर शुरू की गई फर्टिलिटी क्लीनिक इंदिरा आईवीएफ का डंका पूरे देश में बजा। अजय मुर्डिया की ये फिल्म बजाय विज्ञान को चमत्कार का जरिया बताने के, उस केस पर ज्यादा फोकस करती है जिसने उनके दामन पर दाग लगा दिया। रिन साबुन की बट्टी की तरह मुर्डिया के किरदार चमकाने में इस्तेमाल होने की बजाय ये फिल्म अगर ‘पैडमैन’ या ‘रॉकेट्री’ की तरह उनके सामाजिक योगदान पर फोकस रखती तो अद्भुत फिल्म बन सकती थी। असल कमजोर कड़ी यहां महेश भट्ट हैं, जिनके बारे में ये फेमस है कि वह नए निवेशकों की फिल्में अपने पुराने ‘चावलों’ के साथ बनवा देने में मास्टर हैं।

फिल्म ‘तुमको मेरी कसम’ अजय मुर्डिया ने अपने परिजनों, अपनी क्लीनिक में काम करने वालों और जान पहचान वालों के लिए तो नहीं ही बनाई होगी। लेकिन, आम दर्शक के लिए ये फिल्म बनी है, ऐसी कोई कोशिश भी फिल्म में नहीं है। फिल्म का बड़ा हिस्सा अदालती कार्यवाही में उलझता चलता है। मुर्डिया के किरदार में यूं तो यहां अनुपम खेर हैं, लेकिन उनकी जवानी के संघर्ष की दास्तां बयां करने को इश्वाक सिंह को लाया गया है। उनके साथ इंदिरा बनी अदा शर्मा हैं। एक ही बायोपिक में एक किरदार को करने के लिए दो कलाकार लाते ही, मामला डगमगा जाता है। होना तो ये चाहिए था कि कोई कलाकार ऐसा होता तो जो अजय मुर्डिया के दोनों दौर का किरदार प्रोस्थेटिक आदि की मदद से करता तो कुछ और बात होती। ‘गुरु’ के अभिषेक बच्चन या ‘रॉकेट्री’ के आर माधवन याद हैं ना। अनुपम खेर इस तरह के किरदारों में इतना घिस चुके हैं कि उनका बेहतरीन अभिनय भी अब दर्शकों को कल की बात लगती है। अनुपम खेर ये सब इतनी बार कर चुके हैं कि अब उनसे कुछ और बेहतर की उम्मीद रहने लगी है।

घर, परिवार और समाज से दो दो हाथ करते डॉ. अजय मुर्डिया की जवानी के दौर के किस्से इश्वाक सिंह ने बखूबी जिये हैं, लेकिन उनको भी एक के बाद एक ऐतिहासिक किरदारों में देखते हुए दर्शक अब थकने से लगे हैं। उनका काम अच्छा है, लेकिन नई कहानी में नई चुनौतियां और नए सरप्राइज न हों तो सिनेमा देखने के लिए दर्शकों को सिनेमा हॉल तक लाना अब आसान नहीं है। अदा शर्मा ने ‘द केरल स्टोरी’ में जो कुछ कमाया था, वह सब वह ‘बस्तर द नक्सल स्टोरी’ में गंवा चुकी हैं। ‘सनफ्लॉवर’ जैसी सीरीज ने उनकी चमक को और फीका किया है। हां, फिल्म में अगर किसी का काम नोटिस करने लायक है, तो वह हैं एशा देओल। वेब सीरीज ‘रुद्र’ के बाद एशा देओल ने एक बार फिर चुनौती वाला किरदार कबूल किया है और इस किरदार में एशा देओल ने खुद को एक प्रौढ़ अभिनेत्री के नए तेज के साथ प्रस्तुत भी किया है। वह बढ़ती उम्र की चुनौतियों को अपने किरदारों के साथ संभालने की जो कोशिश इस किरदार मे करती दिख रही हैं, वह काबिले तारीफ है। सुशांत सिंह की मौजूदगी दमदार है और एशा देओल के आभामंडल का दमकाने में मदद भी करती है।

सोच समझकर ही कटाएं थियेटर के टिकट
फिल्म ‘तुमको मेरी कसम’ की कमजोर कड़ियां बहुत ज्यादा हैं और इन्हीं के चलते फिल्म का टिकट खिड़की पर टिके रहना मुश्किल नजर आता है। फिल्म के लीड रोल में अनुपम खेर का होना इसकी ओटीटी वैल्यू जरूर बढ़ाता है लेकिन टिकट खिड़की पर भीड़ जुटाने में उनका ग्लैमर अब काम नहीं आता। इश्वाक सिंह भी ओटीटी के ही खिलाड़ी हैं। अदा शर्मा और एशा देओल का नाम बड़ा है पर फिल्म की कहानी में उनका काम इतना बड़ा नहीं हैं कि लोग इन दोनों के लिए ही सिनेमाघर पहुंच जाएं। विक्रम भट्ट ने फिल्म को सस्पेंस थ्रिलर वाले अपने फिक्स सांचे में ढालकर निकाला है। ओरिजिनल रच पाना उनके लिए कितना मुश्किल होता है, इस फिल्म में फिर जाहिर होता है। वह इंस्पायर्ड फिल्ममेकर हैं। किसी विदेशी फिल्म पर देसी फिल्म बनानी हो तो विक्रम कमाल कर सकते हैं लेकिन खुद कुछ नया रचना हो तो उनका बेताल भी जवाब दे जाता है। फिल्म लंबी है। संपादन मांगती है। संगीत के नाम पर बजे झुनझुने कर्णप्रिय नहीं हैं। कुल मिलाकर फिल्म एक बेहद औसत सी हिंदी फिल्म है। सिनेमाघरों में जाकर इसके लिए समय और धन का निवेश करना घाटे का सौदा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि इसे एक बार में तो ओटीटी पर देखना भी चुनौती भरा रहेगा।