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न्याय का मूल है निष्पक्षता, इसे सबसे साधारण नागरिक से भी नहीं छीना जा सकता : हाईकोर्ट
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-प्रोमोटी एसडीई का वेतनमान घटाने की कार्रवाई को हाईकोर्ट ने किया रद्द
अमर उजाला ब्यूरो
चंडीगढ़। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अहम आदेश सुनाते हुए कहा है कि कानून के शासन की आत्मा निष्पक्षता है और यह अधिकार सबसे साधारण नागरिक से भी छीना नहीं जा सकता। दो दशक पुराने मामले में जस्टिस संदीप मौदगिल ने फैसला सुनाते हुए कहा कि 1990 में प्रोमोटी एसडीई को दिए गए उच्च वेतनमान को बाद में वापस लेना गैरकानूनी, मनमाना और संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है। अदालत ने राज्य की कार्रवाई को यह कहते हुए खारिज किया कि सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की तरह व्यवहार करना चाहिए न कि कानूनी प्रतिद्वंद्वी की तरह। एक बार जब याचिकाकर्ता एसडीई कैडर में आ गया और वही कार्य कर रहा था तो उसे सीधे भर्ती हुए एसडीई के समान लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने दिसंबर 2004 का आदेश निरस्त करते हुए याचिकाकर्ता से वसूली की कार्रवाई भी रोक दी और राज्य को आठ सप्ताह में राशि लौटाने का निर्देश दिया। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ता पर धोखाधड़ी, छिपाव या फर्जीवाड़े का कोई आरोप नहीं है। ऐसे में पहले से प्राप्त वित्तीय लाभों को वापस लेना अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है और स्थापित कानूनी सिद्धांतों के विरुद्ध है। अधिकार एक बार दृढ़ हो जाए तो उन्हें संरक्षित रखा जाना अनिवार्य है।
याचिकाकर्ता ने 1977 में सेक्शन ऑफिसर के रूप में सेवा शुरू की थी और मई 1990 में ऐड-हॉक प्रोमोशन के रूप में एसडीई बना। उसको दी गई उच्च पे स्केल यह कहते हुए वापस ले ली गई कि यह केवल सीधे भर्ती एसडीई के लिए है। जस्टिस मौदगिल ने इसे कैडर के भीतर अवैध भेदभाव बताया और कहा कि यह न नीति का हिस्सा है, न किसी क़ानून का। उन्होंने कहा कि लगभग एक दशक बाद बिना नोटिस और सुनवाई के लाभ वापस लेना प्राकृतिक न्याय, वैध अपेक्षा के सिद्धांत और वसूली पर सुप्रीम कोर्ट के स्थापित कानून का उल्लंघन है।
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अमर उजाला ब्यूरो
चंडीगढ़। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने अहम आदेश सुनाते हुए कहा है कि कानून के शासन की आत्मा निष्पक्षता है और यह अधिकार सबसे साधारण नागरिक से भी छीना नहीं जा सकता। दो दशक पुराने मामले में जस्टिस संदीप मौदगिल ने फैसला सुनाते हुए कहा कि 1990 में प्रोमोटी एसडीई को दिए गए उच्च वेतनमान को बाद में वापस लेना गैरकानूनी, मनमाना और संवैधानिक रूप से अस्वीकार्य है। अदालत ने राज्य की कार्रवाई को यह कहते हुए खारिज किया कि सरकार को एक आदर्श नियोक्ता की तरह व्यवहार करना चाहिए न कि कानूनी प्रतिद्वंद्वी की तरह। एक बार जब याचिकाकर्ता एसडीई कैडर में आ गया और वही कार्य कर रहा था तो उसे सीधे भर्ती हुए एसडीई के समान लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता। अदालत ने दिसंबर 2004 का आदेश निरस्त करते हुए याचिकाकर्ता से वसूली की कार्रवाई भी रोक दी और राज्य को आठ सप्ताह में राशि लौटाने का निर्देश दिया। न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ता पर धोखाधड़ी, छिपाव या फर्जीवाड़े का कोई आरोप नहीं है। ऐसे में पहले से प्राप्त वित्तीय लाभों को वापस लेना अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन है और स्थापित कानूनी सिद्धांतों के विरुद्ध है। अधिकार एक बार दृढ़ हो जाए तो उन्हें संरक्षित रखा जाना अनिवार्य है।
याचिकाकर्ता ने 1977 में सेक्शन ऑफिसर के रूप में सेवा शुरू की थी और मई 1990 में ऐड-हॉक प्रोमोशन के रूप में एसडीई बना। उसको दी गई उच्च पे स्केल यह कहते हुए वापस ले ली गई कि यह केवल सीधे भर्ती एसडीई के लिए है। जस्टिस मौदगिल ने इसे कैडर के भीतर अवैध भेदभाव बताया और कहा कि यह न नीति का हिस्सा है, न किसी क़ानून का। उन्होंने कहा कि लगभग एक दशक बाद बिना नोटिस और सुनवाई के लाभ वापस लेना प्राकृतिक न्याय, वैध अपेक्षा के सिद्धांत और वसूली पर सुप्रीम कोर्ट के स्थापित कानून का उल्लंघन है।
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