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ग्राउंड रिपोर्ट: कभी धान की फसल से लहलहाता था बिलासपुर का भगतपुर गांव, आज कृषि का गंभीर संकट; जानें विस्तार से

सरोज पाठक, बिलासपुर। Published by: अंकेश डोगरा Updated Fri, 19 Dec 2025 06:00 AM IST
सार

हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर का भगतपुर गांव जिसे कभी धान का कटोरा के नाम से जानते थे वो आज कृषि संकट से जूझ रहा है। आपसी तालमेल की कमी और फंड न होने के कारण कूहलों की समय पर मरम्मत नहीं हो पाई। पढ़ें पूरी खबर... 

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Ground Report Bilaspur Bhagatpur village once lush with paddy fields now faces a severe agricultural crisis
कहानी भगतपुर गांव की। - फोटो : अमर उजाला नेटवर्क
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विस्तार
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बिलासपुर जिले का भगतपुर गांव कभी अपनी उपजाऊ भूमि और प्रचुर धान उत्पादन के लिए धान का कटोरा नाम से जाना जाता था। आज गांव के किसान गंभीर कृषि संकट से जूझ रहे हैं। क्षेत्र की लगभग 500 बीघा भूमि, जहां कभी सैकड़ों परिवार धान की खेती से अपनी आजीविका चलाते थे, अब पानी की एक-एक बूंद के लिए तरस रहे हैं। पानी के अभाव में किसानों ने धान की खेती बंद कर दी है। इसका बड़ा कारण अवैध खनन से जल स्तर का काफी नीचे चले जाना है, वहीं, भगतपुर में लोग इस सिंचाई योजना के लिए 20 फीसदी अंशदान को जमा करने में भी विफल रहे।

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लगभग 25 वर्ष पहले मृदा संरक्षण विभाग ने यहां एक बहाव सिंचाई योजना (फ्लो इरिगेशन स्कीम) स्थापित की। जो सरयाहली खड्ड से पानी लिफ्ट करती थी। फिर खड्ड के सीने को छलनी कर खड्ड के स्वरूप को ही बदल दिया है। जलस्तर पिछले दो दशकों में 8 से 9 फीट नीचे चला गया है। परिणाम यह हुआ कि सिंचाई के लिए बनाया गया बांध अब पानी के वर्तमान स्तर से काफी ऊंचा हो गया है। इससे कूहलों में पानी चढ़ना नामुमकिन हो गया है।

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रिपोर्ट के दौरान कड़वा सच भी सामने आया कि किसी भी सिंचाई योजना के सफल संचालन के लिए सरकार और जनता के बीच 80:20 का अनुपात तय होता है। 80 फीसदी खर्च सरकार उठाती है और 20 फीसदी रखरखाव का हिस्सा ग्रामीणों की समितियों को देना होता है। भगतपुर में लोग इस 20 फीसदी अंशदान को जमा करने में विफल रहे। आपसी तालमेल की कमी और फंड न होने के कारण कूहलों की समय पर मरम्मत नहीं हो पाई। इससे करोड़ों की सरकारी संपत्ति और सिंचाई का ढांचा आज मलबे में बदल रहा है।

लागत ज्यादा, मुनाफा न के बराबर
धान की खेती से किसानों के मोह भंग के पीछे केवल पानी की कमी नहीं, बल्कि बदलती अर्थव्यवस्था भी है। जरनैल सिंह, सीताराम, परसराम, किशोरी लाल ने बताया कि धान की रोपाई, निराई और फिर कटाई के बाद उसे झाड़ने की प्रक्रिया पूरी तरह मैनुअल है। आज के समय में मजदूरी इतनी महंगी हो चुकी है कि धान की कुल पैदावार की कीमत इसकी लागत को भी पूरा नहीं कर पा रही। जिले में उपयुक्त मंडियों की दूरी और वहां तक फसल पहुंचाने का भारी परिवहन खर्च भी किसानों की कमर तोड़ रहा है। अब किसानों ने धान का विकल्प खोजते हुए सोयाबीन की ओर रुख किया है।
 

युवाओं का पलायन, बुजुर्गों के कंधों पर पुश्तैनी साख
गांव के जन सांख्यिकीय आंकड़े चौंकाने वाले हैं। 20 से 35 वर्ष की उम्र के मात्र 5 फीसदी युवा ही खेती से जुड़े हैं। शेष युवा रोजगार की तलाश में बद्दी, नालागढ़ जैसे औद्योगिक क्षेत्रों का पलायन कर चुके हैं। कुछ भारतीय सेना में सेवाएं दे रहे हैं। बुजुर्ग आज भी खेती केवल इसलिए कर रहे हैं ताकि उनके खेत खिल्ले (बंजर) न दिखे। समाज में यह संदेश न जाए कि उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन का मान नहीं रखा।

स्वरोजगार का नया मॉडल : इंजीनियरिंग छोड़ डेयरी की ओर युवा
भले ही पारंपरिक खेती पिछड़ रही हो, लेकिन यहां के किसानों ने हार नहीं मानी है। भगतपुर में डेयरी फार्मिंग एक बड़े क्रांतिकारी बदलाव के रूप में उभरी है। गांव के पढ़े-लिखे युवा और इंजीनियर तक अब डेयरी चला रहे हैं। यहां प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ क्विंटल दूध का उत्पादन हो रहा है, जो यह दर्शाता है कि अगर सही दिशा मिले तो युवा स्वरोजगार के प्रति गंभीर हैं।

भविष्य की उम्मीद : जाइका परियोजना
वर्तमान में जहां कुछ समर्थ किसानों ने निजी तौर पर ट्यूबवेल लगाकर अपनी फसलें बचाई हैं, वहीं आम किसान की नजरें अब जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (जाइका) के आगामी प्रोजेक्ट पर टिकी हैं। सरकार इस क्षेत्र में जायका के माध्यम से बड़ी सिंचाई योजनाएं लाने की तैयारी में है। ग्रामीणों की मांग है कि अवैध खनन पर सख्ती से लगाम लगाई जाए और सिंचाई कूहलों को दुरुस्त कर इस भूमि को फिर से हरा सोना उगाने के काबिल बनाया जाए।

भगतपुर का संकट केवल एक गांव की कहानी नहीं है, बल्कि यह संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और सामुदायिक जिम्मेदारी की कमी का नतीजा है। यदि अब भी सुधार की दिशा में कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाली पीढ़ियों के पास केवल बंजर जमीन के टुकड़े ही शेष रहेंगे। जो युवा जमीन छोड़ बाहरी जिलों या राज्यों से 10 से 15 हजार की नौकरी के लिए भटक रहे हैं, उन्हें जमीन और खेती की अहमियत समझनी होगी। - मानेंद्र सिंह चंदेल, झंडूता ब्लॉक चेयरमैन, आतमा परियोजना

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